किसी भी तथ्य या पदार्थ पर हर व्यक्ति की प्रतिक्रिया उसके संस्कार और बुद्धि के अनुसार अलग-अलग होती है ! अनुभूति के क्षेत्र में इस अलग-अलग प्रतिक्रिया को अलग-अलग अनुभूति भी कहा जाता है !
अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी तथ्य या प्रकाश पदार्थ के विषय में जब अलग-अलग व्यक्तियों की अनुभूतियां अलग-अलग होती हैं, तो वह अनुभूति आवश्यक नहीं है कि सत्य हो या असत्य हो ! सत्य और असत्य से परे अनुभूति गत ज्ञान ही माया है !
इसको विस्तार से समझने के लिए किसी विषय पर एक व्यक्ति ने सत्य से अलग तरह की अनुभूति की और दूसरे व्यक्ति ने भी सत्य से अलग तरह की अनुभूति की, तो उस तथ्य या पदार्थ के संदर्भ में दोनों की अनुभूतियां अलग अलग है ! जबकि उसका सत्य अलग है !
जैसे कि अंधकार में पड़ी हुई सामान्य लकड़ी कोई व्यक्ति सर्प समझ रहा है और दूसरा व्यक्ति रस्सी समझ रहा है ! दोनों की ही अनुभूतियां अलग-अलग हैं, किंतु सत्य इन दोनों की अनुभूति से अलग सामान्य लकड़ी है !
इसी तरह अध्यात्मिक के जगत में हर व्यक्ति ईश्वरीय ऊर्जा की अनुभूति अपने बुद्धि, संस्कार और आदतों के अनुरूप करता है ! इसलिए यह बिल्कुल आवश्यक नहीं है कि एक व्यक्ति ने ईश्वरी उर्जा के संदर्भ में जिस तरह की अनुभूति की हो दूसरा व्यक्ति भी उसी तरह की ही अनुभूति करे या फिर दोनों व्यक्तियों में से किसी एक ने सत्य की अनुभूति कर ली हो !
बहुत संभावना है कि ईश्वरी ऊर्जा के संदर्भ में हजारों व्यक्तियों की हजारों अनुभूतियों के बाद भी सत्य अलग ही हो !
इसीलिए सत्य से परे अनुभूतियों को ही माया का प्रभाव कहा गया है ! यह अनुभूतियां न तो कभी सत्य हो सकती हैं और न ही इन्हें असत्य कहा जा सकता है ! इसलिये माया सत्य नहीं बल्कि अनुभूतियों का संग्रह है !
अतः माया को भ्रम, सत्य, असत्य से मत जोड़िये ! बल्कि माया विशुद्ध रूप से अनुभूत का विषय है !!