शिक्षा के बाजारीकरण का काला इतिहास : Yogesh Mishra

भारत को आज़ादी मिलने के बाद उच्च शिक्षा की रूपरेखा तय करने के लिए 1948 में यूनिवर्सिटी एजुकेशन कमीशन ! सर्वपल्ली राधा कृष्णन की अध्यक्षयता में बना ! एक वर्ष के बाद इसने अपनी रिपोर्ट पेश की ! हालाँकि इस पर टाटा-बिरला प्लान का प्रभाव साफ़ देखा जा सकता था ! जिसमें उच्च शिक्षा के संचालन के लिए स्वायत्त संस्था के निर्माण की सिफारिश की गयी थी ! इसी के आधार पर 1956 में यू.जी.सी की स्थपना की गयी जिसके मातहत उच्च शिक्षण संस्थान को अनुदान देना और इसके अतिरिक्त शिक्षकों की बहाली ! व अन्य आधारभूत चीजों का कार्यान्वयन देखना था !

1950-1960 का समय वह दौर था जब उच्च शिक्षा में आबादी का बहुत छोटा हिस्सा ही पहुँच पाता था ! भारत का बुर्जुआ वर्ग अभी इतना मज़बूत भी नहीं हुआ था जो अपने दम पर शिक्षण संस्थान खोल पाता पर साथ ही साथ नेहरू के पब्लिक सेक्टर समाजवाद को भी पनपने के लिए कुशल पेशेवरों की आवश्यकता थी !

अत: परिणाम स्वरूप इस दौरान उच्च शिक्षा पूरी तरह से सरकार के हवाले रही ! कई नये विश्वविद्यालय व आई.आई.टी. जैसे संस्थान खोले गये ! 1947 में जब केवल 20 विश्वविद्यालय थे जो 1970 के दशक के अन्त तक बढ़कर 100 के करीब हो गये ! हालाँकि उस वक़्त भी कुछ चुनिन्दा संस्थानों को छोड़कर ज्यादातर शिक्षण संस्थानों की हालत बहुत अच्छी नहीं थी ! उच्च शिक्षा में आने वाले छात्रों की संख्या बढ़ी जरूर पर यह संख्या कुल आबादी के अनुपात में अभी कम ही थी !

एक बार पुन: शिक्षा में किये गये कार्यों का अवलोकन करने के लिए 1964 में डी.एस. कोठारी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग गठित हुआ ! जिसे कोठारी कमीशन के नाम से भी जाना जाता है ! इस आयोग का कार्य भारत में शिक्षा के हरेक पहलू का निरीक्षण करना था और इसमें सुधार के लिए सिफारिशें देना था ! 1966 मे इसने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी ! जिसमें शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च करने ! पहले से खुले संस्थानों की दशा सुधारने जैसी सिफारिशें की गयी थीं ! इस रिपोर्ट की कई सिफारिशें लागू भी की गयीं परन्तु शिक्षा पर खर्च को लेकर तत्कालीन इन्दिरा सरकार मौन ही रही !

1991 में जब उदारीकरण व निजीकरण की नीतियाँ लागू की गयीं तो इसका असर उच्च शिक्षा पर भी पड़ा ! अन्य क्षेत्रों में निवेश की सम्भावना खुलने के साथ-साथ भारत का बुर्जुआ वर्ग अब यह चाहने लगा था कि उच्च शिक्षा को भी ‘प्रॉफिट मेकिंग इण्टरप्राइज़’ में बदला जाए ! सो ! इसकी तैयारियाँ भी शुरू होने लगीं ! 1993 में जस्टिस पुनिया और डी.स्वामीनाथन की अध्यक्षता में दो अलग-अलग कमेटियाँ बनी !

अगले वर्ष ही 1994 में इन्होने रिपोर्ट यू.जी.सी. को सौंपी जिनमे प्रमुख सिफारिशें थी फ़ीस वृद्धि ! स्ववित्त पोषित कोर्स को शुरू करना ! स्कॉलरशिप के बदले स्टूडेण्ट लोन की शुरुआत करना आदि ! 1995 में राज्य सभा में प्राइवेट यूनिवर्सिटी बिल भी लाया गया परन्तु निजी क्षेत्र के दबाव के कारण पास नहीं हो सका ! यह बिल उनकी इच्छा अनुरूप नहीं था !

उन पर कई बंदिशे लगाता था ! 1997 में वित्त मंत्रालय ने एक दस्तावेज जारी किया जिसमें पहली बार उच्च शिक्षा को ‘नॉन-मेरिट गुड’ की श्रेणी में रखा गया ! अब अधिकारिक रूप से शिक्षा खरीदने बेचने वाला एक माल थी ! शिक्षा की मूल परिभाषा ही बदल दी गयी ! अब विद्यार्थी ग्राहक थे और शिक्षण संस्थान सेवा प्रदाता था !

हद तो तब हुई जब वर्ष 2000 में शिक्षा में निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए नीति तैयार करने के लिए मुकेश अम्बानी व कुमारमंगलम बिड़ला की सदस्यता वाली एक समिति ने सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी ! इसके बाद तो देश भर में निजी विश्वविद्यालयों की बाढ़ सी आ गयी ! रोजगार परक कोर्स जैसे इंजीनियरिंग व मेडिकल के लिए कॉलेज धड़ल्ले से खोले गये ! चूँकि 2010 तक कई क्षेत्रों में मुनाफे की दर सिकुड़ने लगी थी इसलिए भारत को कॉर्पोरेट वर्ग के लिए यह आवश्यक था कि वह शिक्षा क्षेत्र में प्रवेश करे ! यही कारण था कि अज़ीम प्रेमजी ! गोयनका और अब मुकेश अम्बानी जैसे बड़े कॉर्पोरेट भी इस खेल में उतरे !

भारत में उच्च शिक्षा के बाजारीकरण के प्रयास वैसे तो पिछले दो दशकों से जारी है ! जिसका पहला चक्र यू.पी.ए-1 के शासन काल में तब पूरा हुआ जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2005 में दोहा में शिक्षा को डब्लूटीओ-गेट्स समझौते के अन्तर्गत लाने के लिए वार्ता पर सहमति दी थी ! इस फैसले की परिणति तब हुई जब वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने दिसम्बर 2017 में नैरोबी में इस समझौते पर दस्तखत किये ! यानी अब भारत का शिक्षा बाज़ार देशी-विदेशी दोनों किस्म की पूँजी के लिए खुला हुआ है !

इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार द्वारा ऐसे कई फैसले लिए गये जिससे उच्च शिक्षा के प्रति उनके रवैये को स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है ! वित्तीय स्वायत्तता देने के नाम पर 62 शिक्षण संस्थानों के निजीकरण की साजिश रची गयी ! इसके अलावा उच्च शिक्षा के यूजीसी को दिए जाने वाले बजट में कटौती ! वैज्ञानिक शोधों के लिए सीएसआईआर को दिये जाने वाले बजट में कटौती की गयी ! इसके दुष्परिणाम भी सामने आये ! फण्ड की कमी के कारण कुछ शोध परियोजनाएँ बन्द भी करनी पड़ी ! लेकिन मौजूदा सरकार इतने पर भी नहीं रुकी है !

अब पिछले दिनों केंद्र सरकार ने यह घोषणा की कि यू.जी.सी. (यूनिवर्सिटी ग्राण्ट कमीशन) को खत्म कर उच्च शिक्षा की मॉनिटरिंग के लिए एक नयी संस्था एच.एसी.आई. (हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ़ इंडिया ) की स्थापना कर रही है ! संसद में इस बारे में जल्द ही कानून बनेगा !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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