शैव जीवन शैली में काम और क्रोध को एक ऊर्जा माना गया है जबकि वैष्णव जीवन शैली में काम और क्रोध को एक विकार माना गया है और काम को लेकर सारी गलती यही से शुरू हुई !
अपने को योग्य और पवित्र सिद्ध करने के लिए गुरुकुलों के आडंबरी गुरुओं ने अपने को कामवासना रहित होने की घोषणा आम समाज में करनी शुरू की और उनके देखा देखी समाज के अन्य प्रबुद्ध वर्ग ने भी अपने को कामवासना से मुक्त होने की घोषणा का प्रयास शुरू कर दिया !
और इस तरह समाज काम की प्राकृतिक ऊर्जा को प्रयोग करने की जगह उसको दबाने में लग गया ! जिससे समाज में बलात्कार, हत्या, अपहरण जैसे अनैतिक अपराध होने लगे !
जबकि सृष्टि सञ्चालन के लिये काम जीवन की एक अनिवार्य प्रक्रिया है ! यह दमन से नहीं आत्म चिंतन और ध्यान के गहरे अनुभव से जाएगी ! यह किसी कसम, व्रत, नियम पूजा पाठ कर्मकाण्ड से नहीं जायेगी !
इसे यदि आप हठ से छोड़ना चाहोगे तो कभी न छोड़ पाओगे बल्कि और जकड़ते चले जाओगे ! इसलिए पहली तो बात यह है कि इसे हठ पूर्वक छोड़ने की अवधारणा छोड़ दो ! जो ईश्वरीय प्रक्रिया है वह ईश्वर की कृपा के बिना नहीं जा सकती है !
इसे छोड़ने की जल्दी ही तुम्हारे इसकी तरफ आकर्षित होने का कारण है ! इसे छोड़ने की जल्दी न करो ! कहीं ऐसा न हो कि इसे छोड़ने की जल्दी में तुम अपराधी बन जाओ !
काम कोई पाप नहीं है ! अगर पाप होता तो तुम्हारे आदर्श और नैतिक माता पिता के कारण तुम न होते ! पाप होता तो कोई ऋषि-मुनि, मनीषी चिन्तक विचारक धर्म ग्रन्थ पूजा पाठ अनुष्ठान साधना तप आदि कुछ न होता !
राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, कबीर, गुरु नानक, फरीद, रहीम मीरा आदि कोई भी पैदा न होता ! क्योंकि यह सृष्टि ही मैथुनिक है, इसलिये काम के बिना किसी महा पुरुष की उत्पत्ति संभव नहीं है !
काम ही तो जीवन का स्रोत है। उससे ही लड़ोगे तो सृष्टि का सर्वनाश कर बैठोगे ! आत्मघाती हो जाओगे ! ईश्वरीय व्यवस्था विरोधी हो जाओगे ! इसलिये काम से लड़ो मत बल्कि इस ऊर्जा को समझो और इसका सदुपयोग करो ! तभी आप ईश्वरीय व्यवस्था के सञ्चालन में सहायक हो सकते हो !!