ब्रह्मचर्य को वैष्णव जीवन शैली में बहुत महत्व दिया गया है ! न जाने कितने कपोल कल्पित उदाहरणों से वैष्णव द्वारा मनुष्य को यह समझाने की कोशिश की जाती रही है कि जीवन में ब्रह्मचर्य से अद्भुत शक्तियां प्राप्त की जा सकती हैं !
प्राय: ब्रह्मचर्य के लाभ को बतलाते हुए यह बतलाया जाता है कि इससे मनुष्य का मस्तिष्क तीव्र होता है ! उसके अंदर चिंतन मनन करने की प्रबल क्षमता विकसित होती है ! इससे याददाश्त अच्छी होती है ! उस पर ईश्वर की कृपा होती है और ब्रह्मचारी मनुष्य मृत्यु को भी जीत सकने का सामर्थ्य रखता है !
किंतु व्यवहार में ऐसा कहीं कुछ भी दिखाई नहीं देता है !
आज भारत के अंदर संघ के पूर्णकालिक से लेकर, साधु, महात्मा, नागा, तपस्वी आदि लगभग पचास लाख से अधिक ब्रह्मचारी मौजूद हैं !
लेकिन किसी ने भी मृत्यु पर विजय प्राप्त नहीं की और न ही भविष्य में बिना विज्ञान के मदद के किसी भी ब्रह्मचारी द्वारा मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की संभावना ही दिखाई दे रही है !
दुनिया के जितने महान कार्य हुए हैं, जिनके लिए वैश्विक संस्थाओं ने नोबेल पुरस्कार दिया है ! वह सभी महान कार्य ग्राहस्थों द्वारा हुए हैं ! इनमें कहीं किसी भी व्यक्ति के ब्रह्मचारी होने का कोई अतिरिक्त लाभ किसी को प्राप्त नहीं हुआ है !
बल्कि अपने धार्मिक इतिहास को गहराई से देखा जाये तो आज जिनकी हम मंदिरों में रखकर पूजा करते हैं ! वह सभी भगवान विष्णु, शंकर, राम, कृष्ण आदि गृहस्थ ही थे !
बल्कि सच्चाई तो यह है कि गृहस्थ जीवन में रहते हुए जिन व्यक्तियों ने समाज के लिए कार्य किया है उनके कार्य आज भी अनूठे और आदरणीय है ! फिर वह चाहे पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य से लेकर महान वैज्ञानिक जगदीश बसु तक कोई भी हो !
जिंदगी भर ब्रह्मचर्य पर प्रवचन देने वाले गांधी भी स्वयं भोगी विलासी अंग्रेजों के साथ सदैव सामंजस्य बनाये रखने के लिए ही तत्पर रहते थे और स्वयं भी चार बच्चों के पिता थे !
अब प्रश्न यह है कि अगर ब्रह्मचर्य का कोई महत्व नहीं है तो फिर धर्म शास्त्रों में इसके विषय में इतना महिमामंडन क्यों किया गया है ?
इसका सीधा सा जवाब है प्राचीन काल में बच्चे युवा अवस्था में गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करने के लिए जाया करते थे और बचे हुए समय में गुरुकुल की ओर से आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में भिक्षाटन आदि के लिए भी जाया करते थे !
इसलिए इन बच्चों को संयमित बनाए रखने के लिए इन्हें ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाती थी ! जिससे कि वह युवा अवस्था के अनुभवहीनता के कारण में भावुकता वश कोई ऐसा कार्य न कर दे जो समाज में प्रतिष्ठा की दृष्टि से खराब हो और जीवन भर के लिए कोई कलंक लग जाये !
इस तरह की घटना उस बालक को ही नहीं बल्कि उस गुरुकुल की भी प्रतिष्ठा खराब करती थी लेकिन फिर भी इतिहास में अनेक बालकों द्वारा गुरु माताओं तक से शारीरिक संबंध स्थापित करने का वर्णन शास्त्रों में मिलता है !
“अति सर्वत्र वर्जिते” के सिद्धांत को दृष्टिगोचर रखते हुए आयुर्वेद में भी ब्रह्मचर्य को लेकर सावधानियों का वर्णन तो मिलता है, किंतु इससे अधिक और कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया है !
इसलिए ब्रह्मचर्य का महिमामंडन एक भ्रम पैदा करने वाले अवधारणा से अधिक और कुछ नहीं है !
व्यक्ति को आत्म संयम के साथ गृहस्थ जीवन में आनंद की अनुभूति करना चाहिए ! यही जीवन का यथार्थ है !!
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