समाधि से मोक्ष की यात्रा कैसे करें | Yogesh Mishra

मोक्ष हर जीव का प्राकृतिक अधिकार है ! समाधि की समयातीत अवस्था ही मोक्ष है ! इस मोक्ष को ही जैन धर्म में कैवल्य ज्ञान और बौद्ध धर्म में निर्वाण कहा गया है ! योग में इसे समाधि कहा गया है ! इसके कई स्तर होते हैं ! मोक्ष एक ऐसी दशा है जिसे मनोदशा नहीं कह सकते !

समाधि योग का सबसे अंतिम पड़ाव है ! समाधि की प्राप्ति तब होती है, जब व्यक्ति सभी योग साधनाओं को करने के बाद मन को बाहरी वस्तुओं से हटाकर निरंतर ध्यान करते हुए ध्यान में लीन होने लगता है !

समाधि की अवस्था : जो व्यक्ति समाधि को प्राप्त करता है उसे स्पर्श, रस, गंध, रूप एवं शब्द इन 5 विषयों की इच्छा नहीं रहती तथा उसे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान तथा सुख-दु:ख आदि किसी की अनुभूति नहीं होती ! ऐसा व्यक्ति शक्ति संपन्न बनकर अमरत्व को प्राप्त कर लेता है ! उसके जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है !

क्या हैं समाधि : मोक्ष या समाधि का अर्थ अणु-परमाणुओं से मुक्त साक्षीत्व पुरुष हो जाना ! तटस्थ या स्थितप्रज्ञ अर्थात परम स्थिर, परम जाग्रत हो जाना ! ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का भेद मिट जाना ! इसी में परम शक्तिशाली होने का ‘बोध’ छुपा है, जहाँ न भूख है न प्यास, न सुख, न दुख, न अंधकार न प्रकाश, न जन्म है, न मरण और न किसी का प्रभाव ! हर तरह के बंधन से मुक्ति ! परम स्वतंत्रता अतिमानव या सुपरमैन !

संपूर्ण समाधि का अर्थ है मोक्ष अर्थात प्राणी का जन्म और मरण के चक्र से छुटकर स्वयंभू और आत्मवान हो जाना है ! समाधि चित्त की सूक्ष्म अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है ! जो व्यक्ति समाधि को प्राप्त करता है उसे स्पर्श, रस, गंध, रूप एवं शब्द इन 5 विषयों की इच्छा नहीं रहती तथा उसे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान तथा सुख-दु:ख आदि किसी की अनुभूति नहीं होती !

जब साधक को शरीर का भी भान न रहे और परमात्मा का ज्ञान हो जाये ऐसी अवस्था में मन जहाँ जहाँ भी जाएगा वहीं वहीं समाधि है !

समाधि आपमें कहीं बाहर से नही आएगी, यह आपके अंदर ही घटित होगी ! यह समायातीत है जिसे मोक्ष या निर्वाण भी कहा जा सकता है ! बोद्ध धर्म में इसे निर्वाण तथा जैन धर्म में इसे कैवल्य कहा जाता है ! योग शास्त्रों में इसका नाम समाधि है ! मोक्ष की स्थिति में मन निष्क्रिय हो जाता है ! समाधि ध्यान की सभी साधनाओं की पराकाष्ठा है, चर्म सीमा है ! इसमे ध्यान सदा के लिए अंतर्मुखी हो जाता है ! समाधि के लिए एक बौद्धिक और शांत दिमाग, स्पष्ट लक्ष्य, आलस्य विहीनता, सहजता, सरलता तथा सत्यता होनी चाहिए ! समाधि तब प्राप्त होती है जब साधक साधनाओं के सभी पड़ाव पार कर जाता है तथा उसका ध्यान एकचित्त अंतर में लगा रहता है !

समाधि की परिभाषा :

तदेवार्थ मात्र निर्भासं स्वरूप शून्यमिव समाधि ! !

न गंध न रसं रूपं न च स्पर्श न नि:स्वनम् !

नात्मानं न परस्यं च योगी युक्त: समाधिना ! !

भावार्थ : ध्यान का अभ्यास करते-करते साधक ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है कि उसे स्वयं का ज्ञान नहीं रह जाता और केवल ध्येय मात्र रह जाता है, तो उस अवस्था को समाधि कहते हैं !

समाधि की अवस्था में सभी इन्द्रियां मन में लीन हो जाती है ! व्यक्ति समाधि में लीन हो जाता है, तब उसे रस, गंध, रूप, शब्द इन 5 विषयों का ज्ञान नहीं रह जाता है ! उसे अपना-पराया, मान-अपमान आदि की कोई चिंता नहीं रह जाती है !

समाधि समय की स्थिति : जब पूर्ण रूप से सांस पर नियंत्रण हो जाता है और मन स्थिर व सन्तुलित हो जाता है, तब समाधि की स्थिति कहलाती है ! प्राणवायु को 5 सैकेंड तक रोककर रखना ‘धारणा’ है, 60 सैकेंड तक मन को किसी विषय पर केंद्रित करना ‘ध्यान’ है और 12 दिनों तक प्राणों का निरंतर संयम करना ही समाधि है !

समाधि के प्रकार

योग के अनुसार समाधि के दो प्रकार बताए जाते हैं –

क) संप्रज्ञात समाधि
इस प्रकार की समाधि में साधक वैराग्य द्वारा अपने अंदर से सभी नकारात्मक विचार, दोष, लोभ, द्वेष, इच्छा आदि निकाल देता है ! इस समाधि में आनंद तथा अस्मितानुगत की स्थिति हुआ करती है !

ख) असंप्रज्ञात समाधि
इस प्रकार की समाधि में साधक को अपना भी भान नहीं रहता और वह केवल प्रभु के ध्यान में एकरत तल्लीन हो जाता है !

संप्रज्ञात समाधि को भी चार भागों में बताया गया है :

अ) वितर्कानुगत समाधि: विभिन्न देवी देवताओं की मूर्ति का ध्यान करते करते समाधिस्थ हो जाना !
आ) विचारानुगत समाधि: स्थूल पदार्थो पर ध्यान टिका कर विचारों के साथ समाधिस्थ हो जाना !
इ) आनंदानुगत समाधि: विचार शून्य होकर आनंदित हो कर समाधिस्थ हो जाना !
ई) अस्मितानुगत समाधि: इस समाधि में अहंकार, आनंद भी समाप्त हो जाता है !

वितर्कानुगम समाधि
वितर्क :- जहाँ मन में सत्य को जानने के लिए और संसार को देखने के लिए एक विशेष तर्क होता है ! तीन तरह के तर्क हो सकते है – तर्क, कुतर्क, वितर्क !

कुतर्क का अर्थ है गलत तर्क, जिस में आशय ही गलत होता है ! ऐसी स्थिति में तर्क लगाने का एकमात्र उद्देश्य दूसरे में गलती निकालना होता है, तुम्हें अपने भीतर पता होता है कि यह बात सही नहीं है, फिर भी तर्क के द्वारा तुम उस बात को सही सिद्ध कर देते हो ! उदाहरणतः आधे दरवाज़े के खुले रहने का अर्थ है आधे दरवाज़े का बंद रहना; इसलिए पूरे दरवाज़े के खुले रहने का अर्थ है पूरे दरवाज़े का बंद होना! भगवान प्रेम हैं, और प्रेम अंधा होता है; इसलिए, भगवान अंधे हैं !

वितर्क एक विशेष तरह का तर्क होते हैं, अभी जैसे हम तार्किक रूप से वैराग्य को समझ रहे थे पर ऐसे सुनने समझने की चेतना में प्रभाव हो रहा था, ऐसे विशेष तर्क से चेतना उठी हुई है, तुम एक अलग अवस्था में हो, यही समाधि है !

समाधि का अर्थ है समता,’धी’ अर्थात बुद्धि, चेतना का वह हिस्सा जिससे तुम समझते हो ! जैसे अभी हम सभी समाधि की अवस्था में हैं, हम एक विशेष तर्क से चेतना को समझ रहे हैं !

तर्क किसी भी तरह से पलट सकता है, तुम तर्क को इस तरफ या दूसरी तरफ, कहीं भी रख सकते हो, तर्क का कोई भरोसा नहीं होता ! परन्तु वितर्क को पलटा नहीं जा सकता है !

जैसे किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाए और तुम वहां खड़े हो, मान लो की तुम उनसे भावनात्मक रूप से नहीं जुड़े हो, अभी तुम्हें पता है कि इस व्यक्ति का जीवन अब नहीं है और यह अंतिम सत्य है ! ऐसे क्षण में तुम्हारी चेतना एक अलग अवस्था में होती है !

जैसे कोई फिल्म जब समाप्त होती है तब कुछ समाप्त हो जाने का भाव रहता है, जब लोग किसी सिनेमाघर से बाहर निकलते हैं, तुम देखोगे वहां सभी एक जैसी चेतना की अवस्था से बाहर आते हैं ! ऐसे ही किसी संगीत समारोह से जब लोग बाहर आते हैं तो उन सभी में एक भाव रहता है कि कुछ समाप्त हो गया है ! एक शिविर के समाप्त होने पर भी लोग एक चेतना की अवस्था, कि सब समाप्त हो गया है,ऐसे लौटते है !

ऐसे क्षण में मन में एक विशेष तर्क होता है, एक अकाट्य तर्क, जो तुम्हारी चेतना में स्वतः ही आ जाता है ! सब कुछ बदल रहा है, बदलने के लिए ही है ! सब समाप्त हो जाना है, ऐसे वितर्क चेतना को उठा देती है ! इसके लिए आँखें बंद करके बैठने की भी आवश्यकता नहीं, आँखें खुली हो तब भी ‘मैं चेतना हूँ’ ऐसा भाव और सब कुछ खाली है, तरल है ! यह पूरा संसार एक क्वांटम मैकेनिकल फील्ड हैं, जो भी है- यह वितर्क है !

सम्पूर्ण विज्ञान तर्क पर आधारित होता है, संसार का एक क्वांटम फील्ड होना अकाट्य वितर्क है,ऐसी अवस्था वितर्कानुगम समाधि है !

विचारानुगम समाधि

विचार में सभी अनुभव आ जाते हैं, सूंघना, देखना, दृश्य, सुनना – जो भी तुम ध्यान के दौरान देखने, सुनने आदि का अनुभव करते हो, वह सभी विचारानुगम समाधि है, विचारों के सभी अनुभव और विचारों के आवागमन को देखना, सभी इसी में आते है !

इस समाधि में विचारों की दो अवस्थाएं हो सकती है-पहले तरह के विचार तुम्हें परेशान करते हैं !

दूसरी तरह के विचार तुम्हें परेशान नहीं करते हैं परन्तु तुम्हारी चेतना में घूमते रहते हैं और तुम उनके लिए सजग भी होते हो ! तुम समाधि में होते हो, समता में होते हो, पर उसी समय विचार भी आते जाते रहते हैं, यह ध्यान का हिस्सा है ! विचार और अनुभव बने रहते हैं, यह विचारानुगम समाधि है !

आनन्दानुगम समाधि

आनन्दानुगम समाधि अर्थात आनंद की अवस्था, जैसे कभी तुम सुदर्शन क्रिया करके उठते हो या सत्संग में भजन गाते हुए आनंदित हो उठते हो, तब मन एक अलग आनंद की अवस्था में होता है ! ऐसे में चेतना उठी हुई होती है, पर आनंद होता है ! ध्यान की ऐसी आनंदपूर्ण अवस्था आनन्दानुगम समाधि है !

आनंद में जो समाधि रहती है वह आनन्दानुगम समाधि है, यह भी एक ध्यानस्थ अवस्था है ! ऐसे ही विचारानुगम समाधि में तुम कुछ आते जाते अनुभव, भावों और विचारों के साथ होते हो ! जब तुम एक अकाट्य वितर्क के साथ समाधिस्थ होते हो तब वह वितर्कानुगम समाधि है !

अस्मितानुगम समाधि

इनके उपरान्त चौथी समाधि है, अस्मितानुगम समाधि, यह ध्यान की बहुत गहरी अवस्था है ! इसमें तुम्हें कुछ पता नहीं रहता है, केवल अपने होने का भान रहता है ! तुम्हें बस यह पता होता है कि तुम हो, पर यह नहीं पता होता की तुम क्या हो, कहाँ हो, कौन हो !

केवल स्वयं के होने का भान रहता है, अस्मिता- मैं हूँ, इसके अलावा कुछ और नहीं पता होता है ! यह समाधि की चौथी अवस्था है, अस्मितानुगम समाधि !

इन चारों समाधि की अवस्थाओं को सम्प्रज्ञाता कहते हैं, अर्थात इन सभी में चेतना का प्रवाह होता है,जागरूकता का प्रवाह होता है !

ध्यान या अवधान चेतन मन की एक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति अपनी चेतना बाह्य जगत् के किसी चुने हुए दायरे अथवा स्थलविशेष पर केंद्रित करता है ! यह अंग्रेजी “अटेंशन” के पर्याय रूप में प्रचलित है ! हिंदी में इसके साथ “देना”, “हटाना”, “रखना” आदि सकर्मक क्रियाओं का प्रयोग, इसमें व्यक्तिगत प्रयत्न की अनिवार्यता सिद्ध करता है ! ध्यान द्वारा हम चुने हुए विषय की स्पष्टता एवं तद्रूपता सहित मानसिक धरातल पर लाते हैं !

योगसम्मत ध्यान से इस सामान्य ध्यान में बड़ा अंतर है ! पहला दीर्घकालिक अभ्यास की शक्ति के उपयोग द्वारा आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर प्रेरित होता है, जबकि दूसरे का लक्ष्य भौतिक होता है और साधारण दैनंदिनी शक्ति ही एतदर्थ काम आती है ! संपूर्णानंद आदि कुछ भारतीय विद्वान् योगसम्मत ध्यान को सामान्य ध्यान की ही एक चरम विकसित अवस्था मानते हैं !

किसी भी मनुष्य का सभी बाहरी कार्यों से विरक्त होकर किसी एक कार्य में लीन हो जाना ही ध्यान है ! आशय यह है कि किसी एक कार्य में किसी का इतना लिप्त होना कि उसे समय,मौसम,एवं अनय शारीरिक जरूरतों का बोध न रहे इसे ही ध्यान कहते हैं !

ध्यान क्या है इसके बारे में समझने के लिए कहा जा सकता है कि व्यक्ति हर समय कुछ ना कुछ ध्यान अर्थात चिंतन करता ही रहता है ! मनुष्य यदि इस ध्यान को ही प्रभु की ओर लगा दें तो वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है ! अंतर की ओर लगाया गया ध्यान आंतरिक आध्यात्मिक जागृति का कारण बन जाता है ! वास्तव में ध्यान द्वारा पूर्ण रुप से निर्विचार होकर समाधिस्थ हो जाना ही ध्यान की पराकाष्ठा है !

अंग्रेजी में ध्यान को मेडिटेशन (Meditation) कहते हैं ! हिंदी में इसको बोध का आ जाना कहा जा सकता है ! अर्थात इंसान का होश में आ जाना ही ध्यान की प्राप्ति है ! इसके लिए हम दूसरे शब्द भी प्रयोग में ला सकते हैं – होश, साक्षीभाव बोध, दृष्टा भाव आदि ! ध्यान ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी आत्मा को इस लोक से अमरलोक ले जा सकता है ! ध्यान के द्वारा मनुष्य की चित्तवृति एकाग्रचित हो जाती है अर्थात ध्यान द्वारा चित्त ठहर जाता है ! ध्यान करने से एक योगी की आंतरिक आध्यात्मिक शक्तियां इतनी बढ़ चले जाती हैं कि ब्रह्मांड की हर वस्तु उसकी पकड़ के अंदर आ जाती है !

कुछ व्यक्ति विभिन्न क्रियाओं को ही ध्यान समझने लगते हैं जैसे की सुदर्शन क्रिया आदि और व्यक्ति इन विधियों को ही ध्यान करने की भूल कर बैठता है ! बहुत से गुरू, महात्मा तथा संत ध्यान करने की विभिन्न प्रकार की विधियां बताते हैं ! लेकिन वह ध्यान और इन विधियों के अंतर को स्पष्ट नहीं बताते ! वास्तव में ध्यान और इन क्रियाओं में अंतर है ! क्रिया तो एक हथियार के समान है क्रिया एक साधन है जो कि साध्य नहीं है ! सिर्फ आंखें बंद कर लेना और विशेष मुद्रा में बैठ जाना ही ध्यान नहीं है ! किसी मूर्ति आदि का ध्यान करना तथा माला जपना भी ध्यान नहीं कहा जा सकता !

हमारे अंतर्मन में हमेशा विभिन्न प्रकार की कल्पनाएं तथा विचार आते रहते हैं जिससे कि मन मस्तिष्क में हमेशा एक कोलाहल जैसी स्थिति बनी रहती है ! कभी कभी जीवन में किसी दुखद घटना को हम याद नहीं करना चाहते लेकिन वह हमें बार-बार याद आती रहती है और चाह कर भी हम उससे अलग नहीं हो पाते ! हम नहीं चाहते कि ऐसे विचार हमारे मन-मस्तिष्क में आए लेकिन यह बार-बार आते ही रहते हैं और इससे हमारा मस्तिष्क और हम स्वयं ही कमजोर होते जाते हैं ! ध्यान द्वारा हम इन अनचाही कल्पना तथा विचारों से अपने मन को हटाकर शुद्ध तथा निर्मलकर आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं ! ध्यान जैसे-जैसे अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त करता है साधक साक्षी भाव में स्थित होता जाता है ! एक समय आता है कि साधक के ऊपर विचार कल्पना तथा भावों का किसी प्रकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता ! मस्तिष्क तथा मन एकदम शांत हो जाता है जो वास्तव में ध्यान का प्रारंभिक एवं मूलभूत स्वरूप होता है ! हमारे दैनिक जीवन में विभिन्न प्रकार के अतीत के सुख दुख के विचारों में खोए रहना या विभिन्न कल्पनाओं में खोया रहना या विभिन्न प्रकार की लोभ लालचकारी आकांक्षाओं में खोया रहना, ध्यान प्रक्रिया के लिए बाधक सिद्ध होता है !

ध्यान की पराकाष्ठा

साधक जब ध्यान की गहराई में पहुंचता है तो विदेह हो जाता है कबीर साहिब जी इस संबंध में बताते हैं कि विदेही साधक के सभी भ्रम संताप समाप्त हो जाते हैं ! साधक विदेह होने की स्थिति को पूर्ण सद्गुरु द्वारा प्रदत्त विदेह नाम की सहायता से ही प्राप्त कर सकता है ! यह ऐसा नाम है जिसको अक्षरों द्वारा लिखा नहीं जा सकता है, न इसको बोला जा सकता है ! यह कोई मंत्र या शब्द नहीं है क्योंकि कहा गया है “जित्ते मंत्र जगत के माही, सतलोक पहुँचावत नाही” ! यदि साधक का ध्यान विदेह में एक क्षण के लिए भी अवस्थित हो जाता है तो वह अखंड आनंद की अनुभूति को पा लेता है जो चिर स्थायी रहती है ! अत: इस दुनिया का कोई भी मंत्र या शब्द साधक को ध्यान की पराकाष्ठा तक ले जाने में सक्षम नहीं है !

ध्यान द्वारा मन, इंद्रियां, बुद्धि, चित्त और अहंकार आदि सब आत्मा में लीन हो जाते हैं तथा साधक के अंदर दृष्टा भाव अर्थात साक्षीभाव आ जाता है ! ध्यान करते करते ध्यान की गहनता से इंसान ऐसी अवस्था में चला जाता है जहां मनुष्य का शरीर तो सो जाता है लेकिन मनुष्य की चेतनता आंतरिक रुप से पूर्ण रुप से जागृत हो जाती है ! साधक त्रिकालदर्शी हो जाता है !

साधक अपने अंतर ज्ञान में विभिन्न प्रकार के दिव्य मंडलों के दर्शन करने लगता है, जहाँ उसे अद्भुद नज़ारे भी देखने को मिलते है तथा उनकी यात्राए करता है ! इन यात्राओं के उपरांत साधक एक ऐसी यात्रा पर निकलता है जहाँ दिव्य मंडलों के नज़ारे भी नहीं रहते हैं ! वहाँ दृश्य भाव समाप्त हो जाता है अब वह अद्वैत में प्रवेश करता है जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है ! इसके लिए एक सक्षम तथा पूर्ण सद्गुरु की आवश्यकता होती है क्योंकि यह सब पूर्ण सद्गुरु की कृपा से ही संभव है !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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