पश्चिम जगत की हजारों अर्थहीन, अविकसित, भ्रमक, आम अवधारणाओं की तरह यह भी एक भ्रांति है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है !
जब की सत्यता यह है कि मनुष्य भावनात्मक प्राणी है ! वह तो समाज से संबंध बस सिर्फ समाज का शोषण करके अपनी निजी संपन्नता को बनाने के लिते रखता है !
संसार में प्राय: लोग श्री को आदर सूचक शब्द के रूप में देखते हैं ! किन्तु श्री ऋषि का विपरीत शब्द है ! क्योंकि मनुष्य मूल्यत: भावुक प्राणी है ! वह सामाजिक प्राणी नहीं है अत: वह समाज में अपने अहम को पुष्ट करने के लिए सामाजिक प्राणी बनने का नाटक करता है !
मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य की भावनाओं को जहां पोषण मिलता है, मनुष्य वहीं पर आनंद की खोज करने लगता है !
फिर वह चाहे परिवार हो, मित्र हो, पड़ोसी हो, समाज हो या कोई धार्मिक स्थल ! कुछ लोग तो अपनी भावनाओं के पोषण के लिए वेश्यालय, शराब घर या जुमे के अड्डों पर भी जाना शुरू कर देते हैं !
अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को अपनी भावनाओं के पोषण के लिए जहां पर भी संभावनाएं दिखती हैं ! मनुष्य उस व्यक्ति या स्थान से जुड़ जाता है !
इस सामाजिक जुड़ाव का तात्पर्य कभी यह नहीं कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है ! मनुष्य समाज में बस सिर्फ अपने अहम के पोषण के लिये समाज से जुड़ता है ! क्योंकि समाज से जुड़े बिना समाज का शोषण संभव नहीं है !
अत: व्यक्ति के समाज से जुड़े बिना न तो वह बड़ा मकान बना सकता है ! न बड़ी गाड़ियां खरीद सकता है और न ही वह समाज के धनाढ्य व्यक्तियों की श्रेणी में गिना जा सकता है !
और समाज में जिस स्थान से मनुष्य के अहम या स्वार्थ की पुष्टि होने की संभावना नहीं होती है ! मनुष्य धीरे-धीरे समाज के उस स्थान से अपने को स्वत: ही अलग कर लेता है !
इसलिए समाज शास्त्रियों का यह चिंतन कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ! यह एकदम गलत है ! मनुष्य पूरी तरह से भावनात्मक प्राणी है ! समाज का प्रयोग तो बस मनुष्य अपने अहम की पुष्टि के लिए करता है !
क्योंकि जब उसके पास बड़ी गाड़ी, बड़ा मकान, दूसरों की तुलना में अधिक पैसा होता है ! तब उसके भावनाओं के एक विकृत स्वरूप अहंकार की पुष्टि होती है ! और मात्र अपने अहंकार को पुष्ट करने के लिए ही व्यक्ति रातों दिन कार्य करता है !
जिसे दुर्भाग्यवश मनुष्य अपना पुरुषार्थ समझ लेता है जबकि यह पुरुषार्थ नहीं बल्कि अपने ही अहंकार को पुष्ट करने का एक प्रयास है ! क्योंकि यह अहंकार भी भावना के आधार पर ही पैदा होता है ! अत: जिन व्यक्तियों में भावनाएं नहीं होती हैं, उनमें अहंकार भी कम होता है ! अत: इस तरह अहंकार का व्यक्ति की भावनाओं से सीधा सम्बन्ध है !
इसीलिये इस विषय को गहराई से चिंतन करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मनुष्य सामाजिक नहीं बल्कि भावनात्मक प्राणी है और भावनाओं की पूर्ति के लिए ही वह सामाजिक प्राणी जैसा दिखाई देता है ! जबकि वह होता नहीं है क्योंकि यदि मनुष्य सामाजिक प्राणी होता तो वह प्रति क्षण समाज का दोहन करके अपनी निजी संपन्नता को बढ़ाने के लिये प्रयासरत न रहता ! और जो लोग ऐसा नहीं करते हैं उन्हें जीवन में असफल व्यक्ति गिना जाता है !!