बंधन का कारण पूंछने पर अष्टावक्र ने अपने पहले प्रवचन में ही राजा जनक से कहा कि “हे राजा आप तो पहले से ही मुक्त हैं ! आपने तो मात्र इस संसार को पकड़ रखा है !” यह एक वाक्य पूरे संसार के लिए सबसे बड़े ज्ञान का स्रोत है !
आज हम इस संसार में अपनी कामना और वासना की पूर्ति के लिए इसे पकड़े हुये हैं और रातों दिन भटकते रहते हैं और यह दोनों ही मरते वक्त तक कभी पूर्ण नहीं होते हैं !
इस सत्य को जानते हुये भी हम माया के प्रभाव में उसके आधीन अपना संपूर्ण जीवन नष्ट कर देते हैं और अंतिम समय तक हमारे हांथ कुछ भी नहीं आता है !
जबकि सनातन जीवन शैली के सभी शास्त्र यह बतलाते हैं कि यह संसार मिथ से भरा हुआ है ! अर्थात जो भी व्यक्ति इस संसार को जिस दृष्टि से देखता है, वह इस संसार में उसी दृष्टि में संपूर्णता को महसूस करता है जबकि यह संसार संपूर्ण नहीं है !
यह मात्र माया का छलावा है ! जिसे पुरुषार्थ से नहीं जीता जा सकता ! बल्कि इस माया को पुरुषार्थ से जीतने के चक्कर में व्यक्ति अपने प्रारब्ध भोग का निर्माण कर लेता है और जन्म जन्मांतर तक इस संसार में सुख और दुख भोगता रहता है !
इसलिए इस माया को जीतना है तो व्यक्ति को संसार की यात्रा पर विराम लगाना होगा और अंत: यात्रा में प्रवेश करना होगा ! क्योंकि इस संसार में बहुत सी बड़ी मछलियां हैं जो आपको प्रतिक्षण निकल जाने के लिये तैयार बैठी हैं ! इसे ही प्रतिस्पर्धा का दौर कहा जाता है !
इस प्रतिस्पर्धा के दौर में कोई किसी का नहीं होता ! यहाँ तक कि व्यक्ति स्वयं अपना भी नहीं होता है ! इसीलिए तो हम इस प्रतिस्पर्धा में अपने स्वास्थ्य ही नहीं मन और मस्तिष्क दोनों को नष्ट कर लेते हैं !
अत: संसार को बस उतनी ही रूचि लेना चाहिये, जितने से इस शरीर का निर्वाह हो सके ! निर्वाह से अधिक की कामना सदैव आपको परेशानी में डालेगी !
सिकन्दर, नेपोलियन बोनापार्ट, ओशो, राजीव दीक्षित, भगत सिंह, अडोल्फ़ हिटलर, सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गाँधी आदि आदि इसके उदहारण हैं !
इसके लिये वैष्णव लोगों ने कृतिम व्यस्तता के लिये भक्ती की खोज की है ! यही भक्ति भगवान के खोज का आधार है ! सभी विचारक जानते हैं कि इस भक्ति से नहीं प्राप्त कुछ नहीं होता है ! बल्कि भक्त जीवन भर संसार में संघर्ष करते रहते हैं और मृत्यु के बाद पुनः इसी संसार में अपने संचित प्रारब्ध को भोगने के लिए जन्म ले लेते हैं !
इससे बेहतर है कि ईश्वर के रहस्य को समझ कर दृष्टा भाव के साथ जीवन यापन किया जाये ! दृष्टा सन्यास सभी समस्याओं का समाधान है ! इसमें किसी व्यक्ति को संसार छोड़कर कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं है !
व्यक्ति इस संसार में अपने सभी कार्यों को करते हुये भी अपने कर्तव्य पालन के साथ दृष्टा संन्यास की दीक्षा ले सकता है ! दृष्टा संन्यास एक लंबी प्रक्रिया है ! जिस तरह नया-नया चलना सीखने वाले बच्चे को प्रतिक्षण सहारे की आवश्यकता होती है ! उसी तरह नये नये दृष्टा सन्यासी को प्रतिक्षण मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है ! क्योंकि संसार में हमारे जीने का तरीका ही गलत है !
किंतु जब एक बार बालक चलना सीख जाता है तो फिर उसे किसी के सहयोग की कोई आवश्यकता नहीं होती है ! वैसे ही जब दृष्टा संन्यासी एक बार संसार में जीना सीख जाता है, तो फिर उसे इस संसार में अपने जीने के लिये किसी के भी मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं होती है !
दृष्टा संन्यास ही इस संसार में रहते हुये, इस संसार से मुक्त होने का एकमात्र सहज उपाय है ! न तो ज्ञानी व्यक्ति इस संसार से मुक्त कर सकता है और न ही भगवान का भक्त ही दोनों ही इस संसार से मुक्ति का माध्यम नहीं हैं ! बल्कि यह लोग अनेकों समस्याओं का कारण हैं !
इसलिए दृष्टा संन्यासी की दीक्षा लीजिए ! अपने को संसार में परिपक्व कीजिए और संसार के बंधन से मुक्त हो जाइये ! सभी कामना और वासना आप में मात्र इसीलिए हैं कि आप अंदर से परिपक्व नहीं हैं ! एक परिपक्व मन अपने सुख और आनंद के लिये संसार में किसी और पर आश्रित नहीं होता है ! इसको जितना जल्दी समझ लिया जाये उतना अच्छा है !!