मनोवैज्ञानिकों की अवधारणा है कि कोई भी व्यक्ति यदि निरंतर एक ही समय पर 40 दिन तक कोई भी क्रिया करता है, तो उस मनुष्य के अंदर उस क्रिया को निरंतर करते रहने का अभ्यास हो जाता है ! जिसे सामान्य भाषा में आदत कहते हैं !
इसका सबसे विकृत प्रयोग वैष्णव कर्मकांडियों ने किया ! उन्होंने गुरुकुल के माध्यम से शुरुआत में बच्चों को एक निश्चित व्यवस्था में जीने और सोचने, समझने का अभ्यास करवाया और धीरे-धीरे यही अभ्यास उन बच्चों की दैनिक दिनचर्या बन गई !
इस तरह से विकसित किये गए बच्चे, अपनी दैनिक दिनचर्या से अलग हटकर कुछ भी सोचने, समझने, विश्लेषण करने या प्रयोग करने के लायक नहीं बचे ! अर्थात यह सभी बच्चे पीड़ी दर पीड़ी से एक ही तरह का अभ्यास करते हुये मानसिक विकलांग हो गये ! यहीं से मनुष्य का बौद्धिक पतन शुरू हो गया !
क्योंकि यह भी एक ध्रुव सत्य है कि यदि मस्तिष्क को एक निश्चित पाठ्यक्रम के तहत जीने का अभ्यास करवा दिया जाये, तो मनुष्य के विश्लेषण करने की शक्ति स्वत: समाप्त हो जाती है !
और आज तक के सभी शिक्षा पाठ्यक्रम मनुष्य के मानसिक शक्तियों को एक निश्चित दिशा में सोचने, समझने, विचार करने का ही अभ्यास मात्र करवा रहे हैं ! जिससे मनुष्य को बड़ी संख्या में बौद्धिक मजदूर बनाया जा सके !
वैष्णव शासन काल से लेकर आज तक इन्हीं बौद्धिक मजदूरों के दम पर बड़ी-बड़ी सत्तायें अपना साम्राज्य विस्तार कर पायी हैं ! यह निश्चित जानिये कि जब तक मनुष्य के स्वाभाविक समग्र विकास की जगह मनुष्य को मात्र बौद्धिक मजदूर बनाकर विकसित किया जाता रहेगा ! तब तक विश्व साम्राज्यवाद से मुक्त नहीं हो सकता है और इस तरह साम्राज्यवाद का सीधा सा अर्थ है – “मनुष्य के समग्र विकास की हत्या”
मनुष्य का विकास स्वस्फूर्त होता है ! इसके लिए किसी भी पाठ्यक्रम या कृतिम ज्ञान की आवश्यकता नहीं है ! जब से मनुष्य ने शिक्षा के नाम पर पाठ्यक्रम या कृतिम ज्ञान का लबादा ओढ़ा, तभी से मनुष्य का पतन शुरू हो गया !
निश्चित रूप से कृतिम शिक्षा के नाम पर व्यक्ति इस संसार में एक गिरोह का निर्माण करके या किसी गिरोह का सदस्य बन कर कुछ भौतिक सफलता प्राप्त कर लेता है और इस संसार के प्राकृतिक संसाधनों, जीव-जंतुओं, पशु पक्षियों और कुछ चेतना विहीन मनुष्यों पर अपना नियंत्रण कर लेता है ! लेकिन यह मनुष्य की सफलता का मानक नहीं है !
इसीलिए इस प्रक्रिया में जीने वाले व्यक्ति कुछ ही समय बाद कुंठा से ग्रस्त होकर प्राय: अवसाद से ग्रसित हो जाते हैं या आत्महत्या कर लेते हैं !
मनुष्य का समग्र विकास किसी शिक्षा से नहीं बल्कि स्वप्रेरणा से होता है, जो मनुष्य स्व प्रेरित होकर आत्म कल्याण के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ते हैं, वह सभी मानसिक रूप से तत्काल आत्महत्या कर लेते हैं और कालांतर में कुछ समय बाद शारीरिक रूप से भी आत्महत्या कर लेते हैं !
इसलिए मनुष्य के समग्र विकास के लिए उसे आत्म चिंतन के लिए स्वतंत्र छोड़ना होगा ! वहां किसी भी प्रतिस्पर्धा का भय नहीं होना चाहिए और न ही समय की कोई प्रतिबद्धता होनी चाहिये ! तभी मनुष्य का समग्र विकास संभव है !!