सनातन धर्म के रक्षार्थ विलुप्त होती ज्योतिष विद्या को पुनर्जीवित करना होगा ! Yogesh Mishra

सृष्टि का गतिचक्र एक सुनियोजित विधि-व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। ब्रह्माण्ड अवस्थित विभिन्न नीहारिकाएं-गृह, नक्षत्रादि परस्पर सहकार सन्तुलन के सहारे निरन्तर परिभ्रमण-विचरण करते रहते हैं। जिस ब्रह्माण्ड में मनुष्य रहता है उसकी अपनी परिधि एक लाख प्रकाश वर्ष है और ऐसे-ऐसे हजारों अविज्ञात ब्रह्माण्ड विद्यमान हैं।

आधुनिकतम अन्तरिक्ष यानों की अधिकतम गति (37 हजार मील प्रति घण्टे की चाल) से भी यदि ब्रह्माण्ड को पार करने की सोची जाय तो भी मनुष्य को इस पुरुषार्थ में करोड़ों वर्ष लग जायेंगे। ऐसी स्थिति में अन्यान्य ग्रहों की स्थिति उनके परस्पर एक दूसरे पर प्रभाव तथा सुदूर स्थिति ग्रहों के पर्यावरण एवं जीव जगत पर प्रभावों की कल्पना वैज्ञानिक दृष्टि से तो कठिन ही नहीं असम्भव जान पड़ती है। यही वह बिन्दु है जहां एस्ट्रानॉमी (खगोल भौतिकी) एवं एस्ट्रालॉजी (खगोल शास्त्र) का परस्पर टकराव मतभेद होता देखा जाता है। विज्ञान सम्मत प्रतिपादन फलित ज्योतिष की सम्भावनाओं को काटते नजर आते हैं तो ज्योतिष विज्ञान के ज्ञाता भौतिकी के नियमों को अपनी परिधि में न मानकर गृहगणित आदि के आधार पर फलादेश की घोषणा करते दृष्टिगोचर होते हैं। इनमें कौन सही है? कौन गलत? क्या कोई समन्वयात्मक स्वरूप बन सकना सम्भव है जिसमें गृह नक्षत्रों की जानकारी से उनके प्रभावों से बचना, लाभान्वित हो सकना, अपने क्रिया-कलापों को तद्नुसार बदलते रह सकना शक्य हो सके? इसका उत्तर पाने के लिए हमें खगोल भौतिकी की कुछ प्रारम्भिक जानकारी प्राप्त करनी होगी।

अपना भूलोक सौर मण्डल के बृहत् परिवार का एक सदस्य है। सारे परिजन एक सूत्र में आबद्ध हैं। वे अपनी-अपनी कक्षाओं में घूमते तथा सूर्य की परिक्रमा करते हैं। सूर्य स्वयं अपने परिवार के ग्रह-उपग्रहों के साथ महासूर्य की परिक्रमा करता है। यह क्रम आगे बढ़ते-बढ़ते ब्रह्माण्ड के नाभिक महाध्रुव तक जा पहुंचता है। इतना सब कुछ जटिल क्रम होते हुए भी सारे ग्रह नक्षत्र एक−दूसरे के साथ न केवल बंधे हुए हैं वरन् परस्पर अति महत्वपूर्ण आदान-प्रदान भी करते हैं। इन सबके संयुक्त प्रयास का ही परिणाम है कि ग्रह नक्षत्रों की स्थिति अक्षुण्ण बनी रहती है। यदि ऐसा न होता तो कहीं भी अव्यवस्था फैल सकने के अवसर उत्पन्न हो जाते। ग्रहों का पारस्परिक सहयोग एवं आदान-प्रदान इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि इसे ब्रह्माण्डीय प्राण संचार कहा जा सकता है।

इतनी पृष्ठभूमि को समझने के बाद ज्योतिष विज्ञान की चर्चा की जा सकती है विज्ञान के क्षेत्र में इसे उच्चस्तरीय स्थान प्राप्त है। ऋतु परिवर्तन, वर्षा, तूफान, चक्रवात, हिमपात, भूकम्प, महामारी जैसी प्रकृति गत अनुकूलता-प्रतिकूलताओं की बहुत कुछ जानकारियां वैज्ञानिक लोग अन्तर्ग्रही स्थिति के आधार पर प्राप्त करते हैं। खगोल भौतिकविदों का ऐसा अनुमान है कि मौसमों की स्थिति पृथ्वी पर अन्तरिक्ष से आने वाले ऊर्जा प्रवाह के सन्तुलन-असन्तुलन पर निर्भर होती है। सामान्यतया पृथ्वी के ध्रुवों पर ही अन्तरिक्षीय ऊर्जा का संग्रहण होता है। उत्तरी ध्रुव होकर ही ब्रह्माण्ड व्यापी अगणित सूक्ष्म शक्तियां—सम्पदाएं पृथ्वी को प्राप्त होती हैं। जो उपयुक्त हैं उन्हें तो पृथ्वी अवशोषित कर लेती है एवं अनुपयुक्त को दक्षिणी ध्रुवद्वार से अनन्त आकाश में खदेड़ देती है। जिस प्रकार वर्षा का प्रभाव प्राणी जगत एवं वनस्पति समुदाय पर पड़ता है उसी प्रकार अन्तर्ग्रही सूक्ष्म प्रवाहों का जो अनुदान पृथ्वी को मिलता है,

उससे उसकी क्षेत्रीय एवं सामयिक स्थिति में भारी उलट-पुलट होती है। यहां तक कि इस प्रभाव से प्राणी जगत भी अछूता नहीं रहता। मनुष्य की शारीरिक और मानसिक स्थिति भी इस प्रक्रिया से बहुत कुछ प्रभावित होती है। ज्योतिर्विद्या के जानकार बताते हैं कि वर्तमान की स्थिति और भविष्य की सम्भावना के सम्बन्ध में इस विज्ञान के आधार पर पूर्व जानकारी से समय रहते अनिष्ट से बच निकलने और श्रेष्ठ से अधिक लाभ उठाने की विद्या को यदि विकसित किया जा सके तो मानव का यह श्रेष्ठतम पुरुषार्थ होगा। ऋषिगणों ने इसके लिए समुचित मार्ग भी सुझाया है आवश्यकता पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर इस विज्ञान सम्मत प्रणाली के सभी पक्षों को समझने की है।

पूर्व और पश्चिम में पुरातन ज्योतिर्विज्ञानी अपनी काल गणना और नक्षत्रीय निर्धारणा में एक दूसरे के साथ मिलकर चले हैं। किसने किससे सीखा यह कहना तो कठिन है, पर इतना निश्चित है कि इस नभ विज्ञान का पारस्परिक आदान-प्रदान चलता रहा है और एक के अनुभव विचारणा का लाभ दूसरों को मिलता रहा है। यह संकेत देव संस्कृति के इतिहास के अध्ययन से मिलता है।

गर्ग, आसित, भृगु, बृहस्पति, वादरायण, आर्य भट्ट, जीव स्वामी, कपिल, वराह मिहिर, भहोत्पल, मनु, कालिदास, भास्कराचार्य से लेकर, हिपोक्रेट्स, हिरोदेसस, न्यूटन, एलन, केपलर, पाइथागोरस, गैलीलियो आदि जैसे ज्योतिर्विदों ने अपने ढंग से अपने-अपने समय में जो खोज की थीं उनके समन्वय से ही पुरातन काल के ज्योतिष विज्ञान का ढांचा खड़ा हो सका था।

प्राचीन काल में ज्योतिष विज्ञान ज्ञान की एक सर्वांगपूर्ण शाखा थी जिसमें खगोल विज्ञान, ग्रह गणित, परोक्ष विज्ञान जैसे कितने ही विषयों का समावेश था। उस ज्ञान के आधार पर कितनी ही घटनाओं का पूर्वानुमान लगा लिया जाता था। आज भी उस महान विद्या से सम्बन्धित ग्रन्थ तथा ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं जिनसे उस काल की—ज्योतिष विज्ञान की विस्तृत जानकारी मिलती है। ऐसे अगणित ग्रन्थों एवं ज्योतिर्विदों का परिचय इतिहास के पन्नों में मिलता है।

आर्ष साहित्य में सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद हैं। अनुमान है कि वेदों की रचना ईसा पूर्व 4000 से 2500 ईसा पूर्व वर्ष के बीच हुई है अनेकों प्रसंग वेदों में हैं जिनसे ज्ञात होता है कि प्राचीन ऋषि मनीषियों को ज्योतिष विज्ञान का पर्याप्त ज्ञान था। उदाहरणार्थ—यजुर्वेद में नक्षत्र-दर्श तथा ऋग्वेद में ग्रह-राशि का वर्णन मिलता है। अथर्ववेद के अनुसार गार्ग्य ऋषि ने सर्व प्रथम अन्तरिक्ष को विभिन्न राशियों में विभाजित करने का प्रयत्न किया था। इसके अतिरिक्त अट्ठाइस नक्षत्र, सप्तऋषि मण्डल, वृहत्लुब्धक, आकाश गंगा आदि की भी पर्याप्त जानकारी वेदों से मिलती है।

छः ऋतुओं तथा बारह महीनों का नामकरण सर्वप्रथम भारतीय खगोल शास्त्रियों ने किया था। भौतिकविदों को बहुत समय बाद यह जानकारी मिली कि सूर्य की किरणों में सात वर्ण हैं। पर तैत्तिरीय संहिता जैसे प्राचीन ग्रन्थ में बहुत समय पूर्व ही सूर्य को सप्त-रश्मि कहा गया है। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि भौतिक विदों को सूर्य रश्मियों की जानकारी का आधार ये प्राचीन ग्रन्थ ही हैं।

वैदिक युग के बाद रामायण और महाभारत काल आता है, जो लगभग ईसा पूर्व 2500 से लेकर ईसा पूर्व 2000 तक माना जाता है कहा जाता है कि रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि न केवल तत्ववेत्ता थे वरन् महान ज्योतिर्विद् भी थे। उन्होंने रामायण में भी तारों एवं उनकी स्थिति का वर्णन करते हुए उनका मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का उल्लेख किया है।

रामायण का खलनायक रावण स्वयं महान ज्योतिर्विद् था। ऐसा कहा जाता है कि उस काल में रावण जैसा प्रकाण्ड पण्डित तथा ज्योतिर्विद् कोई दूसरा न था। रावण संहिता उसकी विलक्षण ज्योतिष विज्ञान की जानकारी का प्रमाण है, जो ज्योतिष शास्त्र का असाधारण ग्रन्थ माना जाता है।

गुरु वशिष्ठ, विश्वामित्र, मनु, याज्ञवल्क्य जैसे ऋषि अपने समय के धुरन्धर ज्योतिर्विज्ञानी भी थे। ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ में तारों और तारा रश्मियों का विशद् वर्णन है जो उस समय की खगोल विद्या एवं ज्योतिष विज्ञान की जानकारी देता है। महाभारत में भी ऋतुओं एवं ग्रह नक्षत्रों का वर्णन है। एक स्थान पर उल्लेख है कि कौरव और पाण्डवों के बीच युद्ध छिड़ने के पूर्व चन्द्रग्रहण लगा था। राहु एवं केतु के प्रभावों का भी वर्णन मिलता है।

ईसा पूर्व के अन्य ज्योतिर्विदों में व्यास, अत्रि पाराशर, कश्यप, नारद, गर्ग मारीचि, अग्र, लोमश, पौलस्त्य, च्यवन, यवन, भृगु, शौनक भी उल्लेखनीय है। विविध विषयों के विशेषज्ञ होने के साथ-साथ वे ज्योतिर्विद् भी थे।

ईसा पूर्व 500 से लेकर 500 ई. तक की अवधि में विदेशी आक्रमणकारी अत्यधिक सक्रिय रहे। सिकन्दर ने इसी बीच आक्रमण किया था। पुरातत्व वेत्ताओं का कहना है कि आतताइयों ने न केवल भारत में लूट-पाट मचायी वरन् यहां की सांस्कृतिक धरोहरों—विशेषकर ज्योतिष विज्ञान की महत्वपूर्ण पाण्डुलिपियों तथा वेधशालाओं को भी बुरी तरह नष्ट किया। ऐसा भी अनुमान है कि कितने ही बहुमूल्य अभिलेख वे अपने साथ बांधकर साथ ले गये जिनका जर्मन, रोम फ्रेंच आदि भाषाओं में अनुवाद हुआ व वहां के म्यूजियमों में अभी भी वे उपलब्ध हैं।

आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी अब यह स्वीकार कर लिया है कि पदार्थ परक सभी शक्तियां अथवा मूल प्रेरक बल एवं ब्रह्माण्ड में प्रभावी चेतन क्रियाएं एक ही केन्द्र से उत्पादित व नियन्त्रित होती हैं। यह ऋषियों की उस मान्यता से मेल खाता है जिसमें समस्त ब्रह्माण्ड में क्रियाशील एक ही शक्ति स्रोत के विषय में उद्घाटन करते हुए कहा गया है—‘‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’’—ऋग्वेद (1।164।46) अर्थात्—वह परम सत्ता एक ही है किन्तु विज्ञजन उसी ब्राह्मी सत्ता को अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि नामों से पुकारते हैं।

पुनः कठोपनिषद् (1।2।20) का ऋषि कहता है—

अणोरणियान महतो महियान ।

आप्मस्य जन्तोह निहितो गोहयम् ।।

अर्थात्—छोटे से बड़े आकार के सभी पदार्थ एक शक्ति से सम्बन्धित तथा नियन्त्रित होते हैं।

इन आप्त वचनों से स्पष्ट होता है कि आधुनिक विज्ञान द्वारा ज्ञात किया गया—ब्रह्माण्डीय एकत्व का समस्त बलों के एकीकरण का सिद्धान्त ऋषियों को बहुत पूर्व ही मालूम हो चुका था। उसी आधार पर उनने ज्योतिष विज्ञान का स्वरूप विकसित किया था तथा उसके माध्यम से पदार्थों व शक्तियों के बीच पारस्परिक क्रियाओं का अध्ययन करने में सफलता प्राप्त की थी। साथ ही उनने ब्रह्माण्डीय सूक्ष्म रहस्यों को भी उद्घाटित किया था, जिसे ज्योतिष विज्ञान विद्या निहित कर दिया गया।

वस्तुतः पदार्थ विज्ञान की समस्त विधाओं का आधार स्तम्भ ज्योतिष विज्ञान ही है। न्यूटन गैलीलियो, कोपर्निकस व अन्यान्य श्रेष्ठ वैज्ञानिकों ने अपने कार्य इसी क्षेत्र से आरम्भ कर इसी तथ्य की पुष्टि की है तथा इसे आधुनिक विज्ञान का जन्मदाता बतलाया है। मैं कौन हूं? मैं कहां से आया हूं और कहां जाऊंगा? संसार की उत्पत्ति कैसे हुई तथा इसका भविष्य क्या है? इस जगत का विस्तार कितना हुआ है? जगत के समस्त घटकों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध कैसा है तथा उसका क्या परिणाम होता है? आदि ऐसे जटिलतम वैज्ञानिक प्रश्न हैं, जो ज्योतिष विज्ञान के माध्यम से ही हल हो सके हैं। उसी को आधार मानकर आज के वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड भौतिकी पर अनुसन्धान रत हैं।

आर्ष वांग्मय में ज्योतिष विज्ञान को ज्योतिष नाम से महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। ज्योतिष का शाब्दिक अर्थ शक्ति अथवा नक्षत्रों का ज्ञान होता है। अतः यह वह विज्ञान है जो ब्रह्माण्डीय शक्ति तरंगों एवं नक्षत्रों की गतिविधियों का अध्ययन करता है। स्पष्ट शब्दों में इसे शक्ति के विभिन्न घटकों की पारस्परिक क्रिया का विज्ञान कह सकते हैं। अर्थात् पंचतत्वों एवं शरीर के विभिन्न अवयवों अथवा शक्ति-बलों के बीच पारस्परिक क्रिया के परिणामों का अध्ययन ही ज्योतिष विज्ञान है। इसका सम्बन्ध मूलतः सूर्य तथा सौर मण्डल के अन्यान्य ग्रहों एवं पृथ्वी तथा उसके निवासियों के बीच पारस्परिक क्रियाओं से है। इस परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्धों के आधार पर ही ज्योतिष विज्ञान की समग्र पृष्ठभूमि बनती है।

सृष्टि के आरम्भ से ही ज्योतिष विज्ञान का स्वरूप आर्ष साहित्य में प्रकट हुआ पाया जाता है। ऐसा उल्लेख शास्त्रों में मिलता है कि ऋषि गर्ग ने इस ज्योतिर्विद्या को विश्व सृजेता ब्रह्मा जी से सीधे प्राप्त किया था। तदुपरान्त उनने इस विद्या को अन्यान्य ऋषियों तक पहुंचाया था। मनु, कपिल, भृगु, सहदेव, अस्ति, बाराहमिहिर, वशिष्ठ, भास्कराचार्य, आर्य भट्ट आदि ज्योतिर्विद्या के प्रकाण्ड विद्वान माने जाते थे। इन्होंने सामान्य उपकरणों के माध्यम से अदृश्य जगत का अनुसंधान कर अनेकों ऐसे निष्कर्ष निकाले जिन्हें आज भी सत्यापित होते देखा जा सकता है।

सृष्टि की रहस्यमयी गुत्थियों को सुलझाने के लिए ऋषियों ने “अपरा और परा” विद्या की नींव डाली थी। सृष्टि के भौतिक स्वरूप का अध्ययन अपरा विद्या के माध्यम से किया जाता था। परन्तु ऋषियों ने परा की तुलना में अपरा विद्या को छोटे स्तर का माना था। क्योंकि इससे जगत के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं हो पाता। जगत का वास्तविक स्वरूप सूक्ष्म में अन्तर्निहित है, जिसका ज्ञान परा विद्या के माध्यम से हो सकता है। परा विद्या को ऋषियों ने ‘‘अतीन्द्रिय”- “सूक्ष्म योग शक्ति ग्राह्य’’ बताया था। योगीजन इसी का आश्रय लेकर परोक्ष की शोध करते थे। प्रकारान्तर से जो परा विद्या में निष्णात थे, तपः पूत योगी थे, वे ही ज्योतिष विज्ञान के अनुसंधान में सक्षम होते थे।

वेदों का सम्बन्ध परा विद्या से है और ज्योतिष को भी परा विद्या के माध्यम से ही समझा जा सकता है। अर्थात् ज्योतिष विज्ञान का स्पष्टीकरण स्थूल दृष्टि से कदापि नहीं, प्रत्युत अतींद्रिय सूक्ष्म योग शक्ति से ही सम्भव है। साथ ही यह भी स्मरणीय है कि चूंकि परा विद्या एक उच्चस्तरीय गणित है, अतः ज्योतिष भी उच्चस्तरीय गणित ही है। भारतीय ज्योतिर्विद् भास्कराचार्य ने तभी तो अपने प्रसिद्ध ग्रन्थों लीलावती एवं बीजगणित में आधुनिक गणित के प्रारम्भिक सूत्रों की स्थापना की है। यथा—‘‘योगे रवं क्षेप समम्, रव गुणः रवम्।’’ अर्थात्- किसी अंक में शून्य जोड़ने अथवा घटाने से उस अंक में कोई अंतर नहीं आता, किन्तु किसी अंक को शून्य से गुणा करने पर गुणनफल शून्य हो जाता है।

उक्त पुस्तक में ग्रह नक्षत्रों की पृथ्वी से दूरी, उनकी गति तथा उस गति से पृथ्वी पर पड़ने वाले सम्भावित प्रभावों से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सूत्रों का भी वर्णन है।

ऋषि परम्परा के जीवन्त होने के कारण ही ज्ञान विज्ञान की दृष्टि से भारत कभी विश्व का शिरोमणि था। उसने अपने सिद्धान्तों व अनुभवों से समस्त विश्व को आलोकित कर रखा था। भारतीय ज्योतिष विद्या को विश्व भर में मान्यता प्राप्त थी। आर्य संस्कृति का प्रसार विस्तार करने वाले परिव्राजक ऋषिगणों ने इसे वसुधा के कोने-कोने तक पहुंचा दिया था।

ज्योतिष शब्द का अर्थ शक्ति अथवा नक्षत्र है। सर एम.एम. विलयम ने अपनी संस्कृत से इंग्लिश शब्दकोश में ज्योतिष की इस प्रकार व्याख्या की है—‘‘सत्व गुण से व्याप्त मनःस्थिति अथवा प्रशान्त मनःस्थिति अथवा ब्रह्म ज्योति अथवा सर्वोच्च सत्ता के रूप में बोधगम्य प्रकाश।’’ एक शब्द में ज्योतिष को चेतन सत्ता की पारस्परिक क्रिया का विज्ञान कह सकते हैं। अर्थात्, तत्त्वों अथवा शरीर के अवयवों, मन एवं ब्रह्माण्डीय शक्तियों के बीच पारस्परिक क्रिया का परिणाम ही ज्योतिष विज्ञान है।

ब्रह्माण्ड विद्या (ज्योतिष शास्त्र) में गृहों को एक राजनैतिक सामाजिक व्यवस्था क्रम में रखा गया है। जिसमें सूर्य राजा का प्रतिनिधि है चन्द्रमा रानी का तथा बुध राजकुमार का।

प्राचीन हिन्दू ज्योतिष शास्त्रियों ने ज्योतिष विद्या को एक ब्रह्माण्डीय अनुशासन के रूप में प्रस्तुत किया जिसमें ईश्वर के प्रति अगाध प्रेम तथा निष्ठा व्यक्त की गई है। ज्योतिष का उनने पवित्र तन्त्र के रूप में ध्यान पूर्वक अध्ययन किया। ज्योतिष को ज्ञान का समुद्र कहा गया। इस विद्या को पराविद्या के रूप में प्रतिपादित किया गया जिसकी गहराई तथा सीमायें अनन्त हैं। इसीलिये भारतीय ज्योतिष शास्त्रियों ने कुछ संकेत रूपक स्थापित किये हैं जिससे इस विद्या के रहस्यों को समझा जा सके।

राशि-चक्र के बारह चिन्ह काल पुरुष के शरीर के अंग हैं। पहला राशि-चिन्ह मेष जो काल पुरुष के मस्तिष्क-नियन्त्रण केन्द्र का प्रतिपादन करता है। वृषभ चेहरे का प्रतीक है। मिथुन गर्दन तथा सीने के ऊपरी हिस्से तथा कंधों का चिन्ह है। कर्क हृदय, सिंह पेट, कन्या नाभि, तुला आंतों, वृश्चिक गुप्तांगों, धनुष जंघाओं, मकर जोड़ों, कुम्भ घुटनों के नीचे वाले भागों तथा मीन शरीर के अन्तिम निचले हिस्से पैरों का प्रतीक है।

इस व्यवस्था के अन्तर्गत ब्रह्माण्डीय पुरुष के शरीर के विभिन्न अंगों के रूप में ग्रहों को चिह्नित किया गया है। सूर्य को कालपुरुष का आत्मा कहा गया है। चन्द्रमा मन है। मंगल शक्ति है। बुध वाक् है। गुरु काल पुरुष का ज्ञान, स्वास्थ्य, समृद्धि, संतति तथा सुख है। शुक्र आकर्षण शक्ति लैंगिक प्रेम तथा उपभोग का प्रतीक है। शनि कष्ट और दुःख का प्रतीक है।

ब्रह्माण्डीय विद्या में सामाजिक राजनैतिक प्रतीक भी हैं जैसे सूर्य राजा, चन्द्रमा रानी, गुरु, शुक्र मन्त्री, मंगल सेनापति, बुध राजकुमार और शनि सेवक है।

कालपुरुष चार्ट जो ग्रहों की जानकारी का मूल आधार है, इसकी सहायता से किसी व्यक्ति की जन्म कुण्डली बनाकर व्यक्ति के मानसिक विकास की जानकारी मिल जाती है। यदि किसी व्यक्ति का सूर्य ग्रह ठीक जगह स्थित तथा बलवान है तो व्यक्ति की सामाजिक स्थिति तथा नियन्त्रण शक्ति ठीक होने की जानकारी मिलती है। शक्तिशाली ग्रह अपने विशिष्ट प्रभाव की जानकारी देते हैं।

यह एक समग्र विज्ञान सम्मत विधा है, ऐसा इस वर्णन से स्पष्ट होता है। खगोल भौतिकी के सिद्धान्त भी कुछ ऐसा ही प्रतिपादित करते हैं। न केवल भारत अपितु विदेशों के विद्वान भी ज्योतिष विज्ञान के स्वरूप की ऐसी व्याख्या करने में समर्थ हुए हैं जिससे ब्रह्मांडीय शक्तियों के जीव चेतना पर प्रभाव की पुष्टि होती है।

भारतीय ज्योतिष की नींव बड़ी गहरी वैदिक काल से पड़ी प्रतीत होती है। सृष्टि के निर्माण काल के बारे में विज्ञान तथा इस ज्योतिष से बड़ा तालमेल बैठता है। काल गणना करके मानव वर्ष तथा देववर्ष बने। 360 मानव वर्षों का एक देववर्ष कहा गया। 12 हजार वर्षों का एक देवयुग और 1000 देवयुग को ब्रह्माजी का एक दिन कहा जाता है। एक देवयुग में

सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग क्रमशः 48, 36, 24 और 12 हजार वर्ष के होते हैं। प्रत्येक युग के आरम्भ तथा अन्त में पड़ने वाली संध्या वेला को भी वर्गीकृत किया गया। आरम्भिक संध्या वेला को सन्ध्या और अन्तिम चरण को संध्यांश कहा गया।

कलियुग, द्वापर, त्रेता और सतयुग में संध्यायें क्रमशः 100, 200, 300 और चार-चार सौ वर्ष की पड़ती हैं। एक युग की सन्ध्या और सन्ध्यांश का समय एक जैसा होता है। युगों के मुख्य भाग सतयुग में 4000, त्रेता में तीन हजार, द्वापर में 2000 और कलियुग में 1000 वर्षों का माना गया है।

ज्योतिष शास्त्र का आधार गणित को दिलाने का श्रेय आर्य भट्ट को है। अनेक कठिन प्रश्नों को सूक्ष्मीकृत करके उन्होंने 30 श्लोकों में सीमित कर दिया। प्रसिद्ध ज्योतिष सिद्धान्त के काल क्रिया पाद अध्याय में तिथि-नक्षत्र की गणना की गई है। सूर्य सिद्धान्त में ब्रह्माण्ड की ही नहीं काल विभाजन की भी गवेषणा की गई है।

बाराहमिहिर की ‘‘पंच सिद्धान्तिका’’ में चन्द्रमा की कलाओं की विवेचना की गई है। ग्रन्थ ‘‘यंत्राध्याय’’ में ‘‘काल के सूक्ष्म अवयवों का ज्ञान बिना यंत्र के असम्भव है।’’ लिखकर गोल, नाड़ी, वलय, यास्ति, शंकुघटी, चक्र, चाप, सूर्य फलक और घी जैसे यंत्रों का विशद वर्णन भास्कराचार्य ने किया। ज्योतिषी में कुछ दिनों पठार सा रहा क्योंकि उनमें कोई ठोस कार्य सम्पन्न नहीं दिखते।

1688 में सवाई जयसिंह का जन्म हुआ। बड़े होकर पहले उन्होंने जंतर मंतर दिल्ली में वेधशालायें स्थापित करायी। यह दुर्भाग्य ही है कि अन्तिम तीन वेधशालायें अब खण्डहर स्वरूप ही हैं। इतना ही नहीं जयसिंह का विशाल ग्रन्थागार विनष्ट हो गया है। उन्होंने जगन्नाथ से टालमी के ‘‘सिनटैविसस’’ का अनुवाद कराया। आधुनिक ‘‘इक्वोटोरियल’’ यन्त्र की भांति ही उनका बनवाया चक्र यन्त्र है।

ज्योतिष विज्ञान को पुनर्जीवित करने का महत्वपूर्ण कार्य वस्तुतः आगे चलकर पाटिल पुत्र में आर्य भट्ट प्रथम ने किया। सन् 47 में उनका जन्म हुआ। पाटिलपुत्र की विश्व विख्यात विद्या पीठ में उन्होंने ज्योतिर्विद्या का विशद अध्ययन किया उन्होंने आर्य भट्टयन, तन्त्र तथा ‘दशगोतिका’ नामक तीन प्रख्यात ग्रन्थ लिखे। वे सर्व प्रथम खगोलविद् थे जिन्होंने यह सिद्धान्त खोजा कि पृथ्वी अपनी धुरी व कक्षा पर दैनिक गति करती है। इसी गति के कारण दिन और रात होते हैं।

आर्य भट्ट के बाद ज्योतिर्विद्या पर सबसे अधिक काम आचार्य बाराह मिहिर ने किया। उनका जन्म उज्जैन के काल्पी नामक स्थान पर हुआ। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग उज्जैन में ही अध्ययन-अध्यापन में बिताया। उनकी शोध की नवनीत ‘बृहद जातक’ ‘बृहत्संहिता’ जैसे महान ग्रन्थों में भरा है। वृहत्संहिता में प्राकृतिक विज्ञान का इतना विस्तृत वर्णन है कि कोई भी क्षेत्र ज्योतिष विज्ञान का बचा नहीं है। ग्रहण, उल्कापात, भूकम्प, दिग्दाह, वृष्टि, प्रकृति, ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति, गति का प्रभाव आदि विषयों पर विशद वर्णन है। कुछ विशेषज्ञों का अभिमत है कि विज्ञान की नयी शाख—‘‘एस्ट्रोफिजिक्स’’ (खगोल भौतिकी), जिसमें ग्रह नक्षत्रों के चुम्बकीय विद्युतीय ऊष्मा आदि प्रभावों का अध्ययन किया जाता है,

उनकी उत्पत्ति बाराहमिहिर के ग्रन्थों की प्रेरणा से हुई है। उनकी पंच सिद्धान्तिका कृति भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। उससे वर्णित सूर्य सिद्धान्त अद्वितीय है। विषुव-अयन की क्रिया का वर्णन भी बाराह मिहिर ने ही किया है। उन्होंने अपने विशद अध्ययन से उसका मान 54 विकल्प (सेकेंड) प्रति वर्ष प्राप्त किया। जिसका आधुनिक मान खगोलविदों ने 54.2728 सेकेंड खोजा है। दोनों खोजों में कितना साम्य है, यह देखकर अचरज होता है। साथ ही इस बात का भी आश्चर्य होता है कि बिना आधुनिक यन्त्रों के उस काम में इतनी सूक्ष्म तथा शुद्ध गणना करना किस प्रकार सम्भव हो सका?

न्यूटन ने बहुत समय बाद यह खोज की कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति है। उसके सैकड़ों वर्ष पूर्व ही महान भारतीय वैज्ञानिक, ज्योतिर्विद् भास्कराचार्य ने उपरोक्त तथ्य की खोज कर ली थी। उनकी प्रख्यात कृति ‘सिद्धान्त शिरोमणि’ में इस बात का प्रमाण भी मिलता है। उसमें वर्णन है—

आकृष्ट शक्तिश्च महीतया यत्,

स्वस्थं गुरुं स्वाभि मुखं स्वशक्त्या।

आकृण्वते तत्पत नीति भाति,

समे समन्तात् क्त पतत्वियं रवे।

अर्थात्—‘‘पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है इससे वह अपने आस-पास की वस्तुओं को आकर्षित कर लेती है। पृथ्वी के निकट आकर्षण शक्ति अधिक होती है, जैसे-जैसे दूरी बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे वह घटती जाती है। यदि किसी स्थान से भारी हल्की वस्तु छोड़ी जाय तो दोनों एक ही समय पृथ्वी पर गिरेंगी, ऐसा न होगा कि भारी वस्तु पहले गिरे तथा हल्की बाद में। ग्रह और पृथ्वी आकर्षण शक्ति के प्रभाव से ही परिभ्रमण करते हैं।’’

ईसा से 200 वर्ष पूर्व वैज्ञानिक स्तर के प्रयास आंशिक स्तर पर ही चल रहे थे। तब मशीनों आदि का तो सर्वथा अभाव ही था। उस स्थिति में भी यूनान के भूगोलज्ञ क्लाडियस टालमेयस ने ब्रह्माण्डीय संरचना सम्बंधी दर्शन को प्रतिपादित करने के लिए ख्याति प्राप्त की थी उसने अपने शोध प्रयासों के लिए भारतीय गणित और तर्कशास्त्र का ही अवलम्बन लिया एवं अपने ग्रन्थों में बड़े सम्मान पूर्वक इन सूत्रों को उद्धृत भी किया। उसी आधार पर उसने पृथ्वी की कक्षा तथा अन्यान्य ग्रहों के परिभ्रमण चक्र का मानचित्र बनाया था, जिससे ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति जानने में सफलता मिली, जो उन दिनों की वैज्ञानिक प्रगति को दृष्टिगत रख एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी।

टालमेयस ने स्वप्रतिपादित दर्शन तथा गणितीय गणनाओं को अपने ‘ज्योतिष महानिबन्ध’ (अलमागेस्ट) नामक ग्रन्थ में प्रकाशित करवाया। अपनी गणितीय गणना के आधार पर उसने 1028 नक्षत्रों की भी जानकारी दी। आधुनिक यन्त्रीकृत वैज्ञानिक खोजों के समक्ष टालमेयस का सिद्धान्त तो अब बौना प्रतीत होता है, फिर भी उस प्रतिभाशाली व्यक्ति का प्रयास सराहनीय है, जिसने यन्त्राभाव में भी उन दिनों इतने महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की।

छठी शताब्दी में पुनः भारत के आचार्य ब्रह्मगुप्त ने ज्योतिष विज्ञान पर महत्वपूर्ण काम किया। उनने ‘ब्रह्म स्फुट सिद्धांत’ तथा ‘खाड्यक’ नामक दो महान ग्रन्थों में सौर मण्डल के ग्रह नक्षत्रों की स्थिति, गति एवं गणना सम्बन्धी सूत्र दिए हैं। सातवीं और आठवीं शताब्दी में इनका अनुवाद अरबी भाषा में भी हुआ। वहीं से मध्य एशिया के ग्रीस आदि देशों में पहुंचा।

11 वीं सदी में भारत की यात्रा करने वाले महान अरबी विद्वान अलबरूनी बाराहमिहिर द्वारा प्रतिपादित ग्रन्थों से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने उनके अनेकों ग्रन्थों का अनुवाद अरबी भाषा में करवाया। अरब देशों में ज्योतिर्विद्या का प्रसार इसी प्रकार सम्भव हुआ। पिरामिडों की रचना में ज्यामिती का प्रयोग यह बताता है कि उन दिनों उत्तर अफ्रीका मध्य एशिया एवं विद्या के क्षेत्र में अग्रणी भारत में पारस्परिक सघन सम्बन्ध थे। खगोल गणित पर आधारित ये अद्भुत संरचनाएं किसी भारतीय तत्वदर्शी की देख-रेख में बनवाई गई हैं, ऐसा विद्वानों का मत है।

खोजियों का कहना है कि दिल्ली की कुतुबमीनार भी वस्तुतः एक वेधशाला थी, जो नक्षत्रज्ञ बराहमिहिर द्वारा स्थापित की गई थी। इसका नाम मेरु स्तम्भ था। आक्रमणकारियों ने उसका स्वरूप बदलकर कुतुबमीनार नाम दे दिया, जो मेरु स्तम्भ का ही मुगलों द्वारा किया गया अरबी अनुवाद है। इसके माध्यम से नक्षत्रों की जानकारी प्राप्त कर प्रतिकूलताओं से बचने व अनुकूलताओं से लाभ उठाने की व्यवस्था की जाती थी। इस मेरुस्तम्भ का निर्माण अन्तरिक्षीय अध्ययन के लिए सम्राट विक्रमादित्य के प्रसिद्ध नवरत्नों में से प्रख्यात ज्योतिर्विद आचार्य बाराह मिहिर द्वारा सम्राट के सहयोग से किया गया था। दिल्ली के निकट बसा मिहिरावली (महरौली) ग्राम भी आचार्य बाराह मिहिर के नाम पर ही बसा हुआ है।

अनुमान है कि 2200 वर्षों पूर्व बाराह मिहिर ने सत्ताईस नक्षत्रों, सात ग्रहों एवं ध्रुव तारे का वेध करने के लिए तथा सम्बन्धित जानकारियां प्राप्त करने के लिए जल के बड़े सरोवर के मध्य इस मेरु स्तम्भ का निर्माण कराया। इस स्तम्भ की ऊंचाई श्रीमद् भागवत पुराण में वर्णित हिमालय के शिखर मेरु पर्वत की ऊंचाई के अनुपात में ली गई है। सात ग्रहों के अनुसार इसकी सात मंजिलें और नीचे से ऊपर तक सत्ताईस नक्षत्रों को देखने के लिए सत्ताईस रोशनदान बने थे। स्तम्भ के निर्माण में भीतर काले पत्थरों का प्रयोग हुआ है ताकि अन्दर बिल्कुल अन्धेरा रहे। इस स्तम्भ का प्रमुख द्वार ध्रुव उत्तर की ओर है और झुकाव पाँच अंश दक्षिण की ओर है। इसकी नींव 16 गज गहरी है और ऊपर ऊँचाई लगभग 84 गज थी जो इस समय ऊपरी झुकाव को अंग्रेजों द्वारा तुड़वा दिए जाने के कारण 76 गज रह गई है।

मेरु स्तम्भ (वर्तमान कुतुबमीनार की अनेकों विशेषताओं में से एक) यह है कि 21 जून को 12 बजे दोपहर में इसकी छाया पृथ्वी पर नहीं पड़ती। छाया न पड़ने का कारण यह है कि सूर्य 21 जून को भूमध्य रेखा से 23.5 अक्षांश उत्तर की ओर होता है। देहली भूमध्य रेखा से 27.5 अक्षांश उत्तर की ओर है। इन दोनों अक्षांशों में 5 अंश का अन्तर है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए ज्योतिष गणना के अनुसार स्तम्भ निर्माण में ऊपरी हिस्से को 5 अंश दक्षिण की ओर झुकाव दे दिया था। ब्रिटिश शासन काल में इंजीनियर इस स्तम्भ के टेड़े होने का रहस्य न जान सके और यह समझकर कि नींव खिसकने से स्तम्भ झुक गया है तथा गिरने का खतरा है, भार को हल्का करने के लिए ऊपरी खण्ड को तुड़वाकर गिरवा दिया।

बाराहमिहिर के समय में इस स्तम्भ के चारों ओर सत्ताईस अन्य वेधशालाएं थीं जिन्हें सत्ताईस मन्दिरों का स्वरूप दिया गया था। इन मन्दिरों को कुतुबुद्दीन नामक विदेशी आक्रमणकारी ने तुड़वाकर मस्जिद में परिवर्तित करने का प्रयास किया तथा अपना नाम उस पर खुदवाया। इन सब तोड़−फोड़ के बावजूद भी स्तम्भ के ध्वंसावशेष अभी भी ऐसे किसी समय की वेधशाला होने का बोध कराते हैं तथा अपनी विचित्रताओं से वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित करते हैं।

वर्तमान में भौतिक विज्ञानियों ने भी ज्योतिष के क्षेत्र में छुई-मुई प्रयास आरम्भ किया है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक द्वय ड्यूबी एवं एडिंग्टन ने प्राणियों के ऊपर अन्तर्ग्रहीय प्रभावों का उल्लेख करते हुए बताया कि प्रत्येक ग्रह नक्षत्रों का अपना एक वायुमण्डल है और उसका अपना एक इलेक्ट्रॉनिक नाद भी होता है। यह नाद ही प्राणियों के ऊपर प्रभाव छोड़ता है। गर्भागन्तुक शिशु के भविष्य का निर्धारण ये ब्रह्माण्ड व्यापी तरंगें ही करती हैं।

लुइस डे ब्रोगली के अनुसार प्रत्येक पदार्थ में कणिकाएं तथा स्पन्दी तरंगें प्राकृतिक रूप से होती हैं। उनने इसे पदार्थ तरंग बताया। उनके अनुसार ग्रह नक्षत्रों की भी तरंगें होती हैं जो मनुष्य के ऊपर सतत् प्रभाव छोड़ती रहती हैं। पृथ्वी की तरंगों का कान्तिमान 3.6 × 10 पर घात 31 सेन्टीमीटर होता है। परन्तु इसका अनुभव नहीं होता। पृथ्वी के कंपन का कान्तिमान 8.25 × 10 पर घात 66 नम्बर प्रति सैकिंड होता है, फिर भी उसका ज्ञान स्थूल दृष्टि से सम्भव नहीं।

ब्रह्मांड व्यापी इस प्रभावशाली नाद अथवा तरंगों के समुच्चय को समझने हेतु वैज्ञानिकों ने अनेकों दूरदर्शी यन्त्र एवं सैटेलाइट्स आकाश में छोड़ रखे हैं। कैम्ब्रिज मैसाचुसेट्स से सम्बन्धित ‘ज्योतिष विज्ञान शोध गृह’ के संचालक डा. ब्रेन मार्सडेन के अनुसार पूरे विश्व में 300 दूरबीनें—वेधशालाओं में लगी हैं। परन्तु यह अपरा विद्या का अंग है जिससे ब्रह्मांड सम्बन्धी समग्र ज्ञान सम्भव नहीं। तरंगों की लम्बाई, कम्पन गति को ज्ञात कर मात्र स्थूल आयामों तक पहुंचा जा सकता है।

परा विद्या पर आधारित आत्मिकी की ज्योतिष विज्ञान शाखा इसके विपरीत नाद-ब्रह्म, शब्द की शक्ति को विज्ञान सम्मत विधि से बेध करने की क्षमता रखती है। कब किन कम्पनों का—कणों की बौछार व अंतर्ग्रही प्रभावों का कैसे जीव जगत—वनस्पति समुदाय एवं वातावरण समुच्चय पर प्रभाव पड़ेगा, इसके लिए खगोल गणित के सूत्रों को ऋषियों ने आज से काफी पूर्व ही जान लिया था। इसी आधार पर दृश्य गणित पंचांग बनाया जाता था।

कालान्तर में ज्योतिर्विद्या क्रमशः विलुप्त होती चली गई और उसके स्थान पर भ्रान्तियों अन्ध विश्वासों ने जड़ जमा ली। इतने पर भी उसकी गरिमा और उपयोगिता अपने स्थान पर यथावत है। ऐसी मान्यता है कि यह विज्ञान की सबसे प्राचीन शाखा है। इस विषय पर भारत ही नहीं चीन तथा यूरोप के विभिन्न देशों में प्रमाणिक पुरातन साहित्य उपलब्ध है जो ज्योतिष विद्या पर प्रकाश डालता है। वृहत्तर भारत के प्रसिद्ध ज्योतिर्विदों में श्रीधर, बाराह मिहिर, आर्य भट्ट भास्कराचार्य आदि के नाम और उनकी लिखी पुस्तकें आज भी कितने ही देशों में चर्चा और शोध के विषय बने हुए हैं।

ज्योतिष विज्ञान का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि इसे सभी विज्ञानों का अधिष्ठाता माना जा सकता है। इसकी आदर्श परिभाषा के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि वह एक ऐसा विज्ञान है जो खगोलीय पार्थिव व माननीय घटनाओं से सम्बन्ध जोड़ता तथा ब्रह्माण्ड और मनुष्य के बीच अन्तः सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करता है। यह आकाश गंगाओं के संसार और जीवित कोशिकाओं के संसार को एक दूसरे से जोड़ने का प्रयत्न करता है।

संस्कृत का ‘ज्योतिष’ शब्द इसके वास्तविक स्वरूप की व्याख्या करता है। ज्योतिष का अर्थ होता है- प्रकाश या ज्योतिष विज्ञान। प्रकाश का स्वभाव है विकिरण या प्रसरण। अस्तु ज्योतिष विज्ञान को विकिरण विज्ञान माना जा सकता है। हजारों वर्ष पूर्व आर्ष ऋषियों को इस विषय की गहन जानकारी थी। उन्हें विभिन्न प्रकार के पार्थिव क्रिया-कलापों के आधार पर नक्षत्रों की गतियों व तारों के सापेक्ष स्थानों के बीच आपसी संबंध का ज्ञान था। फलतः समय समय पर वे भवितव्य की महत्वपूर्ण घटनाओं के सम्बन्ध में गणनाओं के आधार पर भविष्यवाणी भी किया करते थे। हजारों वर्ष बाद भी कितने ही पुरातन ग्रन्थों में वर्णित उनके कथन समय पर सही उतरते देखे गये हैं। ये ज्योतिष विज्ञान की प्रामाणिकता का ही बोध कराते हैं।

विज्ञान की दूसरे ग्रहों में छलांग लगाने और टोह लेने का सिलसिला जब से आरम्भ हुआ है तब से यह भी अनुभव किया जा रहा है कि ज्योतिष विज्ञान का नये सिरे से अध्ययन किया जाय। चिकित्सा एवं मनोजगत यह सत्य एक मत से स्वीकार किया जाने लगा है कि घटती-बढ़ती कलाओं का मानव शरीर, स्वास्थ्य और मनःस्थिति पर असाधारण प्रभाव पड़ता है। जीवधारियों में पूर्णिमा के दिन सर्वाधिक व्यग्रता और विक्षोभ देखा जाता है। पागलपन के दौरे अधिक पड़ते हैं। अपराध भी इन्हीं दिनों अधिक होते हैं।

भू-गर्भ एवं खगोल शास्त्रियों के निष्कर्षों के अनुसार अमावस्या और पूर्णिमा के दिन भूकम्प अधिक आते हैं। सूर्य में धब्बों की वृद्धि होने से प्रकृति प्रकोप बढ़ते हैं। इन्फ्लुएंजा और दिल के दौरे जैसी बीमारियां अधिक होती है।

‘जॉन ग्रिविन’ जैसे खगोल शास्त्रियों का कहना है कि वायुमंडलीय आवेश का आयनीकरण सूर्य की लपटों से सम्बन्धित है। वायु से धनात्मक एवं ऋणात्मक आयनीकरण का स्वास्थ्य और मनोकायिक क्रियाओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सन् 1971 में ‘अमेरिका इन्स्टीट्यूट ऑफ मेडिकल क्लाइमेटोलाजी’ संस्थानों ने अपने शोध के उपरान्त यह निष्कर्ष निकाला कि वायुमंडल में विद्यमान विद्युतीय आवेश हमारे अनुभवों,विचारों और व्यवहारों को प्रभावित करते हैं। वायुमण्डल के ये आवेश भी सूर्य की लपटों द्वारा नियंत्रित होते हैं।

आये दिन भूकम्पों, ज्वालामुखियों के फटने से भारी क्षति उठानी पड़ती है विपुल धनशक्ति और जनशक्ति नष्ट होती है और मनुष्य असहाय, असमर्थ बना मूक रूप से अपनी बर्बादी पर आंसू बहाता रहता है। मानवी पुरुषार्थ और विज्ञान के समर्थ साधन भी उनसे अपनी सुरक्षा नहीं कर पाते। अन्तर्ग्रही असन्तुलनों के दुष्परिणाम ही इस प्रकार के प्रकृति प्रकोपों के रूप में प्रस्तुत होता है। ज्योतिष विज्ञान की यदि ठीक तरह जानकारी होती तो समय के पूर्व ही मौसम में हुए हेर-फेर के अनुरूप सुरक्षा व्यवस्था बनाने की तरह आवश्यक कदम उठाया जा सकता है। किन्तु अभी भी यह महत्वपूर्ण विद्या अंधकार के गर्त में पड़ी है।

विश्व के मूर्धन्य भौतिक विज्ञानी अब इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि ज्योतिष विज्ञान के क्षेत्र में गहन शोध की आवश्यकता है। इससे कितने ही अविज्ञात सूत्रों का रहस्योद्घाटन होगा। प्रसिद्ध नाभिकीय भौतिकविद् डा. रुडाल्फ तोमास्कोक ने इस तथ्य को हृदय स्वीकार किया है। इन्होंने एक बार प्रख्यात भारतीय भौतिक शास्त्री डा. वी.वी. रमन एवं नार्लीकर से कहा ‘‘यह विचित्र बात है कि बयासी प्रतिशत से भी अधिक मामलों में भयंकर भूकंपों के दौरान जब पृथ्वी डोलती है तो ‘यूरेनस ग्रह’ याम्योत्तर (मेरीडियन) के ठीक ऊपर होता है यह एक ऐसा रहस्य है जिसकी आपको गम्भीरता से खोज-बीन करनी चाहिए। यह एक स्मरणीय तथ्य है कि श्रीरमन व मार्लीकर दोनों ही विश्व स्तर पर कॉस्मॉलाजी व एस्ट्रानामी सम्बन्धी अपने सिद्धान्तों के लिये ख्याति प्राप्त विद्वान हैं।

पश्चिमी देशों के वैज्ञानिकों में ज्योतिष विज्ञान के विषय में इन दिनों अभिरुचि जगी है। कितने ही देशों में इस दिशा में प्रयास भी आरम्भ हो गये हैं। ‘आइन्स्टीन’ अट्टालिका वेधशाला, ग्रिनविच की सरकारी वेधशाला, सरकारी वेधशाला केप टाऊन (दक्षिण अफ्रीका), माउन्ट विल्सन वेधशाला—यू.एस.ए., रूस का जाईस ज्योतिष संस्थान एरफुर्ट (प. जर्मनी) एस्ट्रानोमी शोध संस्थान, हारवर्ड वेधशाला, डोमिनियन एस्ट्रो फिजिकल इन्स्टीट्यूट, रायल ऑब्जर बेटरी एडिन वर्ग, बावेल्स वर्ग आब्जर बेटरी प. बर्लिन आदि में ग्रहों की स्थिति एवं गति और उनमें होने वाले परिवर्तनों के सम्बन्ध में व्यापक स्तर पर खोज-बीन चल रही है। ये आरंभिक चरण हैं। दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष अभी भी अछूता है—अन्तर्ग्रही प्रभावों के अन्वेषण का। जिसकी उपेक्षा अब तक होती रही है।

कार्ल जुंग जैसे मनोवैज्ञानिक का कहना है कि ‘‘ज्योतिष विज्ञान में कितनी ही महत्वपूर्ण सम्भावनाएं विद्यमान हैं अब तक इस विज्ञान की उपेक्षा हुई। फलतः आधुनिक सभ्यता ने खोया अधिक पाया कम है। वस्तुतः एक प्राचीन किन्तु उपयोगी विद्या की अवहेलना से उससे मिलने वाले लाभों से हम वंचित रह गये हैं।’’

नाद से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई, यह आध्यात्म विज्ञान की मान्यता है। जिस बिग बैंग से सृष्टि के जन्म होने की चर्चा एस्ट्रो फिजीसिस्ट करते हैं, वे ओंकार अथवा नाद का ही एक रूप है। आद्य शक्ति की शब्द ब्रह्म परक उस शक्ति सामर्थ्य का उद्घाटन बड़े विशद रूप में आर्ष ग्रन्थों में किया गया है। आज विज्ञान की उपलब्धियों के सन्दर्भ में, आधुनिक उपकरणों को पुरातन वेधशाला से समन्वित कर फिर उसी ज्योतिष विज्ञान का पुनर्जीवन सम्भव है जो ब्रह्माण्डीय जगत की प्रतिकूलताओं की पूर्व जानकारी देकर आत्म रक्षा की विधि व्यवस्था का मार्ग दर्शन करता था।

फलित ज्योतिष की मूढ़ मान्यताएं, भाग्यवाद, मुहूर्तवाद जैसे अन्ध−विश्वासों से जड़ जमा लेने के कारण भी विचारशील वर्ग द्वारा इस विज्ञान की उपेक्षा होती रही। ज्योतिष विज्ञान के प्रति अविश्वास और विरोध जो समय समय पर प्रकट होते हैं इसका एक मात्र कारण इस विद्या के संबंध में फैली हुई भ्रान्तियां भी हैं। आज भी कितने ही तथाकथित ज्योतिषी इस विद्या की आड़ में भ्रम एवं भय फैलाते, शोषण करते तथा जन सामान्य में अश्रद्धा उत्पन्न करते हैं। वे ज्योतिष विज्ञान के वास्तविक स्वरूप से स्वयं तो अपरिचित होते ही हैं। साथ ही अंध विश्वासों को भी बढ़ावा देते हैं।

प्रचलित भ्रान्तियों का निवारण और ज्योतिष विद्या का वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत किया जा सके तो यह आज भी उतना ही उपयोगी हो सकता है जितना कि प्राचीन काल में था। विज्ञान की अन्यान्य शाखाओं की भांति ही यह मानव जाति की प्रगति में सहायक हो सकता है। आवश्यकता इतनी भर है कि इस दिशा में अभिरुचि जगे और खोज के लिए सुव्यवस्थित प्रयास चलें। विश्व के विभिन्न देशों में इस सम्बन्ध में छुटपुट प्रयास चल भी पड़े हैं। भारत में भी कर्नाटक विश्व विद्यालय ने ज्योतिष विज्ञान को अपने पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा कोर्स में सम्मिलित कर विधिवत् अध्ययन की व्यवस्था बनायी है। यह प्रसन्नता की बात है। अन्य स्थानों पर भी इस तरह के प्रयत्न चलने चाहिए। वस्तुतः ज्ञान की अन्यान्य विद्याओं की तुलना में ज्योतिष विज्ञान की महत्ता कम नहीं, अधिक ही आंकी जानी चाहिए। इससे प्राप्त होने वाली जानकारियां समस्त मनुष्य जाति के लिए विशेष रूप से सहायक सिद्ध हो सकती है।

आज विज्ञान के पास अद्भुत जानकारियां हैं, बेजोड़ राडार टेलिस्कोप आदि यन्त्र हैं, जिनके सहयोग से ज्योतिष विज्ञान के क्षेत्र में मूल्यवान खोजें की जा सकती हैं। आवश्यकता मात्र इतनी भर है कि जड़ संसार की खोज में उलझा विज्ञान अदृश्य जगत की ओर भी अपने कदम बढ़ाये। प्राचीन ज्योतिष विज्ञान के अगणित सूत्र संकेत उसे मार्गदर्शन करने में समर्थ हैं। इस महान विधा का पुनरुद्धार किया जा सके तो अदृश्य जगत से सम्पर्क साधने-सहयोग पाने तथा परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। यह एक ऐसी उपलब्धि होगी, जिस पर वैज्ञानिक गर्व कर सकते हैं। मारक आयुधों के निर्माण में संलग्न प्रतिभाओं को अब मनीषी की भूमिका निभाते हुए पुरातन काल के ऋषिगणों की तरह ही ज्योतिष विज्ञान की इस फलदायी शोध में निरत होकर अपनी बौद्धिक प्रखरता का सार्थकता का प्रमाण देना चाहिए।

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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