धर्मनिरपेक्षता के कलंक का इतिहास : Yogesh Mishra

आज धर्मनिरपेक्षता भारत के लिये एक नासूर बन गया है ! इस धर्मनिरपेक्षता शब्द की ओट में बहुत से राष्ट्रद्रोह लोगों ने अपने राजनीतिक संगठन बनाकर भारत को गृह युद्ध की ओर ढकेल दिया है ! ऐसी स्थिति में भारत जो कि सदियों से एक सत्य सनातन हिंदू राष्ट्र था ! वह धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र कैसे बन गया ! इसके इतिहास को टटोलना जरूरी है !

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ को संविधान की आत्मा के रूप में शामिल कियह जाने का इतिहास बड़ा अदभुद है ! यह बात नवंबर 1947 की है जब कथाकथित (महात्मा) गांधी अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अपने आखिरी सम्मेलन में पूरे राजनीतिक कौशल के साथ भाग लेने आयह थे ! तो वह अल्पसंख्यकों के अधिकारों के सवालों पर लोकप्रिय जनभावनाओं के ज्वार का सामना कर रहे थे !

बंटवारे की पृष्ठभूमि में गांधी ने ज़ोर देकर कहा, ‘भारत बुनियादी एकता वाला देश रहा है और आज भी है और कांग्रेस का लक्ष्य इस महान देश को एक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में विकसित करने का रहा है ! जहां सभी नागरिकों को पूरे अधिकार होंगे और जहां सभी को चाहे वह किसी भी धर्म के हों, शासन का संरक्षण प्रदान करेगा ! चाहे भले ही धर्म के नाम पर देश का एक बड़ा हिस्सा अपने भाईयों को बंटवारे में ही क्यों न दे दिया गया हो ! संविधान सभा ने धर्मनिरपेक्षता संविधान का बुनियादी सिद्धांत माना है ! इसलियह इसका पालन करना हर भारतीय का दायित्व है !’

हां, गांधी ने ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का इस्तेमाल किया था, उन्होंने यह भी स्पष्ट किया था कि ‘भारत को हिंदुओं के बराबर ही मुसलमानों का भी देश मानना कांग्रेस की बुनियादी मान्यता है ! अपनी प्रार्थना सभाओं में इस बात पर बल देने के कारण गांधी को काले झंडे भी दिखाये गये थे ! पर वह नहीं माने तब उन्हें ‘गांधी मुर्दाबाद’ के नारे लगाते युवाओं का सामना करना पड़ा था !

उन्होंने यह भी कहा कि दिल्ली मुसलमानों का भी है और उन्हें उन शरणार्थी शिविरों से वापस लाया जाना चाहिये जहां से वह डर, हिंसा और आगजनी के कारण जाने के लिये बाध्य हुये थे !

विभाजित उत्तर भारत में फैली हिंसा के बीच उनकी आवाज़ कई बार एकाकी मालूम पड़ती थी ! पर उनकी जिद्द के कारण भारतीय संविधान के निर्माताओं ने भारत के संविधान की उद्देश्यिका में “धर्मनिरपेक्ष” शब्द को जोड़ा जो आज देश को गृह युद्ध की ओर ले जा रहा है ! गोडसे जैसे युवाओं के गाँधी वध के आत्मघाती निर्णय का कारण गाँधी की इसी तरह की जिद्द थी !

इसके लगभग तीन दशकों के बाद जब 1976 में इंदिरा गांधी 59 प्रावधानों वाले 42वें संविधान संशोधन विधेयक द्वारा संविधान की उद्देश्यिका में संशोधन हेतु संसद के दोनों सदनों से प्रस्ताव पारित करवा रही थीं तो उनके विरोधियों ने उनके पास संविधान में संशोधन का अधिकार नहीं होने की बात उठाई थी !

द्रविड़ मुनेत्र कड़गम की एरा सेज़ियन ने उन्हें याद दिलाया था कि वह उनके कई सहयोगियों को जेल में डाल चुकी हैं ! जिन्हें संसद होने के उपरांत भी इस अहम विधेयक पर चर्चा करने का अवसर नहीं दिया गया है और उन्हें हिटलर की तरह संविधान को कमजोर करने के लिये संविधान का ही इस्तेमाल करने नहीं दिया जा सकता है !

बाद में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को लिखे एक निजी पत्र में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पीबी गजेंद्रगडकर ने खुलासा किया कि उन्होंने विधेयक के प्रावधानों के असाधारण महत्व को देखते हुये इंदिरा गांधी से उस पर ‘राष्ट्रीय बहस’ कराने का आग्रह किया था ! कुल 59 प्रावधानों में से एक में संविधान की प्रस्तावना में ‘संप्रभु, लोकतांत्रिक गणतंत्र’ की जगह ‘संप्रभु, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, सामाजिक गणतंत्र’ दर्ज करने की व्यवस्था थी ! जो कि संविधान की आत्मा को ही बदल देगी ! जिस पर गजेंद्रगडकर ने इंदिरा गांधी से यह स्पष्ट करने का आग्रह किया था कि “धर्मनिरपेक्ष से उनका क्या आशय है !”

लोकसभा और राज्यसभा में हुई बहसों से ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द के प्रति व्यापक सकारात्मक भाव, सम्मान और लगाव की बात उभर कर सामने आयी थी ! जनसंघ, माकपा, मुस्लिम लीग, रिपब्लिकन पार्टी, डीएमके, इंदिरा गांधी की कांग्रेस तथा भारत के कोने-कोने से आने वाले तमाम जातियों, जनजातियों और धार्मिक समुदायों के प्रतिनिधि इसके पक्ष में बोले और ‘हमारे लोकतांत्रिक तत्वों की मजबूती और धर्मनिरपेक्षीकरण’ (माकपा सदस्य इंद्रजीत गुप्ता द्वारा प्रयुक्त सारगर्भित शब्द) बढ़ाने के सरकार के उद्देश्य को रेखांकित किया ! इंदिरा गांधी के किये कई संशोधनों को मोरारजी देसाई की अगली सरकार ने उलट दिया था ! पर प्रस्तावना में किये गये संशोधन को नहीं छुआ तक नहीं ! जो सत्य ही भारत के संवैधानिक इतिहास से गुम हो गया !

भारत की 1976 में धर्मनिरपेक्ष होने की आकांक्षा का क्या मतलब था ? यह एक उचित सवाल है क्योंकि कम से कम संसद में राजनीतिक अभिजात वर्ग के स्तर पर एक आम सहमति दिखती थी कि यह एक अच्छी बात है पर क्या यह सचमुच में अच्छी थी !

एक-एक कर सदस्यों ने स्पष्ट किया है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता ‘न तो ईश्वर-विरोधी थी और न ही धर्म-विरोधी’ थी ! बल्कि वास्तव में इसका मतलब था सभी धर्मों के लिये एकसमान आदर दिया जाये ! जो सर्वधर्म समभाव पहले से सनातन चिंतन का हिस्सा था तो उसे नये सिरे से संविधान में जोड़ने की जरुरत क्या थी !

जो आज एम. एफ. हुसैन द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर भारतीय सनातन देवी देवताओं की नंगी तस्वीर बनाने के लिये प्रेरित कर रहे हैं ! दिल्ली के जामा मस्जिद के अंदर बैठा हुआ इमाम भी इसी धर्मनिरपेक्ष की ओट में जोर-जोर से समाज के एक विशेष वर्ग को हिन्दुओं के विरुद्ध संगठित करने के लिये प्रेरित कर रहा है ! ओवेसी तो संविधान में एकता और अखंडता की शपथ खा कर खुलेआम संसद के अंदर और बाहर दोनों ही स्थान पर हिंदुओं को चुनौती देता फिर रहा है !

आज चाहे दिल्ली की घटना हो या पश्चिम बंगाल की ! कश्मीर की घटना हो या केरल की ! यह सभी इसी “धर्मनिरपेक्ष” शब्द की ओट में खेला जाने वाला वह नंगा नाच है ! जो एक न एक दिन पूरे के पूरे देश को गृह युद्ध में ढकेल देगा !

वर्तमान सरकार पूर्ण बहुमत की सरकार है ! राष्ट्रपति भी इनकी अपनी विचारधारा का है ! यदि भारत को वास्तव में बचाना है तो अभी भी समय है ! भारत के संविधान से इस “धर्मनिरपेक्षता” रूपी कलंक को निकाल कर बाहर किया जाये और भारत को सत्य सनातन हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाये ! जो विश्व में अपने आप में इकलौता राष्ट्र होगा ! यही हम सनातन धर्मियों की जीत है !!

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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