आत्म कल्याण की इच्छा से अपने पितामह ब्रह्मा जी का अनन्य तप करने के बाद भी जब रावण को वेदों का ज्ञान तो प्राप्त हो गया किन्तु आत्म संतुष्टि नहीं हुई ! तब रावण ने भगवान शिव की आराधना करने का निर्णय लिया !
इसके उपरांत रावण ने अपने परम तप से भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया ! तब भगवान शिव ने रावण को आत्म संतुष्टि और आत्म कल्याण के लिए उसे जो आध्यात्मिक ज्ञान दिया, उसमें किसी भी मंदिर, भगवान, ग्रंथ, फूल-माला, घंटा-नगाड़ा, त्रिपुंड-माला आदि की कोई भी आवश्यकता नहीं थी !
जबकि वैष्णव उपासना का आधार ही आडंबर है ! क्योंकि वैष्णव की उपासना ही मंदिर की मूर्ति से शुरू होती है और तिलक, चंदन, व्रत, कर्मकांड आदि आडंबर पर जाकर खत्म होती है ! जिसमें धर्म का वाह्य आडंबर तो बहुत है किंतु आत्म प्रशिक्षण एवं आत्म कल्याण कहीं भी नहीं है !
भगवान शिव द्वारा अपने परम भक्त रावण को दिये गये उपदेशों का यह संग्रह मूल रूप से “रक्ष संस्कृति” की राजकीय भाषा “तमिल” में किया गया था ! जिस ज्ञान का प्रचार प्रसार रावण ने स्वयं अपने संपूर्ण शासन क्षेत्र में अपने प्रत्येक नागरिक के लोक कल्याण के लिए तमिल भाषा में श्रुति और स्मृति के रूप में विकसित किया था ! जिसे रावण ने “शिव सहस्त्रार” का ज्ञान कहा !
क्योंकि रावण का यह मानना था कि इस ज्ञान को प्राप्त कर लेने के बाद व्यक्ति का “सहस्रार चक्र” स्वत: ही जाग्रत हो जाता है ! जिससे ज्ञान की हजारों पंखुडिय़ों वाला कमल खिल कर व्यक्ति को संपूर्ण, विस्तृत चेतना प्रदान करता है ! इस चक्र के देवता विशुद्ध, सर्वोच्च चेतना के केंद्र स्वयं भगवान शिव हैं !
संसार में मनुष्य अपनी अन्तरात्मा के श्रोत भगवान शिव की ओर पीठ करके व्यक्ति अपना जीवन जीता रहता है ! और काल के साथ माया के प्रभाव में नष्ट हो जाता है ! किन्तु इस “शिव सहस्त्रार” के परम ज्ञान को प्राप्त करके व्यक्ति अपने “सहस्रार चक्र” को जाग्रत कर इस शरीर में रहते हुये ही परम मुक्ति की अवस्था को प्राप्त कर लेता है !
जिसे ज्ञान को वैष्णव आक्रांताओं ने शक्ति के प्रवाह से नष्ट कर दिया और उसके स्थान पर ढोलक-मजीरा पीटकर भक्ति करने को बढ़ावा दिया ! जिससे उनका वैष्णव संप्रदाय और सशक्त हो सके !
कालांतर में राम रावण के युद्ध में रावण के हार जाने के बाद श्रुति और स्मृति के आधार पर संचालित यह ज्ञान काल के प्रवाह में शासन का पोषण न मिलने के कारण विलुप्त होता चला गया ! किंतु अभी भी इस ज्ञान का एक अंश श्रुति और स्मृति के आधार पर तमिल लोकगीतों में पाया जाता है !
क्योंकि इस ज्ञान में वैष्णव की तरह भक्ति करके पैसा कमाने का कोई आडंबर नहीं है ! अतः इस ज्ञान को पोषित नहीं किया जा सका और इसकी जगह तमिल क्षेत्र में भी बड़े बड़े मंदिर बनाकर मूर्तियों की स्थापना कर वैष्णव की तरह धन कमाने का जरिया स्थापित कर दिया गया !
किंतु अभी भी इस परम ज्ञान के कुछ सूत्र “शैव जीवन शैली” जीने वाले संतो के पास मिल जाते हैं ! जिनकी संख्या 1008 सूत्र में थी ! किंतु अब मात्र मेरे अथक प्रयास से 777 सूत्र ही प्राप्त हो पाये हैं !
मेरा यह मत है कि यदि इन 777 सूत्रों का वास्तविक ज्ञान जिस किसी भी व्यक्ति को होगा ! वह निश्चित रूप से वैष्णव प्रपंचों में फंसे बिना आत्म कल्याण को करते हुये इस संसार में ही “परम मुक्ति” की अवस्था को प्राप्त कर लेगा !
जिस परम मुक्ति की अवस्था को प्राप्त करने के लिये वैष्णव जीवन शैली में ज्ञानी जन का मरना परम आवश्यक है ! जिसे यह वैष्णव आडंबरी मोक्ष कहते हैं !
जबकि उस परम मुक्ति की अवस्था को प्राप्त करने के लिए इस शरीर को छोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है ! इसके हजारों उदाहरण गुरु गोरख नाथ, कबीर, दादू, नानक, बुल्ले शाह, राजा जनक आदि जैसें के रूप में साक्षात देखे जा सकते हैं !
किंतु वैष्णव के पास सिवा धर्म प्रपंच कथाओं के एक भी ऐसा प्रमाण नहीं है कि जिसके आधार पर वैष्णव यह दावा कर सकें कि वैष्णव देवी देवताओं की भक्ति से व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त होता है !
यदि आप जैसे बुद्धिजीवी पाठकों की रुचि होगी, तो इस संदर्भ में मैं और भी विस्तृत लेख लोक कल्याण के लिए समय-समय पर लिखता रहूंगा ! आप अपनी रुचि को कमेंट बाक्स में अवश्य प्रगट कीजिए !!
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