आपने देखा होगा कि जब कोई संत अपने साधना की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है, तो वह समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ मिलना जुलना लगभग बंद कर देता है ! इसका मुख्य कारण क्या है ? गहराई से चिंतन करने पर पता चलता है कि जब व्यक्त साधना की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है, तब उसका अंतरिक्ष में तैर रही दिव्य ऊर्जाओं से संपर्क स्थापित होने लगता है ! अंतरिक्ष की वह दिव्य ऊर्जायें उसे तरह-तरह के भूत व भविष्य के निर्देश देने लगती हैं ! जिनकी वह कभी साक्षी रही हैं या होंगो ! क्योंकि प्रकृति घटनाओं की पुनरावृत्ति है !
अत: जिन निर्देशों को समझने के बाद जब वह व्यक्ति उन निर्देशों को समाज के व्यक्तियों को बताने की चेष्टा करता है, तो समाज का व्यक्ति क्योंकि उस बौद्धिक स्तर का नहीं होता है, तो वह उस साधक का उपहास करने लगता है या उसे मानसिक रूप से बीमार समझने लगता है !
धीरे धीरे वह साधक समाज से कट जाता है और एक स्थिति वह आ जाती है कि जब समाज उस साधक को भूल जाता है और वह साधक नितांत एकांत अवस्था में अंतरिक्ष के उन चमत्कारों से निरंतर साक्षात्कार करने लगता है ! यह स्थिति निश्चित रूप से बहुत ही आश्चर्यजनक होती है, क्योंकि जब साधक अपने साधना में इस स्तर तक पहुंच जाता है ! तब उसे भूत और भविष्य दोनों ही स्पष्ट दिखाई देने लगता है ! वह जान जाता है कि पूर्व में वास्तव में क्या हुआ था और भविष्य में वास्तव में क्या होने वाला है !
तब एकांत में वह पूर्व में जो हुआ था, उसको समाज के लिये सामान्य शब्दों में लिपिबद्ध कर देता है ! क्योंकि जनसामान्य उस समय के लिखे गये इतिहास के अतिरिक्त अन्य किसी भी सत्य को नहीं सुनना चाहता क्योंकि उस समय तक समाज का बौद्धिक स्तर बहुत विकसित नहीं हुआ होता है ! इसलिए वर्तमान परिपेक्ष और परिवेश में मनुष्य का जो बौद्धिक चिंतन होता है उसी के अनुरूप वह अपने भविष्य का अनुमान लगा पाता है जबकि भविष्य उस अनुमान से बहुत अलग होता है !
ऐसी स्थिति में गहन साधक जब यह जान लेता है कि पूर्व में जो भी कुछ उसे बतलाया गया वह सब एक भ्रम है एक झूठ है और भविष्य में जिसे सत्य मानकर लोग बैठे हुए हैं, वह भी भ्रम है ! पहले तो वह साधक प्रयास करता है कि लोगों को सत्य बतलाया जाये लेकिन परिस्थिति वश जब लोग उसके सत्य को स्वीकार नहीं करते तो वह उसे “माया” कह कर फिर मौन हो जाता है ! साधक तो उस “माया” को समझ रहा होता है लेकिन लोग नहीं समझ रहे होते हैं ! फिर वह साधक अपने आपको समाज से समेट लेता है फिर और भी गहन साधना में चला जाता है या फिर वह अपने विचारों का लेखन करने लगता है !
भविष्य में जब समाज का बौद्धिक स्तर विकसित होता है, तब उस साधक के द्वारा लिखे गए ग्रंथों का समाज अध्ययन करता है और उसको समझ कर उस साधक के बौद्धिक स्तर की प्रशंसा करता है, किंतु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है ! सृष्टि और समाज का जो सर्वनाश होना होता है वह हो चुका होता है और वह साधक जो पूर्व में कई बार हमको इस सर्वनाश से बचाने के लिए आगाह कर रहा होता था वह भी अब हम लोगों के बीच से विदा हो चुका होता है !
कुछ देशों में तो ऐसे गहन साधकों को जहर देकर मार दिया गया या क्रूस पर लटका दिया गया या फिर उनके ऊपर पिशाच जिन्न आदि का आरोप लगाकर उन्हें जिंदा जला दिया गया या जमीन के अंदर जिंदा ही दफना दिया गया ! यह विश्व का दुर्भाग्य है इन साधकों को उनके जीवन काल में लोग नहीं समझ पाये और मरने के बाद अब उनकी मूर्तियां स्थापित करके उनके आगे मोमबत्ती और दिया जला रहे हैं ! किन्तु फिर भी अपने समकालीन साधकों के साथ वही पुनरावृत्ति कर रहे हैं, जो गलतियाँ उनके पूर्वजों ने की थी !!