धर्मशास्त्र शब्द पर आधारित सूचना के संग्रह से अधिक और कुछ नहीं हैं ! क्योंकि शब्दों में विराट ईश्वर नहीं समा सकता वह विशुद्ध अनुभूति का विषय है और शास्त्रों के शब्द मात्र हमारे मार्गदर्शक हैं, लेकिन साधना और अनुभूति हमें स्वयं करनी होगी ! बिना साधना और अनुभूति के मात्र धर्म शास्त्रों के शब्दों को रट कर ईश्वर को प्राप्त (अनुभूत) नहीं किया जा सकता है !
किंतु आधारहीन महिमामंडन करके धर्म शास्त्रों को तत्वज्ञान का आधार बतला कर हमें कुछ समय के लिये यह तथाकथित धर्म गुरु भावुक तो कर सकते हैं, पर वह भावुकता स्थाई नहीं है !
क्योंकि यह आधारहीन महिमामंडन करने वाले वह लोग हैं जिनके पास न तो अपना कोई भी मौलिक ज्ञान और न ही कोई निजी अनुभूति है ! इनकी पूरी की पूरी धार्मिक दुकानदारी ही इन धर्म शास्त्रों के पाखंड रूपी प्रचार से चलती है !
अतः यह लोग समाज के दोहन के लिये उसे भावनात्मक रूप से उकसाने के लिए इन धर्म शास्त्रों को जगह जगह रख कर उस पर फूल, माला, दीप, धूप आदि करके उसका निरर्थक महिमामंडन करते हैं !
कुछ लोग तो धर्म शास्त्रों को अपने सिर के ऊपर लेकर निरंतर घूमते रहते हैं ! यह सभी कुछ बस अपनी धार्मिक दुकानदारी चमकाने के लिये किया जाता है ! यदि धर्म शास्त्रों का सार इन्होंने अनुभूतिगत किया होता तो जो आज यह लोग इस धर्म शास्त्र का महिमामंडन कर रहे हैं, वह स्वयं इन शास्त्रों से उनके जीवन में कुछ तो आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त कर लेते !
तब इन्हें चांदी की चरण पादुका लेकर शहर शहर घूमने की आवश्यकता नहीं होती ! यह अनुभूति रहित धर्म के धुरंधर जब स्वयं अपने निर्वाह के लिए ग्रहस्थ लोगों पर निर्भर हैं, तो ईश्वर ही हर समस्या का समाधान है, इसका प्रचार करना इनके दोहरे चरित्र का स्पष्ट प्रमाण है !
यदि ईश्वर ही हर समस्या का समाधान है तो फिर इन भगवा धारियों को चांदी की चरण पादुका लेकर शहर शहर घूमने की आवश्यकता क्या है ?
यह भगवा धारी स्वयं जानते हैं कि वह जो बोल रहे हैं वह सब झूठ है या दूसरे शब्द में कहा जा सकता है कि बिना अनुभूति के भगवान के नाम पर जो बोला जाता है, वह सब झूठा ही होता है !
इसलिए जब तक शास्त्रों में लिखे गये शब्दों के पीछे के भाव को अनुभूति से नहीं समझा जाएगा, तब तक मात्र शास्त्रों पर दीप, फूल, माला आदि करने से शास्त्र के ज्ञान को प्राप्त नहीं किया जा सकता है !
गीता प्रेस के सहयोग से आज कोई भी ऐसा हिंदू हर नहीं है, जिसके घर में रामचरितमानस और श्रीमद्भगवद्गीता न मिल जाये और अधिकार हिंदू तो इसका नियमित पाठ भी करते हैं !
किंतु इस नियमित पाठ से न हिंदुत्व का उत्थान हो रहा है और न ही पाठ करने वाले का ! जब तक इन ग्रंथों में छपे हुए शब्दों के पीछे के भाव स्व प्रयास से अनुभूति नहीं किये जाएंगे, तब तक सभी धर्म ग्रंथ व्यर्थ हैं !
इसीलिए मैं कहता हूं कि बिना साधना, अनुभूति और अभ्यास के सभी धर्म शास्त्र व्यर्थ हैं !!