सबसे बढ़ा रहस्य । आयुर्वेद में मौज़ूद है स्वर्ण (सोना) बनाने की कला , जरूर पढ़ें share करें ।

सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत को पिछले 12 सौ वर्षो में मुगल, फ्रांसीसी, डच, पुर्तगाली, अंग्रेज़ और यूरोप एशिया के कई देशों ने मिलकर भारत का लगभग तीस हजार लाख टन सोना लूटकर ले गए | आज पूरे विश्व में जो स्वर्ण आधारित समृद्धि दिखाई देती है वह भारत के लुटे हुए सोने पर ही टिकी हुई है किंतु कभी भी किसी ने यह विचार नहीं किया कि आदिकाल से मध्यकाल तक जब भारत में कोई सोने की खान नहीं हुआ करती थी तब भी भारत में इतना सोना आता कहां से था |

शास्त्र बताते हैं की रावण जैसा महाप्रतापी राजा सोने की लंका में ही रहता था | इसके साथ ही अनेक देवी देवताओं के पास अकूत स्वर्ण उपलब्ध था जिससे वह हजारों वर्ष तक पूरे विश्व का पोषण कर सकते थे | देवराज इंद्र, यक्षराज कुबेर, विष्णुपत्नी लक्ष्मी, भगवान श्रीकृष्ण आदि के पास इतना धन था अकेले एक-एक राजा ही पूरे विश्व का हजारों साल तक पोषण सकता था |

अब प्रश्न यह खड़ा होता है कितना स्वर्ण भारत में आया कहां से ? इसका एक मात्र जवाब दिया है कि भारत के अंदर हमारे ऋषि-मुनियों ने जो आयुर्वेद विकसित किया उसमें औषधीय उपचार के लिए स्वर्ण भस्म आदि बनाने के लिए वनस्पतियों स्वर्ण बनाने की विद्या विकसित की थी इसका हम लोगों के समकालीन एक उदाहरण मिलता है !

एक बार बनारस के आयुर्वेदाचार्य श्री कृष्णपाल शर्मा ने गांधी जी के समक्ष स्वर्ण बनाने की आयुर्वेदिक प्रक्रिया का वर्णन किया तो गांधीजी ने सार्वजनिक रूप से शर्मा जी का उपहास कर दिया जिससे वह अपनी व आयुर्वेद की प्रतिष्ठा को दाव पर लगा देखकर तत्काल बनारस गये और वहां से कुछ वनस्पति पदार्थों को लेकर पुनः दिल्ली के बिरला मंदिर के अतिथि गृह में वापस आए और दिनांक 26 मई 1940 को गांधीजी, उनके सचिव श्री महादेव देसाईं तथा विख्यात व्यवसायी श्री युगल किशोर बिड़ला की उपस्थित में उन पदार्थों के सम्मिश्रण को बनाकर गाय की उपले में पकाकर मात्र 45 मिनट में स्वर्ण बना दिया | जिसका शिलालेख आज भी बिरला मंदिर के अतिथि गृह पर लगा हुआ है
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इसी तरह 6 नवम्बर सन 1983 के हिंदुस्तान समाचार पत्र के अनुसार सन 1942 ई० में श्री कृष्णपाल शर्मा ने ऋषिकेश में मात्र 45 मिनट में पारा से दो सौ तोला सोने का निर्माण करके सबको आश्चर्य में डाल दिया. उस समय वह सोना 75 हजार रूपए में बिका जो धनराशि स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिये दान कर दी गई थी |

“रावण संहिता” के अनुसार रावण बेलपत्र के रस से स्वयं स्वर्ण बनाता था और उसकी लंका की प्रत्येक घर में सवा किलो स्वर्ण का शिवलिंग होता था | प्रत्येक व्यक्ति अपने गले में सोने की मोटी चेन में छोटा स्वर्ण शिवलिंग धारण करता था | तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों के अंदर ऐसे आयुर्वेदिक ग्रंथ थे जिनके अंदर वनस्पति से सोना बनाने की पद्धति दी गई थी |

शास्त्र बताते हैं कि दक्षिण भारत के महान रसायन आयुर्वेदाचार्य नागार्जुन प्रतिदिन 100 किलो सोना बनाया करते थे और उनको सोना बनाने में इस स्तर की महारत थी कि वह वनस्पतियों के अलावा अन्य पदार्थों (जैसे लोहा, तांबा, पीतल, पारा आदि ) से भी सोना बना लिया करते थे लेकिन दुर्भाग्य है मुर्ख मुगल लुटेरों ने तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों के रहस्यपूर्ण ग्रंथों को जला दिया | गुरु-शिष्य परंपरा के तहत आज कहीं कहीं यह विधा दिखाई देती है किंतु इस विधा पर कार्य करने वाले पिता पुत्र परंपरा में ही इस ज्ञान को जीवित बनाए हुए हैं |

वर्तमान समय मैं इस विधा के जानकार व्यक्ति को सदैव अपने अपहरण और हत्या होने का भय बना रहता है | वर्तमान समय में प्रभु देवा जी, व्यलाचार्य जी, इन्द्रधुम जी, रत्न्घोष जी इत्यादि स्वर्ण विज्ञान के सिद्ध योगी रहे हैं | मैने स्वयं (पंडित योगेश मिश्र ) ने सोना बनाने के दुर्लभ ज्ञान पर आधारित पूज्य श्री नारायण दत्त श्रीमाली जी द्वारा लिखित एक ग्रन्थ देखा है तथा मेरी माँ के ननिहाल में मेरी व्यक्तिगत जानकारी एक पांडु पुस्तक “स्वर्ण रसायन” थी जिसमें स्वर्ण बनाने की विधि दी गई थी | जो घर में आग लगने से नष्ट हो गई |

वर्तमान समय में आज भी भारत में न जाने कितने “पद्मनाभस्वामी” जैसे मंदिर हैं जिन के तहखानों में लाखों टन सोना पड़ा हुआ है जिसे प्राप्त करने के लिए शासन सत्ता में बैठे हुए लोगों ने न जाने कितनी बार कुटिल नीति से उसे मंदिर के तहखानों से सोना लूट लिया या कानून बनाकर लूटने का प्रयास कर रहे हैं |

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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