“शैव संस्कृति” पर हमले के कारण कटा था ब्रह्मा जी का “सर” ! Yogesh Mishra

मत्स्य पुराण अनुसार ब्रह्मा के पांच सिर थे। कालांतर में उनका पांचवां सिर शिवजी ने काट दिया था जिसके चलते उनका नाम कापालिक पड़ा । इस विषय पर आज चर्चा करेगे !

उस काल में विश्व की सबसे विकसित संस्कृति ब्रह्मावर्त के अंदर बहने वाली सरस्वती नदी के तट पर ही विकसित हुई थी ! इस नदी के तट पर बड़े-बड़े चिंतक, विचारक, मुनि, ऋषि और महात्माओं ने मानव कल्याण की इच्छा से वैदिक संस्कृति को विकसित किया था ! वेद की अनेकों ऋचायें इसी सरस्वती नदी के तट पर विकसित हुई थी ! क्योंकि वैदिक ज्ञान और वैदिक संस्कृति सरस्वती नदी के तट पर ही विकसित हुई थी, इसलिए सरस्वती नदी को मां सरस्वती का दर्जा दिया गया जो ज्ञान की देवी कहलाई !

सरस्वती नदी पंजाब में सिरमूरराज्य के पर्वतीय भाग से निकलकर अंबाला तथा कुरुक्षेत्र होती हुई जाती थी फिर करनाल जिला और पटियाला राज्य में प्रविष्ट होकर सिरसा जिले की दृशद्वती (कांगार) नदी में मिल जाती थी । प्राचीन काल में इस सम्मिलित नदी ने राजपूताना के अनेक स्थलों को जलसिक्त कर दिया था । कालांतर में यह इन सब स्थानों से तिरोहित हो गई ।

मनुसंहिता से स्पष्ट है कि सरस्वती और दृषद्वती (कांगार) नदी के बीच का भूभाग ही ब्रह्मावर्त कहलाता था। इसी ब्रह्मावर्त क्षेत्र से विकसित ज्ञान विश्व के चारों दिशाओं में मानव कल्याण की कामना से तेजी से फैल था इसीलिए ब्रह्मा जी के चारों दिशाओं में एक साथ विस्तार की कल्पना को लेकर ब्रह्मा जी के चार सिरों की कल्पना की गई थी !

उसी काल में भारत में भगवान शिव के अनुयायी ने प्राकृतिक ज्ञान अर्थात “शैव संस्कृति” में अपना विश्वास रखते थे ! उनकी यह कल्पना थी कि मनुष्य प्रकृति की उत्पत्ति है अतः प्रकृति कभी भी मनुष्य का अहित नहीं कर सकती है ! इसलिए मनुष्य को प्रकृति का दोहन नहीं करना चाहिये बल्कि प्रकृति के साथ सामंजस्य और उसका संरक्षण करना चाहिए !

ब्रह्मावर्त क्षेत्र से जब प्रकृति दोहन करने वाली वैदिक संस्कृति का प्रभाव भारत की ओर बढ़ा तो “शैव संस्कृति” के अनुयायियों ने ब्रह्मावर्त के इन ज्ञान प्रचारकों का कड़ा विरोध किया क्योंकि ब्रह्मावर्त के ज्ञान प्रचारक वेदों के जिस नगरीय सिद्धांत को लेकर भारत में प्रचारित प्रसारित कर रहे थे ! वह भारतीय प्राकृतिक “शैव संस्कृति” के बिल्कुल विपरीत था !

इस स्थिति में लंबे संघर्ष के बाद “शैव संस्कृति” के अनुयायियों ने जब भारत में “ब्रह्मावर्त संस्कृति” का कड़ा विरोध करके ब्रह्मवर्तीयों ज्ञानियों को खदेड़ दिया और भारत में ब्रह्मा की उपासना को प्रतिबंधित कर दिया ! तो उसी घटना को पुराणों में प्रतीक रूप में यह कहा गया कि भगवान शिव ने ब्रह्मा का सर काट लिया !

“ब्रह्मावर्त संस्कृति” के बाद भारत में “वैष्णव संस्कृति” ( विष्णु लोक की संस्कृति ) का तेजी से आगमन हुआ ! क्योंकि वैष्णव शैवों के मुकाबले संगठित और बुद्धिमान थे ! अतः उन्होंने आवश्यकतानुसार जहां वह सशक्त थे वहां युद्ध किया और जहां पर वैष्णव सशक्त नहीं थे, वहां पर उन्होंने छल और कूटनीति से अपनी वैष्णव संस्कृति का प्रचार प्रसार किया !

कालांतर में वैष्णव ने जगह-जगह गुरुकुलओं की स्थापना कर अपनी सभ्यता संस्कृति के ज्ञान का इतना विस्तृत प्रचार किया कि असंगठित “शैव संस्कृति” भारत से धीरे-धीरे विलुप्त होने लगी और भारत ने कृषि को जीविकोपार्जन का मुख्य आधार मानते हुए, नगरीय वैष्णव संस्कृति को अपना लिया !

जिसका परिणाम यह हुआ कि वैष्णव द्वारा प्राकृतिक रूप से विकसित प्रथ्वी पर वनस्पतियों का बहुत बड़े पैमाने पर सफाया किया गया और उन स्थानों पर बड़े बड़े नगरों और राज्यों की स्थापना की गई ! प्राकृतिक रूप से उगने वाले वनस्पतियों के स्थान पर व्यवस्थित रूप से मनचाहे फसल को पाने के लिए प्राकृतिक वनस्पति को नष्ट करके कृतिम कृषि को विकसित किया जाने लगा !

इसी कृषि से उत्पन्न अनाज, मसाले आदि को पूरे विश्व में भेजकर वैष्णव अति संपन्न हुये और फिर पृथ्वी के ऊपर ही नहीं पृथ्वी के अंदर के भी खनिजों का दोहन करना आरंभ कर दिया !

धीरे धीरे “वैष्णव संस्कृति” पूरे विश्व की सबसे सशक्त और संपन्न संस्कृति के रूप में विकसित हुयी ! जोकि पूरी तरह से प्रकृति के दोहन पर निर्भर थी ! यही “ब्रह्मावर्त” और “शैव संस्कृति” के विनाश का कारण बने !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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