ज्योतिष के बिना आयुर्वेद और चिकित्सा शास्त्र से अधूरा है ! Yogesh Mishra

प्राचीन काल से ज्योतिष का प्रयोग विविध प्रयोजनों के लिए किया जाता रहा है ! आज जैसे भौतिक विज्ञान का विकास न होते हुए भी वह इतना सक्षम है कि उसका अवलम्बन लेकर कितने ही महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न किये जा रहे हैं !

हमारे अन्तर्दृष्टा ऋषि इस तथ्य से भलीभांति अवगत थे कि पृथ्वी पर सम्पदाओं का एक बड़ा भाग दूसरे ग्रहों एवं नक्षत्रों से प्राप्त होता है कब किस प्रकार के अनुदान उनसे पृथ्वी पर बरसते हैं इससे वे भली प्रकार परिचित थे ! उसी के अनुरूप वर्तमान और भावी गतिविधियों का निर्धारण किया जाता था ! वे जानते थे कि एकाकी मानवी पुरुषार्थ ही सब कुछ नहीं है ! पुरुषार्थ के साथ परिस्थितियां अनुकूल हो तभी सफलता मिलती है !

अन्तर्ग्रही हेर-फेर से पृथ्वी के वातावरण, मनुष्य जीव-जन्तु एवं वृक्ष-वनस्पतियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसकी जानकारी होने से तद्नुरूप सुरक्षा-व्यवस्था बनाने और दैनन्दिन क्रिया-कलापों में आवश्यक परिवर्तन की बात सोची जाती थी ! कृषि कार्यों में ज्योतिर्विज्ञान का सहयोग लिया जाता था ! ग्रहों की गति एवं स्थिति नक्षत्रों के योग का कब और किस प्रकार का प्रभाव पृथ्वी के मौसम पर पड़ेगा, इस जानकारी के आधार पर ही निश्चित प्रकार के बीज बोने का निर्धारण किया जाता था !

ज्योतिर्विज्ञान का सर्वाधिक योगदान था ! मानवी स्वास्थ्य सन्तुलन में ! आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली किसी समय में हर तरह की बीमारियों के उपचार में सक्षम थी ! आज जैसे ‘असाध्य’ नाम के कोई रोग नहीं थे ! न केवल रोग निवारण और स्वास्थ्य सम्वर्धन वरन् वृद्धावस्था में भी यौवन प्राप्त करने के कायाकल्प जैसे उपचारों का उल्लेख आयुर्वेद में मिलता है ! कितने ही व्यक्तियों के प्रमाण भी मिलते हैं ! जिन्होंने काया-कल्प के माध्यम से युवकों जैसी शक्ति पायी ! आयुर्वेद की चिकित्सा प्रणाली, निदान, उपचार की विधियां आज भी प्रचलित हैं ! सम्बन्धित महत्वपूर्ण ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं ! पर काया-कल्प और असाध्य रोगों का उपचार तो दूर रहा सामान्य रोगों के उन्मूलन में भी सफलता नहीं मिल पाती !

रोगोपचार की वनस्पतियां भी अविज्ञान और अनुपलब्ध नहीं है ! न ही इस विषय पर ग्रन्थों का अभाव है ! फिर क्या कारण है कि रोगोपचार में आशातीत सफलता न ही मिल पाती ! गहराई से अध्ययन करने पर एक ही तथ्य उभर कर समाने आता है कि आयुर्वेद शास्त्र के साथ ज्योतिर्विज्ञान घुला मिला था ! आयुर्वेद की सफलता का श्रेय वस्तुतः ज्योतिर्विद्या को ही था ! जो कालान्तर में विलुप्त होती गई ! फलस्वरूप यह चिकित्सा प्रणाली उतनी सक्षम न रही जितनी कि प्राचीन काल में थी !

आयुर्वेद के मूर्धन्य विद्वानों में चरक, सुश्रुत, बाग भट्ट का नाम आता है ! ये सभी न केवल चिकित्सा शास्त्र के वरन् ज्योतिर्विज्ञान के भी मर्मज्ञ थे, किम्वदन्ती है कि ‘चरक’ वनस्पतियों के संग्रह के लिए वनों एवं पहाड़ों पर जाते थे तो जड़ी-बूटियां स्वतः अपनी विशेषताओं और गुणों को बता देती थी ! साथ ही उन्हें किस वातावरण में और कब लगाने से क्या विशेषताएं पैदा होती हैं और किस तरह के मनोभूमि एवं रोग वाले व्यक्ति को लाभ पहुंचाती हैं, की जानकारी भी दे देती थीं ! कथानक की सत्यता और असत्यता पर न जाकर सन्निहित तथ्यों पर ध्यान दें तो पता चलता है—रोग निवारण में मात्र औषधि का ही योगदान नहीं होता ! उसे किस वातावरण में कब और किन ग्रह-नक्षत्रों के योग की स्थिति में उगाये जाने से क्या प्रभाव पड़ता है, यह जानना भी आवश्यक है कि सफलता इस तथ्य के ऊपर ही निर्भर करती है !

मानवी स्वास्थ्य अन्तर्ग्रही गतिविधियों एवं परिवर्तनों से असाधारण रूप से प्रभावित होता है, इस तथ्य पर प्रकाश डालने वाले कितने ही सूत्रों का उल्लेख आयुर्वेद शास्त्र में मिलता है ! ज्योतिष सूत्र के अनुसार ‘‘अष्टमी व्याधिनाशिनी’’ अर्थात् अष्टमी जो चन्द्रमा का आठवां दिन होता है सम्पूर्ण व्याधियों का अन्त करने वाला दिन है अर्थात् इस दिन जो भी औषधि ली जायेगी विशेष रूप से लाभकारी सिद्ध होगी ! अष्टमी को सूर्य और चन्द्रमा एक-दूसरे 90 अंश पर स्थिति होते हैं ! इसलिए दोनों ही पृथ्वी के सभी द्रवों के प्रति अपना आकर्षण कम कर देते हैं ! मानव शरीर में विद्यमान रक्त और जल में भी सूर्य और चन्द्र के अतिरिक्त आकर्षण कम हो जाने से इस अवधि में दी गई दवायें अधिक प्रभावकारी सिद्ध होती हैं !

‘‘भैषजिक ज्योतिष के अनुसार अनेकों बीमारियां’’ विशेषतः चर्मरोग, पागलपन, मिरगी, मानसिक विक्षिप्तता शुक्ल पक्ष में उग्र होती हैं ! आधुनिक चिकित्सा शास्त्र को इसकी कोई जानकारी नहीं है कि ऐसा क्यों होता है? ज्योतिष विज्ञान के अनुसार शुक्ल पक्ष में सूर्य और चन्द्रमा आकाश में एक-दूसरे के अधिक निकट होते हैं ! ये ही पृथ्वी के वायुमण्डल में सुव्याप्त गैस कणों को अधिक आकर्षित करते हैं ! जिसका प्रभा मनुष्य और पशुओं के स्वास्थ्य के ऊपर पड़ता है ! प्रायः ऐसा देखा गया है कि चतुर्दशी को जब सूर्य और चन्द्रमा एक-दूसरे से 160 अंश का कोण बनाते हैं—बीमारियां अधिक उग्र हो जाती हैं ! भावनात्मक उद्वेग भी इन्हीं दिनों चरम बिन्दु पर होते हैं !

आयुर्वेद का प्रसिद्ध त्रिदोष सिद्धान्त भी अपने में ज्योतिशास्त्र के कितने ही सूक्ष्म रहस्यों को समाहित किये हुए है ! वात, पित्त और कफ का विश्लेषण करने पर महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लगते हैं जिन्हें समझा जा सके तो अनेकों रोगों के उपचार में सहयोग मिल सकता है ! ‘वात’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘वा’ धातु से हुई है ! जिसका अर्थ है—गति ! ‘‘वा गतिगंधन यो रिति धातुः !’’ पित्त शब्द का उद्गम तप से हुआ है ! ‘तप’ अर्थात् ‘तपसं तामे पित्तम् !अर्थात् उत्क्रान्तता, उत्तेजना और शक्ति का परिचायक ! कफ-श्लेष्मा से अभिप्रायः है—मिलना-आकर्षण करना !

‘‘श्लिष आलिगनेः’’ ! टीकाकार ‘चक्रपाणि’ ने इन तीनों की व्याख्या सारगर्भित रूप में की है ! उनके अनुसार वात गति का, पित्त शक्ति का और कफ आकर्षण का प्रतीक है ! अस्तु मात्र इतना ही जानना पर्याप्त नहीं है कि ये तीन शरीर की मात्र तीन रासायनिक प्रकृतियां हैं वरन् इनकी सूक्ष्म विशेषताओं को जानना भी आवश्यक है !

आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत का मत है कि जिस प्रकार सूर्य, चन्द्रमा और वायु की शक्तियां संसार को गतिशील करने के लिए आवश्यक हैं उसी तरह वात, पित्त और कफ का सन्तुलन शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य के लिए भी अनिवार्य है ! उन तीनों प्रकृतियों पर ग्रहों की स्थिति, गति और परिवर्तनों का समय पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह जानना भी महत्वपूर्ण है ! रोग का निदान और उपचार भलीभांति तभी सम्भव है !

ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार तारा पुंजों के तीन समुदाय हैं जिनका सम्बन्ध आयुर्वेद के त्रिदोष सिद्धांत से है ! वे तीनों वात-पित्त, कफ की स्थिति को भी समय-समय पर प्रभावित करते हैं ! इसी तरह ग्रहों का प्रभाव भी तनों धातुओं पर पड़ता है ! उदाहरणार्थ सूर्य अधिकांशतः पित्त पर तथा चन्द्रमा वात पर असर डालता है ! चन्द्रकला की स्थिति और सूर्य की गतिविधि भी दोनों ही तत्वों में उतार-चढ़ाव लाते हैं ! ज्योतिष शास्त्र का मत है कि चन्द्रमा मन को, सूर्य आत्मा को, बुध चेतन तन्तुओं को अपनी स्थिति से प्रभावित करते हैं ! जिन जातकों में सूर्य और चन्द्रमा आग्नेय राशियों के नक्षत्र में होते हैं ऐसी स्थिति में शुष्क, गर्म और तेज धूप वाली जलवायु में रहने वाले व्यक्तियों के चेतना तन्तुओं में विशिष्ट प्रकार की विकृतियां आ जाती हैं जिसके कारणों से आज के चिकित्सा शास्त्री अपरिचित होते हैं, फलस्वरूप उनको निदान और उपचार में सफलता नहीं मिल पाती !

शरीर विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र के जिन गूढ़ रहस्यों पर ज्योतिर्विज्ञान के सिद्धान्त प्रकाश डालते रहे हैं उनके विषय में विश्व में ढूंढ़ खोज आरम्भ हो गई है ! रोगों की उत्पत्ति और उपचार में शारीरिक और मानसिक स्थिति में अन्तर्ग्रही परिस्थितियों का भी योगदान होता है, अब यह विश्व के मूर्धन्य चिकित्सा शास्त्री अनुभव करने लगे हैं ! डा. एडसन ने अपने अनेकों प्रयोगों के उपरान्त यह निष्कर्ष निकाला है कि रक्त स्राव की 82 प्रतिशत घटनाएं चांद के प्रथम और तीसरे सप्ताहों में घटित होती हैं ! ‘प्रो. रिविस्ज’ का मत है कि मानव शरीर में वैद्युतीय शक्ति की अधिकता पूर्णमासी को चौदहवीं रात को होती है ! ये वैद्युतीय परिवर्तन मनुष्य की मनःस्थिति और स्वभाव को विक्षुब्ध बनाते हैं ! डा. ‘वेकर’ के अनुसार मानसिक विक्षिप्तता के कारण इन्हीं दिनों अपराध की घटनाओं में भी वृद्धि होती है !

स्वीडेन के प्रसिद्ध चिकित्सा शास्त्री सावन्ते आर. हैन्थस ने अपनी खोजों के आधार पर घोषणा की है कि स्त्रियों में मासिक धर्म चन्द्र मासस की विशेष तिथियों में ही प्रकट होता है ! स्त्री रोग विशेषज्ञ औगिनो और नोस का कहना है कि गर्भाधान के लिए सर्वश्रेष्ठ समय मासिक धर्म से क्रमश; चौदहवां दिन अधिक उपयुक्त होता है !

‘द लूनर इफेक्ट’ नामक पुस्तक में डा. लीवर के अध्ययन निष्कर्षों का सार इस प्रकार है—‘‘ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव हमारे शरीर, हार्मोन्स स्राव की जटिल प्रक्रिया द्रव पदार्थों तथा स्नायुतन्त्र को शक्ति देने वाले विद्युत कणों पर पड़ता है ! त्वचा ऐसी अर्ध चुम्बकीय है जो दोनों दिशाओं में विद्युत चुम्बकीय शक्तियों को आवागमन का मार्ग प्रशस्त करती है, इससे सन्तुलन बना रहता है ! स्नायु की प्रत्येक तरंग, शक्ति की सामान्य विद्युतधारा उत्पन्न करती है ! छोटे सौरमण्डल की भांति हर कोशिका का अपना एक छोटा तथा हल्का विद्युत क्षेत्र होता है ! डा. लीवर का कहना है कि ग्रह नक्षत्रों से व्यापक परिणाम में निकलने वाली विद्युत चुम्बकीय शक्तियां शरीर तथा उसकी कोशिकाओं के सन्तुलन को प्रभावित करती हैं !

उल्लेखनीय बात यह भी है कि सूर्य तथा चन्द्रमा जब-जब शिखर बिन्दु पर होते हैं तब-तब मनुष्य सहित सभी प्राणियों की श्वास दर तेज हो जाती है ! दमे वालों की तकलीफ बढ़ जाती है ! शीत ऋतु में विशेषकर जनवरी, फरवरी में श्वास की दर बाकी महीनों की तुलना में घटी रहती है जबकि सितम्बर से लेकर नवम्बर तक सबसे अधिक बढ़ जाती है !

पृथ्वी के चारों ओर लिपटा रक्षा कवच का आवरण मेग्नेटोस्फीयर सौर हलचलों से प्रभावित होता है ! चुम्बकीय आवरण की स्थिति से मनुष्य की सम्वेदना, नेत्र-ज्योति, रक्त संचार, जैव रासायनिक गतिविधियां तथा मस्तिष्क की कार्यकुशलता आदि पर भी प्रभाव पड़ता है ! यदि चुम्बकीय शक्ति में वृद्धि होती है तो शरीर के रासायनिक तत्वों के अणु आवेश बदल जाते हैं ! फलस्वरूप मस्तिष्कीय केन्द्रों से स्रवित होने वाले विभिन्न रसायनों का सन्तुलन बिगड़ जाता है ! इसका सीधा प्रभाव मनुष्य के चिन्तन एवं व्यवहार पर पड़ता है ! अनेकों अध्ययनों में यह पाया गया कि सौर गतिविधि के ग्यारह वर्षीय चक्र में आरम्भिक छः वर्षों में सूर्य धब्बे बढ़ जाते हैं तथा बाद के पांच वर्षों में उनमें कमी आ जाती है ! सौर धब्बों के बढ़ने से दिल के मरीजों की स्थिति गम्भीर होती देखी गयी है ! कितने ही व्यक्तियों में दिमागी बीमारियां तथा तन्त्रिका तन्त्र के विकार भी इसी दौरान तेजी से उभरने लगते हैं !

स्वीडन के तीन वैज्ञानिकों—जी. एग्रेन, ओ. विलैण्डर तथा इ. जोरेस ने 1931 में एक महत्वपूर्ण तथ्य की खोज की ! उनका मत था कि शारीरिक क्रियाओं के जैव रसायनिक चक्रों, जो कि अंतर्ग्रही प्रभावों के कारण परिवर्तनशील हैं, के अनुसार ही बीमार शरीर की चिकित्सा की जानी चाहिए ! उन्हीं ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि डायबिटीज के रोगी को इन्सुलिन से उपचार करते समय दवा से भी अधिक महत्व इस बात का है कि उसे कब और किस समय दी जाय? चौबीस घंटे के रात-दिन के चक्र में रक्त में शर्करा की मात्रा घटती-बढ़ती रहती हैं ! रक्त में हीमोग्लोबिन के अनुपात में भी उतार-चढ़ाव इसी प्रकार आता है ! उन्होंने पाया कि 24 घंटे के चक्र में रक्त में पोटेशियम, कैल्शियम सोडियम, मैग्नेशियम तथा फास्फोरस की मात्र भी बदलती रहती है ! चिकित्सकों के लिए शारीरिक रसायनों एवं तत्वों के दैनिक उतार-चढ़ाव की विस्तृत जानकारी का होना भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि निदान एवं उपचार सम्बन्धी ज्ञान का होना ! बायोलॉजिकल रिद्म सौर मण्डल के घटकों की गति लय एवं स्थिति से प्रभावित होती तथा उनसे अन्योन्याश्रित रूप से जुड़ी हुई है ! उन सम्बन्धों तथा प्रभावों का ज्ञान होना भी चिकित्सकों के लिए आवश्यक है !

स्वास्थ्य के प्रसंग में ग्रहों को—मौसम के प्रभाव को—यदि समझा जा सके तो खतरे से बचने और अवसर के अनुकूल लाभ उठाने की सुविधा हर किसी को मिल सकती है !

चरक सूत्र—अ. 6 !4 के अनुसार ऋतुओं के अनुरूप आहार-विहार में परिवर्तन करते रहने से ही स्वस्थ और निरोग रहा जा सकता है ! चरक ने ऋतुओं के विभाग के अनुसार वर्ष का छः ऋतुओं में विभाजन किया है—(1) माघ-फाल्गुन को शिशिर (2) चैत्र बैसाख को बसन्त (3) ज्येष्ठ, अषाढ़ को ग्रीष्म (4) श्रावण, भाद्र पक्ष को वर्षा (5) आश्विन, कार्तिक को शरद (6) अगहन, पौष को हेमन्त ऋतु समझा जा सकता है ! यह विभाजन सुश्रुत संहिता के अनुसार किया गया है !

आयुर्वेद में ज्योतिर्विद्या का विशद वर्णन मिलता है ! दिन रात और ऋतुओं आदि का प्रभाव प्राणियों एवं वनस्पतियों पर समान रूप से पड़ता है ! आयुर्वेद शास्त्र के आचार्य इस तथ्य से परिचित थे कि इन परिवर्तनों का मूल कारण पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र और वायु की गति विशेष है ! चरक संहिता के अनुसार वनस्पतियों में से सौम्य अंश सूख जाने से इनमें तिक्त, कषाय और कटु रस की क्रमशः वृद्धि होती है तथा प्राणियों में रुक्षता अधिक पायी जाती है ! ग्रीष्म ऋतु में सूर्य पृथ्वी का जलीयांस ले लेता है तथा वायु तीव्र और रुक्ष होकर संसार के स्नेह भाग का शोषण करती है ! परिणाम स्वरूप शिशिर बसन्त और ग्रीष्म इन तीनों ऋतुओं में रुक्षता उत्पन्न हो जाने से तिक्त, कषाय और कटु रसों की वृद्धि से मनुष्य शरीर में दुर्बलता आती है !

बसन्त ऋतु में जब सूर्य मीन और मेष राशि पर रहता है ! सूर्य की उष्णता बढ़नी आरम्भ होती है ! फलतः दुर्बलता एवं व्याधियों का बढ़ना भी यहीं से आरम्भ होता है ! ग्रीष्म ऋतु में जब सूर्य वृष और मिथुन राशि पर आता है तो उसकी किरणें अत्यन्त प्रखर हो जाती हैं जिससे भूमण्डल के सभी पदार्थों में कटु रस की वृद्धि होती तथा प्राणियों में रुग्णता और दुर्बलता सर्वाधिक बढ़ती है !

सूर्य और चन्द्र की गति और स्थिति का पृथ्वी की वनस्पतियों और प्राणियों पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों की रोकथाम के लिए ऋतुओं के अनुरूप आहार−विहार में हेर−फेर करने का आयुर्वेद में ‘विस्तृत वर्णन आता है ! मनीषी सुश्रुत के अनुसार—

हेमन्त ऋतु में सामान्यतया शरीर की जठराग्नि सशक्त रहती है ! इन दिनों वायु का प्रकोप अधिक रहता है ! स्निग्ध पदार्थ के बहुलता वाले पदार्थ स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होते हैं !

शिशिर ऋतु में कटु, तिक्त, कषाय रसों से युक्त वात वर्धक पदार्थों का सेवन वर्जित है !

हेमन्त ऋतु में संचित हुआ कफ बसन्त ऋतु में सूर्य किरणों से प्रभावित होकर जठराग्नि को मन्द कर देता है अतः अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं ! अतः स्निग्ध और अम्लीय पदार्थों का सेवन वर्जित है पुराने अन्न का सेवन लाभकारी है !

ग्रीष्म ऋतु में शरीर में स्निग्धता का अभाव पड़ जाता है ! इस काल में स्निग्ध पदार्थ, मधुर रस, घी, चावल आदि का सेवन अधिक करना चाहिए, लवण, अम्लीय तथा कटु रस वाले पदार्थों का सेवन हानिकारक है !

वर्षा ऋतु में जठराग्नि सर्वाधिक दुर्बल रहती है ! रोगों की बहुलता भी इसी कारण इन्हीं दिनों देखी जाती है ! दिन में सोना, धूप में बैठना वर्जित है ! पुराने जौ, गेहूं का प्रयोग लाभप्रद है ! अम्लीय लवण से युक्त, स्निग्ध पदार्थों की बहुलता स्वास्थ्य रक्षक है !

शरद ऋतु में वर्षा ऋतु में संचित पित्त प्रकुपित रहता है, वसा, क्षारीय एवं दही का सेवन वर्जित है !

पश्चिम जर्मनी, ‘वोकुम’ स्थित वेधशाला के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. हाइन्ज कामिस्की के अनुसार हर नवें ग्यारहवें, अठारहवें वर्ष सूर्य के धरातल पर भयंकर विस्फोट होते हैं ! इस सदी में किए गये अध्ययन के अनुसार विस्फोट की तीव्रता में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है ! पिछले दिनों सूर्य पर एक विस्फोट हुआ जो करोड़ों हाइड्रोजन बमों की शक्ति के बराबर था ! ऐसा वैज्ञानिक मत है कि इस विस्फोट की घातक तरंगें बाह्यावरण आयनोस्फियर को चीरकर पृथ्वी पर पहुंची जिनका घातक प्रभाव पृथ्वी के वातावरण, वृक्ष, वनस्पतियों एवं जीवों पर भी पड़ा ! प्रो. हाइन्ज के अनुसार केंसर, हृदय रोग, रक्तचाप जैसी बीमारियों में अभिवृद्धि का एक कारण सूर्य का विषैला प्रभाव है ! प्रो. कामिस्की का मत है कि यदि उस समय कोई अन्तरिक्ष यात्री अन्तरिक्ष में रहा होता तो एक्स किरणों से उसकी तत्काल मृत्यु हो सकती थी !

अमेरिका के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. स्टीफन कोजेन ने बताया है कि मौसम का प्रभाव सुनिश्चित रूप से औषधि पर व उसे लेने वाले पर पड़ता है ! उनके अनुसार जिसने औषधि सेवन में मौसम की अवहेलना की—उसे या तो दुष्परिणामों या मृत्यु का सामना करना पड़ा है ! मौसम से उनका मतलब है गृह नक्षत्रों की स्थिति के अनुसार पृथ्वी पर संभावित वातावरण में परिवर्तन ! यदि सूखी गर्म जलवायु में बिना सोचे समझे व व्यक्ति का पूरा निरीक्षण किये आंख में एट्रोपीन नामक दवा डाल दी जाय, जो पुतलियों को चौड़ा करती है, तो शरीर के तापमान नियमन की व्यवस्था छिन्न भिन्न हो जाती है एवं हीट स्ट्रोक से रोगी की मृत्यु हो सकती है ! दोष यहां लू को देकर छुट्टी पा ली जाता है जबकि उत्तेजक कारण था जलवायु का ध्यान रखें बिना एण्टी कोलिनर्जिक औषधि दे देना !

पिछले दिनों तीन मानसिक रोगी न्यूयार्क के एक अस्पताल में अप्रत्याशित रूप से मृत पाये गये ! उन्हें जो एण्टी सायकोटिक औषधियां दी गयी उन्होंने उन रोगियों को वातावरण से जूझने की क्षमता को नष्ट कर दिया एवं वे जरा से मौसम परिवर्तन को भी सहन न कर पाये ! डा. रोजेक का कहना है कि पहले से रोगी की मनःस्थिति व वातावरण में सम्भावित परिवर्तनों का ज्योतिर्विज्ञान के आधार पर एक चार्ट बना लेना चाहिए तथा तभी औषधि दी जानी चाहिए जब उसे मौसमीय प्रतिकूलताओं से लड़ने के लिए बाध्य न होना पड़े !

डॉक्टर रोजेक का कहना है—कि कितने व्यक्ति जानते हैं कि—दवा की पोटेन्सी, दुष्प्रभाव व वांछित प्रभाव मनुष्य के पर्यावरण पर पूर्णरूपेण निर्भर हैं मौसम परिवर्तन के अनुसार ही औषधियां अपने प्रभाव बनाती हैं ! यही बात कुछ एण्टी बायोटिक, कुछ एलर्जी की औषधियों एवं कुछ तनाव शामक औषधियों पर भी लागू होती है !

जिन रहस्यों का उद्घाटन आज के चिकित्सा शास्त्री कर रहे हैं, उससे भारतीय ज्योतिर्विज्ञ बहुत पहले ही परिचित थे ! जातक पारिजात नामक ज्योतिष ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है कि मासिक धर्म के आरम्भ के बाद चौदहवीं, पन्द्रहवीं और सोलहवीं रातों में गर्भाधान की सम्भावना सर्वाधिक रहती है ! ‘आचार्य बाराहमिहिर’ का एक सूत्र इस प्रकार है—

कुजेन्दुहेतुः प्रतिमास मार्यवं !

यतेतु पोऽर्षमनुष्ठा धी दितौ ! !

अर्थात्—किसी भी स्त्री में मासिक धर्म उस समय आरम्भ होता है जब कि चन्द्रमा उसकी जन्म कुण्डली के एक निश्चित स्थान में प्रविष्ट करता है !

इस बात के अब पर्याप्त प्रमाण मिलने लगे हैं कि सौर कलंक के समय सूर्य से एक विशिष्ट प्रकार का रेरिमेशन होता है जो भू चुम्बकीय क्षेत्र और पृथ्वी के वातावरण में असन्तुलन उत्पन्न करता है ऐसी स्थिति में विविध रोगों की उत्पत्ति होती है !

प्रसिद्ध रूसो वैज्ञानिक ‘निकोलससिज्ज’ का मत है कि सूर्य कलंकों में वृद्धि होने से मानव रक्त में पाये जाने वाले रक्षात्मक श्वेत कणों में कमी आ जाती है ! फलतः रुग्ण होने की सम्भावना बढ़ जाती है !’’

प्राचीन ज्योतिर्विद्या में न केवल रोगों की उत्पत्ति के कारणों का वर्णन है वरन् निदान और उपचार पर भी प्रकाश डाला गया है ! भौषिजीय ज्योतिर्विद्या में रोग निदान का विस्तृत उल्लेख किया है ! उसमें मात्र औषधि उपचार का ही नहीं अन्तर्ग्रही परिवर्तनों के साथ खान, पान में किस तरह का हेर-फेर करना तथा उपवास एवं मन्त्र चिकित्सा का प्रयोग अपनाना चाहिए, का भी छुट-पुट वर्णन मिलता है ! ‘अरिष्ट योग’ में बताया गया है कि रोगी की क्षय हुई शक्ति को और नष्ट हो गई कोशिकाओं को—मन्त्र चिकित्सा द्वारा पुनः प्राप्त कर सकता है !

ज्योतिर्विज्ञान के चिकित्सा शास्त्र से सम्बन्धित विविध पक्षों को नये सिरे से अध्ययन पर्यवेक्षण की आवश्यकता है ! रोगों की उत्पत्ति में प्रत्यक्ष स्थूल कारणों को महत्व दिया जाता और स्थूल उपचारों की बात सोची जाती है ! अदृश्य किन्तु महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ग्रह-नक्षत्रों के ज्ञान को भी चिकित्सा अनुसंधान की कड़ी में जोड़ा जा सके तो रोगों के कारण और निवारण के कितने ही चमत्कारी सूत्र हाथ लग सकते हैं, जिनसे अपरिचित बने रहने से रोगोपचार में चिकित्सक अपने को अक्षम पाते हैं ! निदान और उपचार के ऐसे अनेकों रहस्य इस अनुसंधान प्रक्रिया से खुलने की सम्भावना है !

पिछली एक सदी में विज्ञान की विभिन्न शाखा प्रशाखाओं का चमत्कारी विकास हुआ है ! मनुष्य की बौद्धिक क्षमता तथा तकनीकी ज्ञान में भी असाधारण वृद्धि हुई है ! आवश्यकता इस बात की है कि इसके सहयोग से ज्योतिर्विज्ञान रूपी महान विधा की विलुप्त कड़ियों को ढूंढ़ने का प्रयत्न किया जाय, जिससे दृश्य तथा अदृश्य जगत के पारस्परिक अन्तर्ग्रहीय सम्बन्धों एवं प्रभावों को जानने और तद्नुरूप उससे प्रभाव उठाने की सफल रीति-नीति अपनाने में मदद मिल सके !

अपने बारे में कुण्डली परामर्श हेतु संपर्क करें !

योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

 -: सम्पर्क :-
-090 444 14408
-094 530 92553

Check Also

प्रकृति सभी समस्याओं का समाधान है : Yogesh Mishra

यदि प्रकृति को परिभाषित करना हो तो एक लाइन में कहा जा सकता है कि …