शास्त्रों का अति अध्ययन व्यक्ति को मानसिक रोगी बना सकता है : Yogesh Mishra

भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में स्वयं अर्जुन को उपदेश देते हुये कहा है कि

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया !
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: !! अध्याय 4, श्लोक 34

ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्‌ प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे !

अर्थात भगवान के कहने का तात्पर्य यह है कि ज्ञान मात्र शास्त्रों का अध्ययन करके नहीं प्राप्त किया जा सकता है ! ज्ञान तो मात्र तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास ही है ! अर्थात जो व्यक्ति शास्त्रों का अत्यधिक अध्ययन कर के अपने को ज्ञानी समझता है ! वह व्यक्ति दो मानसिक रोगों से ग्रसित हो जाता है !

नंबर 1- उसे यह भ्रम पूर्ण अहंकार हो जाता है कि उसने इतने प्रकार के शास्त्रों का अध्ययन कर लिया है ! अतः वह ज्ञानी हो गया है ! इसलिये वह तत्व ज्ञानियों द्वारा दिये गये विचारों पर अहंकारवश चिंतन करना बंद कर देता है ! जबकि तत्वज्ञान के सिद्धांतों को जिसने समझ लिया है वही ईश्वर के सिद्धांतों को समझ सकता है ! शास्त्र तो मात्र ईश्वर के सिद्धांतों को समझने का एक माध्यम है !

नंबर 2- शास्त्र का अनुभव विहीन ज्ञान सदैव से एक निरर्थक मानसिक बोझ है ! जिसे व्यक्ति अपनी बुद्धि में लेकर अहंकार से भरा हुआ, पृथ्वी पर दर-दर की ठोकरें खाता फिरता है ! और अपने अनुभव विहीन ज्ञान से शास्त्र सम्मत चर्चा करके कुछ अल्प ज्ञानी लोगों को अपना शिष्य बना कर एक निरर्थक फ़ौज खड़ी कर लेता है ! जो मुर्ख शिष्यों की फ़ौज ही भविष्य में उसके लिये एक समस्या बन जाती है !

इसी को दूसरे शब्दों में इस तरह भी समझाया जा सकता है कि शास्त्र मात्र वह कसौटी है ! जिस पर घिसकर सुनार अर्थात व्यक्ति यह देखता है कि उसका तत्वज्ञान अर्थात सोना कितना अभी शुद्ध हुआ है लेकिन जिस कसौटी पर घिसकर सोने की शुद्धता देखी जाती है ! वह कसौटी स्वयं कभी भी सोने की नहीं बन सकती है ! चाहे उस पर कितने भी टन का सोना रगड़ रगड़ के देखा गया हो !

ठीक इसी तरह तत्व ज्ञानी की दिशा और दशा में कितना विकास हुआ है ! इसका परीक्षण शास्त्रों में वर्णित सिद्धांतों के आधार पर किया जा सकता है लेकिन इसका तात्पर्य यह कभी नहीं है कि शास्त्रों में वर्णित सिद्धांत ही तत्वज्ञान हैं !

अगर शास्त्रों में वर्णित सिद्धांत ही तत्वज्ञान होता तो इस पृथ्वी पर अभी तक न जाने कितने ही शास्त्रों के अध्ययेता महापंडित बिना गुरु के ही मोक्ष को प्राप्त हो चुके होते !

अर्थात जिस तरह मार्ग में लगा हुआ मार्ग दिशा सूचक हमें लक्ष्य की दिशा और दूरी तो बतला सकता है ! लेकिन वह हमें कभी भी लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकता है ! चाहे आप उस मार्ग सूचक की कितनी भी आराधना, पूजा, उपासना या उससे विनती या प्रेम कर लें !

ठीक इसी तरह शास्त्र हमारे आध्यात्मिक ऊर्जा के स्तर और तत्वज्ञान के मार्ग को तो बतला सकता है ! लेकिन मात्र शास्त्रों का अनुभव विहीन अध्ययन हमें कभी भी तत्व ज्ञानी नहीं बना सकता है ! अत: शास्त्र मात्र एक दिशा सूचक से अधिक और कुछ नहीं है !

लेकिन नवोदित गुरु विहीन शास्त्रों का अध्ययन करके जो लोग ज्ञानी होने के भ्रम में जी रहे हैं ! वह बस सिर्फ अपना मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य खराब कर रहे हैं ! इससे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं ! ऐसे लोग खुद तो भ्रमित होते ही हैं और शास्त्रों के कुछ श्लोक या दृष्टांत का उदाहरण देकर समाज को भी भ्रमित और अकर्मण्य बना देते हैं ! जो आजकल समाज के कथा वाचक शास्त्रों के ज्ञाता कर रहे हैं !

एक विषय यह भी विचार करने का है कि वर्तमान में जिन शास्त्रों को आधार बनाकर यह नवोदित ज्ञानी जन समाज को दिशा दे रहे हैं ! उन ज्ञानी जनों के पास क्या कोई ऐसा प्रमाण नहीं है जिससे वह यह सिद्ध कर सके कि जिस शास्त्र का व अध्ययन कर ज्ञान बाँट रहे हैं और अपने को ज्ञानी और दूसरे को मुर्ख बतला रहे हैं ! वह शास्त्र अपने आप में एक प्रमाणिक ग्रंथ है ! उसमें कोई मिलावट या काल के प्रवाह में कोई विकृति नहीं है !

जैसे छोटी कक्षाओं में पढ़ने वाला छात्र आ से आम और ब से बस पढ़ता है ! लेकिन यह ज्ञान बस आरंभिक कक्षा में ही शोभा देता है ! व्यवहारिक समाज में इसका कोई यथार्थ उपयोग नहीं है ! अगर इसी आरंभिक ज्ञान को ही पढ़कर व्यक्ति अपने को परम ज्ञानी समझने लगे ! तो वह जीवन भर बौद्धिक शिशु से अधिक और कुछ नहीं बन पायेगा !

अगर शास्त्रों के अध्ययन मात्र से व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त हो रहा होता तो राजा दशरथ अपने पुत्रों को पढ़ाने के लिये वशिष्ठ जैसे तत्व ज्ञानी गुरु के सानिध्य में उनके गुरुकुल न भेजते ! बल्कि पुत्रों से प्रेम बस वह अपने महल को ही किसी कोने में शास्त्र संग्रह करवा कर एक पुस्तकालय का निर्माण करवा देते !

अगर शास्त्रों से ही ज्ञान प्राप्त होता है तो कबीरदास, संत शिरोमणि रविदास, तुलसीदास, सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद दास, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास, मदनमोहन, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, ध्रुवदास चैतन्य महाप्रभु जैसे परम तत्व ज्ञानियों ने कौन से शास्त्रों का अध्ययन कर के तत्व ज्ञान को उपलब्ध हुये थे !

और आज भी कितने पांडुलिपियों या पूर्व के ग्रंथों पर शोध करने वाले विद्वान् तत्व ज्ञानी हो रहे हैं या मोक्ष को प्राप्त कर रहे हैं !

इसीलिये शास्त्रों के नवोदित अध्ययन कर्ताओं की मानसिक दुर्दशा को देखकर महान तत्व ज्ञानी संत कबीर दास जी ने कहा है कि

“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय !
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय !!”

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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