आज विश्व में दो तरह के दर्शन विकसित हो रहे हैं ! एक यह मानता है कि ईश्वर के सहयोग के बिना किसी भी तरह का विकास संभव नहीं है ! फिर वह चाहे दैहिक, दैविक, भौतिक किसी भी स्तर का विकास क्यों न हो !
और दूसरा दर्शन यह मानता है कि अब मनुष्य ने विज्ञान को अब इतना विकसित कर लिया है कि उसे अपने विकास के लिए किसी भी ईश्वर की आवश्यकता नहीं है और इसको रूस, अमेरिका, चीन आदि महाशक्तियों से जाना जा सकता है !
जिन्होंने विज्ञान और कूटनीति के द्वारा पूरी दुनिया को पीछे छोड़ दिया और आज विश्व में महाशक्ति बने हुये हैं ! इन देशों ने ऐसी व्यवस्था कायम कर दी कि अब ईश्वर को मानने वाले देश के नौजवान भी इनके आगे घुटने टेक कर इनसे नौकरी मांग रहे हैं !
किंतु भारत अभी भी मुख्य रूप से दो हिस्सों में बटा हुआ है ! एक वह जो अपने तत्कालीन लाभ के लिये इन धर्म विरोधी देशों से जुड़कर या वहां जाकर नौकरी आदि करके अपना जीवन यापन करने में गर्व महसूस करते हैं !
और दूसरा वर्ग वह है जो आज भी मंदिरों में ढोलक मजीरा पीटकर, भजन कीर्तन गा कर अपने को सांसारिक व्यक्तियों से विकसित महसूस करते हैं !
अब प्रश्न यह है कि कौन विकसित है ? यदि विज्ञान के साथ जुड़े हुए लोगों को विकसित माना जाये तो क्या भारत को भी अब भगवान की हत्या कर देनी चाहिए ?
या फिर यदि मंदिरों में बैठे हुये भक्तों को यदि विकसित मान लिया जाये तो फिर भारत का विकास विश्व पटल पर क्यों नहीं हो पा रहा है ? इसका जवाब भगवान के नाम पर राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों के पास भी नहीं है !
समाज भावनाओं से चलता है और देश का विकास विज्ञान से होता है ! हम अतिवादी हैं या तो विकसित देशों के पीछे लगकर अपना निजी विकास करना चाहते हैं, उसके लिये भले ही हमें अपने अंतर्मन में भगवान की हत्या ही क्यों न करनी पड़े !
और या फिर हम संसार के विकासशील नियमों को त्याग कर पूर्ण रूप से अनार्थिक क्रिया में लग जाते हैं !
यह दोनों ही मार्ग गलत हैं !
व्यक्ति दो रूप में जीता है ! एक संसार में दूसरा अंतस चेतना में ! हम संसार के लिए अपनी अंतस चेतना की हत्या नहीं कर सकते और न ही अंतस चेतना के विकास के लिए संसार को ही त्याग सकते हैं !
हमारे इतिहास में कई ऐसे महापुरुषों के उदाहरण हैं, जिन्होंने संसार को संसार के नियमों से चलाते हुये, अपने अंतस चेतना का भी विकास किया है और संसार में रहते हुए भी अपने आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है ! यह चमत्कार बस सिर्फ भारत की भूमि पर ही होता है !
यही जीने का सही तरीका है ! विकास के लिए ईश्वर की हत्या आवश्यक नहीं है बल्कि ईश्वर की कृपा से आप में वह ज्ञान विकसित होता है, जिससे आपका आंतरिक और वाह्य विकास स्वत: होता है !
क्योंकि हम इस विकास के ईश्वरीय विज्ञान को नहीं जानते हैं, इसलिए हम असंतुलित होकर एकांगी जीवन जीते हैं और अपने जीवन में असफल हो जाते हैं ! न तो हमें संसार में ही सफलता मिलती है और न ही अध्यात्म में !
इसलिए संसार के खेल और आध्यात्मिक विज्ञान दोनों पर समान नियंत्रण ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त होता है !
ईश्वर की कृपा के बिना न तो इस संसार में खेला जा सकता है और न ही आध्यात्मिक चेतना का विकास किया जा सकता है !
इसलिये मनुष्य के आत्म कल्याण के लिए दोनों की ही आवश्यक है ! जो मात्र ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है ! किसी भी बुद्धि प्रयोग या पुरुषार्थ से नहीं !!
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