सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते करते मनुष्य कब संबंधों के बंधन में बंध जाता है ! उसे पता ही नहीं चलता है !
प्रायः देखा जाता है कि आपके जन्म लेते ही आपके दर्जनों संबंध समाज में स्वत: विकसित हो जाते हैं ! आप किसी के भाई बन जाते हैं, तो किसी के बेटे, कहीं छात्र बन जाते हैं तो कहीं मित्र !
इसी तरह व्यक्ति के विवाह होते ही व्यक्ति के दर्जनों नये संबंध समाज से विकसित हो जाते हैं ! व्यक्ति पति तो बनता ही है, साथ ही जीजा, मौसा, फूफा आदि न जाने क्या-क्या बन जाता है !
और अंततः इन सामाजिक संबंधों की भीड़ में व्यक्ति अपने आप को खो बैठता है !
और जब तक इन सामाजिक बंधनों से परिपक्व होकर उभरता है ! तब तक आयु बढ़ जाने के कारण बहुत देर हो चुकी होती है ! फिर व्यक्ति अपने आर्थिक असमर्थता के कारण अपना परिवार और समाज दोनों में सम्मान खो देता है !
और जो व्यक्ति सामाजिक बंधनों की चिंता नहीं करता है ! उसे प्रायः परिवार और समाज के लोग अहंकारी और अनुपयोगी समझते हैं !
इन्हीं दोनों स्थितियों के बीच में संतुलन बनाते बनाते व्यक्ति कब बूढ़ा हो जाता है ! उसे पता ही नहीं चलता और अंततः उसके हाथ कुछ भी नहीं लगता है !
वृद्धा अवस्था में व्यक्ति को अपने जीवन के सारे संघर्ष स्वयं ही करने पड़ते हैं ! क्योंकि शरीर का सामर्थ घटने के साथ ही जब व्यक्ति किसी के लिए भी उपयोगी नहीं रह जाता है !
तो उसका सम्मान परिवार और समाज में उपयोगिता कम होने के कारण निरंतर कम होता चला जाता है और अंततः एक समय वह भी आता है, जब व्यक्ति अपने जीवन का बहुमूल्य अनुभव रखने के बाद भी अपने को उपेक्षित और अपमानित महसूस करता है और ईश्वर से यथाशीघ्र मृत्यु की कामना करने लगता है !
अर्थात दूसरे शब्दों में कहा जाये तो संबंध व्यक्ति को अंदर से खोखला बना देते हैं, क्योंकि हर संबंधी आपसे बस सिर्फ लाभ उठाने की कामना करता है ! कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से आपकी कोई भी मदद नहीं करना चाहता है !
यही है संबंधों के बंधन का यथार्थ !!