यह अवधारणा है कि भगवान का नाम लेने से व्यक्ति को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और इस अवधारणा को प्रचारित प्रसारित करने का कार्य कथावाचक करते हैं, किंतु उनके पास मिथ ग्रंथों के अतिरिक्त एक भी ऐसा प्रमाण नहीं है, जिससे वह यह सिद्ध कर सकें कि मात्र भगवान का नाम लेने से व्यक्ति वास्तव में स्वर्ग में जाता है !
बल्कि सच्चाई तो यह है कि कथावाचक स्वर्ग जाने का जो मानक यह बतलाते हैं ! उन सभी धर्म सिद्धांतों की व्याख्या के तहत कथावाचक जो सिधान्त प्रचारित और प्रसारित करते हैं ! उसी कसौटी को यदि सत्य मान लिया जाये तो स्वयं कथावाचक नरक को ही प्राप्त होते हैं ! ऐसा प्रतीत होता हैं !
इसके अनेक कारण हैं ! सबसे पहला कारण यह है कि भगवान के नाम के बदले कोई भी मूल्य निर्धारित नहीं किया जाना चाहिए और कोई भी कथावाचक ऐसा नहीं है कि जो पहले से कथा वाचन की दक्षिणा निर्धारित किये बिना कथा वाचन करता हो !
बल्कि दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि हर प्रसिद्द कथा वाचक जब तक भगवान की कथा के बदले पहले आयोजक से धनराशि न रखवा ले, तब तक वह कथा वाचन के कार्यक्रम की स्वीकृति ही नहीं देता है !
भगवान का नाम लेने की दूसरी शर्त यह है कि भगवान के कार्य के व्याख्यान में झूठ का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए और सत्य यह है कि प्रत्येक कथा वाचक कथा को मनोरंजक बनाने के लिए भगवान के कार्य के व्याख्यान में नितांत झूठ का प्रयोग करता है ! इसलिए वह नर्क गामी होता है !
तीसरा कार्य कथा वाचक बतलाते हैं कि भगवान भक्तों को भोगी विलासी आडंबर नहीं होना चाहिए जबकि सभी कथावाचक अपने को महत्वपूर्ण सिद्ध करने के लिए निरंतर अत्यंत आडंबर का निर्माण करते हैं और बंद कमरे के अंदर सांसारिक व्यक्तियों से अधिक भोग विलास के संसाधनों में डूबे रहते हैं !
चौथा कथा वाचक यह बतलाते हैं कि भक्तों को निर्वाह से अधिक संग्रह नहीं करना चाहिए जबकि व्यवहार में यह देखा गया है कि कथा वाचक अपने आडंबर को विकसित करने के लिए निर्वाह तो छोड़िए भोग विलास के बाद भी अत्यंत धन की हवस में विवेकहीन हो जाते हैं और आश्रम के नाम पर बड़े-बड़े विलासिता गृहों का निर्माण करते हैं !
कथावाचकों के यह सभी कार्य यह बतलाते हैं कि कथा वाचक के प्रवचन और आचरण दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं, इसलिए उन्हीं के कथन के अनुसार दोहरा चरित्र रखने के कारण इस तरह के कथा वाचक सदैव नर्क को प्राप्त होते हैं !