कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिये लगाये गये राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान देश के कई महानगरों और अन्य बड़े शहरों से हज़ारों की संख्या में प्रवासी मज़दूरों ने बोरिया बिस्तर समेट कर अपने गृह राज्यों की ओर पैदल ही जाना शुरू कर दिया क्योंकि इनके लिये कोई परिवहन सुविधा उपलब्ध ही नहीं थी ! ट्रेनें और बसें नहीं चल रही थीं !
लोग पैदल ही अपने गृह जनपदों की ओर छोटे-छोटे बच्चों को लेकर परिवार सहित निकल पड़े ! कुछ गर्भवती महिलाओं को तो रास्ते में ही प्रसव हो गया ! चिकित्सा और दवाइयों की उपलब्धता न होने पर कई बीमार मजबूर तो रास्तों में ही मर गये ! जो किसी भी रिकार्ड में दर्ज नहीं हैं !
इस सब के बाद भी सुविधाएं तो कोई नहीं थी लेकिन चौराहे-चौराहे पर खड़े हुये पुलिस वाले लाठी और डंडों से इन मजदूरों के ऊपर अत्याचार जरूर कर रहे थे ! जैसे वह भारत के निवासी मजदूर नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी हैं !
ऐसा पलायन का दृश्य 1947 के बाद पूरे भारत में वर्ष 2020 में देखने को मिला था ! लोगों को जगह-जगह खाना पानी न मिलने के कारण अपनी जान तक देनी पड़ी ! कुछ लोग ट्रेनों की पटरियों पर लेट-लेट कर आत्महत्या तक कर लिये ! तब कहीं जाकर रेल मंत्रालय की नींद खुली और उसने दबाव में आकर प्रवासियों को उनके गृह राज्यों में वापस लाने के लिये श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाने का फ़ैसला लिया ! लाखों लोगों को इन ट्रेनों ने उनके गंतव्य पर उतारा भी ! लेकिन बीते कुछ दिनों के दौरान यह भी देखने को मिला कि कुछ श्रमिक ट्रेनें से अपना रास्ता भटक कर अपने गंतव्य की बजाये कहीं और पहुँच गये ! हालांकि बाद में उन्हें वापस उनके गंतव्य तक पहुँचाया गया !
यह ट्रेनें किसी भी वजह से अपने गंतव्य तक तय समय से क़रीब तीन गुना में पहुँच रही हैं ! इनमें सफ़र कर रहे यात्रियों का तो गर्मी से बुरा हाल रहा है ! वहीं खाने-पीने में भी उन्हें बहुत परेशानी हुई है ! स्टेशनों के सभी स्टाल बंद पड़े हैं ! पीनेके पानी का पैसे देने के बाद भी पानी तक नहीं मिल रहा है !
इसके अलावा ऐसी रिपोर्ट भी मिलीं है कि इन लेट हुई ट्रेनों में सफ़र कर रहे कुछ बीमार लोग की साँसों तक यात्रा की अव्यवस्था के दौरान ही थम गयी है !
श्रमिक ट्रेनों के यात्रियों को हो रही परेशानियों पर मैं यह सवाल खड़ा करता हूँ कि क्या मजदूर भारत के नागरिक नहीं हैं ! क्या इन मजदूरों के कोई मौलिक अधिकार नहीं हैं क्या ! भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 और 19(1)(घ) ही पर्याप्त है इस विषय पर चर्चा करने के लिये !
वैसे तो भारत का संविधान लोक कल्याणकारी व्यवस्था की बात करता है ! जिसमें कि सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह अपने देश के नागरिकों के सम्मान और सुरक्षा के लिये हर वक्त तत्पर रहे !
संविधान के अनुच्छेद 21 प्रत्येक नागरिक के जीवन जीने और उसकी निजी स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है ! यदि कोई अन्य व्यक्ति या कोई संस्था किसी व्यक्ति के इस अधिकार का उल्लंघन करने का प्रयास करता है ! तो पीड़ित व्यक्ति को सीधे उच्चतम न्यायलय तक जाने का अधिकार होता है ! अन्य शब्दों में किसी भी प्रकार का क्रूर, अमाननीय उत्पीड़न या अपमान जनक व्यवहार चाहे वह किसी भी प्रकार का हो ! उससे सुरक्षा देना इस अनुच्छेद 21के अंतर्गत आता है ! इसमें स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य की सावधानी का अधिकार वैसा ही है, जैसे जीवन का अधिकार होता है !
इसी तरह 19(1)(घ) में भारतीय नागरिकों को समस्त भारत में स्वतंत्र रूप से निबांध भ्रमण करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई है ! जिसमें सरकार कोई भी ऐसा प्रतिबन्ध नहीं लगा सकती है ! जो इस मौलिक अधिकार का हनन करता हो !
लेकिन आज वास्तव में ऐसा नहीं हो रहा है ! कोरोना वायरस के चलते अचानक किया गया लॉक डाउन मजदूरों के लिये बहुत बड़ी समस्या बन गया है ! साथ ही सभी ट्रेनें, बस, यातायात आदि के सभी संसाधनों को कठोरता से रोक कर मजदूरों के मौलिक अधिकार का हनन किया गया है ! ऐसी स्थिति में सरकार की यह संवैधानिक जिम्मेदारी थी कि वह महानगरों से मजदूरों को सुरक्षित उनके पैतृक निवास स्थान तक पहुंचाये ! जिसमें बड़ी चूक हुई है !
दूसरी तरफ आतंकवादी और बलात्कारी के जीवन रक्षा के लिये सुप्रीम कोर्ट की अदालत में रात 12:00 बजे भी खुलकर निर्णय देने के लिये तत्पर रहती हैं ! किंतु भारत का करोड़ों मजदूर अचानक की गई लाक बंदी से इस गर्मी में भूखा-प्यासा सड़कों पर भटक रहा है तो भारत की न्यायपालिका मौन क्यों है ! मेरा प्रश्न यह है कि मजदूरों के कोई मौलिक अधिकार होते भी हैं या नहीं और यदि होते हैं तो उनकी रक्षा कौन करेगा और उनके हनन की क्षतिपूर्ति कौन देगा !!