प्रायः देखा गया है कि समाज में जो संगठन सकारात्मक उर्जा से कार्य कर रहे हैं, वह बहुत अधिक समय तक अपने अस्तित्व को बनाये नहीं रख पाते हैं या उन्हें समाज में अपना अस्तित्व बनाने में बहुत लंबा समय लगना पड़ता है और तब तक समाज में सकारात्मक काम करने वाले लोग प्रायः हतोत्साहित हो जाते हैं !
इसके मूल कारण पर चिंतन करना आवश्यक है ! किसी भी संगठन को आरंभ करने वाला व्यक्ति सामान्यतया: समाज के औसत मानसिक स्तर से श्रेष्ठ मानसिक स्तर का व्यक्ति होता है और वह श्रेष्ठ मानसिक स्तर का व्यक्ति जब समाज की समस्याओं पर चिंतन करता है तो उसे लगता है कि समाज में व्याप्त समस्याएं बड़ी आसानी से थोड़ी सूझबूझ से सुलझाई जा सकती हैं !
अतः वह एक संगठन का निर्माण कर कुछ अपनी विचारधारा से जुड़े हुये व्यक्तियों के सहयोग से कार्य आरंभ करता है ! शुरुआत में तो उत्साह में जब वह और उसके साथी कार्य शुरू करते हैं ! तब अपना तन, मन, धन, ज्ञान, सामर्थ, संपर्क आदि सभी कुछ अपने संगठन को खड़ा करने में लगा देता है !
किंतु कालांतर में धीरे-धीरे जब उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप उसे समाज से सहयोग नहीं मिलता है, तब वह धीरे-धीरे हतोत्साहित होने लगते हैं और उसके संगठन के सहयोगी भी धीरे-धीरे संगठन के कार्यों में सहयोग करना बंद कर देते हैं और कुछ समय बाद वह संगठन मात्र एक नाम का संगठन रह जाता है उसकी सक्रियता समाज में समाप्त हो जाती है !
इस तरह की परिस्थितियों का मूल कारण प्रायः यह होता है कि किस संगठन चलाने वाले व्यक्ति के बौद्धिक स्तर तथा समाज के बौद्धिक स्तर के मध्य बहुत बड़ा अंतर होता है और समाज का यथास्थिति वादी दृष्टिकोण समाज को जल्दी बदलने नहीं देता ! निष्पक्ष और सरल हृदय से कार्य करने वाला संगठन का स्वामी बार-बार समाज को अपना दृष्टिकोण समझाने का प्रयास करता है लेकिन यथास्थितिवादी दृष्टिकोण के कारण समाज उसके दृष्टिकोण पर चिंतन तो करता है पर कार्य करने को तैयार नहीं होता और कुछ समय बाद वह व्यक्ति भी हतोत्साहित हो जाता है !
क्योंकि समाज के प्रत्येक कार्य को करने में तन, मन, धन, ज्ञान, सामर्थ, सहयोग आदि अनेक चीजों का उपयोग होता है ! लंबे समय तक समाज में काम करते-करते आयु के बढ़ने के साथ-साथ व्यक्ति के शरीर का सामर्थ भी कम होता जाता है, अपेक्षा अनुरूप समाज से परिणाम प्राप्त न होने की स्थिति में मन में नकारात्मक विचार आने लगते हैं ! संगठन को चलने के लिये खर्च किया गया धन भी धीरे धीरे समाप्त होने लगता है !
समाज के अंदर तेजी से हो रहे परिवर्तन और आधुनिकीकरण से व्यक्ति को अपने ज्ञान और दिशा में बार-बार परिवर्तन की आवश्यकता महसूस होती है ! सामर्थ भी व्यक्ति का परिणाम रहित सामाजिक कार्य करने के कारण निरंतर व्यय होता रहता है और समाज से सकारात्मक परिणाम न मिलने के कारण सहयोगी व्यक्तियों का सहयोग भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है !
इस सब की मूल वजह यह है कि वास्तव में समाज में किया जाने वाला परिवर्तन एक लंबी अवधि की प्रक्रिया है क्योंकि न तो समाज और न ही शासन सत्ता में बैठे हुये लोग किसी भी सकारात्मक परिवर्तन को जल्दी स्वीकार करते हैं और न ही शासन सत्ता में बैठे हुए लोगों के सहयोग के बिना कोई भी परिवर्तन किया जा सकता है ! क्योंकि भारतीय आध्यात्मिक मानसिकता का समाज यथास्थितिवादी और भाग्यवादी दृष्टिकोण के कारण किसी भी क्रांति को सहज स्वीकार नहीं करता है !
कुछ लोग जर्मन, फ्रांस, अमेरिका, इंगलैंड, रूस आदि के क्रांति का उदाहरण देते हैं ! वहां की सामाजिक मानसिकता आध्यात्म से परे तथा सक्रिय भोगवादी क्रांति का दृष्टिकोण को रखती है ! इसलिये वहां का उदाहरण भारत के संदर्भ में उचित नहीं है !
इतिहास भी बताता है कि भारत में जितनी भी बड़ी क्रांति हुई है ! चाहे वह गौतम बुद्ध ने की हो, आदि गुरु शंकराचार्य ने की हो, या लोकमान्य तिलक ने की हो या किसी भी संदर्भ में कभी भी की गई हो तो वह क्रांति भारत में धर्म और आध्यात्म के माध्यम से ही हुई है !
यह भी सत्य है कि देश की आजादी के बाद आभावग्रस्त समाज में अपने दुखों को कम करने की इच्छा से कुछ अल्पकालीन आर्थिक क्रांति भी हुई हैं लेकिन उनका प्रभाव बहुत लंबे समय तक समाज में नहीं देखा गया ! यहां तक गया है कि जिन लोगों ने देश में आर्थिक क्रांति, राजनीतिक क्रांति, सामाजिक क्रांति लेने का प्रयास किया था उनको भी समाज ने बहुत ही कम समय में अस्वीकार कर दिया ! क्योंकि भारत के समाज का मूल स्वभाव तत्काल लाभ, यथास्थितिवादी दर्शन तथा भाग्यवादी जीवनशैली का है ! मुझे लगता है यही वह मुख्य कारण है कि भारत के अंदर सकारात्मक परिवर्तन जल्दी नहीं हो पाते हैं !
भारत में एक वर्ग वह भी है जिसे नई ट्रेनों के शीशे तोड़ने और टोंटी उखाड़ ले जाने में ही सुख मिलता है !
अब आधुनिक समाज में एक नई समस्या और सामने आ गई है कि लोग विभिन्न राजनीतिक दलों के अंधभक्त होने लगे हैं ! अतः उन्हें यह लगता है उनका राजनीतिक दल सत्ता में आयेगा तो उनकी सारी समस्याओं का समाधान कर देगा ! जबकि वास्तव में ऐसा होता कुछ भी नहीं है !
अतः इस बिरादरी के लोग समाज में परिवर्तन के स्थान पर अपने राजनीतिक दल को सत्ता में लाने के लिये जी जान से कोशिश करते रहते हैं और जब उनके राजनैतिक दल सत्ता में आ जाते हैं तो सत्ता का सुख भोगने वाले नेता के मुंहलगे कुछ लोग उन राजनीतिक दलों पर कब्जा करके कार्यकर्ताओं को बाहर कर देते हैं ! ऐसे अनेकों उदाहरण अनेकों राजनीतिक दल में समय-समय पर देखे जाते हैं !
इसलिये समाज में परिवर्तन के लिये एक नये दृष्टिकोण से चिंतन करने की आवश्यकता है ! जब तक संगठन का मुखिया समाज के निम्नतम स्तर के व्यक्ति के दृष्टिकोण से सामाजिक में परिवर्तन का चिंतन नहीं करेगा ! तब तक समाज में कोई बड़ा परिवर्तन किया जाना मुझे संभव नहीं दिखाई देता है !
भारत में क्रांति जब भी होगी आध्यात्मिक दृष्टिकोण से किसी आध्यात्मिक गुरु द्वारा ही होगी ऐसा मेरा मानना है !!