रामलीला की अभिनय परंपरा के प्रतिष्ठापक गोस्वामी तुलसीदास हैं, इन्होंने हिन्दुओं को जोड़ने के लिये हिंदी में जन मनोरंजनकारी नाटकों का अभाव पाकर राम लीला का श्रीगणेश किया था । इन्हीं की प्रेरणा से पहले काशी फिर अयोध्या के तुलसी घाट पर प्रथम बार रामलीला शुरू हुई थी ।
महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म सम्वत्- 1568 वि० शुक्ल सप्तमी अर्थात सन् 1511 ई० में राजापुर, चित्रकूट – उत्तर प्रदेश हुआ था। तुलसीदास ने सांसारिक बन्धन से विरक्त होकर वैराग्य धारण कर राम धुन में लीन, धार्मिक, तीर्थस्थलों का भ्रमण करने निकल पडे। पूजा पाठ, ध्यान – धर्म तथा अराधना में लीन राममय होकर भ्रमण करते हुए सन् 1571 में अयोध्या पहुंच गये। वहां के संतों द्वारा कही गई राम कथा का तुलसीदास के जीवन में गहरा प्रभाव पड़ा ! किन्तु अयोध्या के संतों ने इन्हें पूर्व में कृष्ण भक्त होने के कारण अयोध्या में टिकने नहीं दिया !
तब तुलसीदास जी के ज्ञान से प्रभावित होकर अयोध्या के महासन्त ने उन्हें रामकथा लिखने की प्रेरणा दी और महासन्त की प्रेरणा के अनुसार तुलसीदास जी काशी पहुंच कर अस्सीघाट पर रहने लगे और रामचरितमानस का लेखन आरम्भ कर दिया । सन 1574 के मदु मास की रामनवमी को श्री रामचरित मानस की रचना आरम्भ की | इस महान काव्य की रचना मे 2 वर्ष 7 महीने 26 दिन मे लिख कर समाप्त हुआ |
काशी के पण्डितों को जब यह बात पता चली तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बनाकर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे। इनकी शिकायत अकबर के दरबार में की गई तब अकबर के सैनिकों ने तुलसीदास को गिरफ्तार करवा लिया ! जब उन्हें अकबर के सामने पेश किया गया तब अकबर ने परीक्षा लेने के लिये तुलसीदास को कैद में डाल दिया ! तभी दिल्ली पर बंदरों ने हमला कर दिया ! जिससे भयभीत हो कर अकबर ने तुलसीदास को आजाद कर दिया और तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहाँ रखवा दी।
इसके बाद उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति से एक दूसरी प्रति लिखी। अब तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस का प्रचार दिनों-दिन बढ़ने लगा। तब मुग़ल सत्ता के विरुद्ध हिन्दुओं को संगठित करने के लिये सन्त तुलसीदास जी दिव्य उपस्करों ( मुकुट, धनुष – बाण, खडाऊं, कमण्डल) को अपने साथ लेकर, अपने कुछ शिष्यों के साथ नाव में बैठकर, तत्कालीन काशी नरेश से मिलने रामनगर गये। काशी नरेश जी सन्त तुलसीदास जी से मिलकर प्रसन्न व श्रध्दा से भावविभोर हो गये। अपने सिंहासन से उठकर तुलसीदास जी का सम्मान किया तथा रामलीला करवाने का संकल्प किया। इस तरह रामनगर बनारस में रामलीला की शुरुआत काशी नरेश ने की थी !
सन् 1581 ई में सर्वप्रथम अस्सीघाट पर नाटक के रूप में सन्त तुलसीदास जी ने रामचरित मानस के रूप में रामलीला का विमोचन किया। उसके बाद काशी नरेश ने रामनगर में रामलीला करवाने के लिये वृहद क्षेत्र में लंका, चित्रकूट, अरण्यम् वन की रूपरेखा बडे मंच पर अंकित करवा कर रामलीला की भव्य प्रस्तुती करवाई। प्रतिवर्ष संशोधन के साथ रामलीला होने लगी। रामलीला 22 दिनों में पूरी होती है। रामलीला का अंतिम दिन क्वार (आश्विन) माह में दशहरा का दिन होता है। तभी से इस दिन रावण का पुतला जलाया जाता है। जिसे बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना है।
सन् 1623 ई० में महाकवि सन्त तुलसीदास जी ब्रह्मलीन हो गये। तुलसीदास जी की स्मृति में काशी नरेश ने रामनगर को राममय करके विश्व का श्रेष्ठतम रामलीला स्थल बना दिया है। जहाँ आज भी रामनगर की रामलीला विश्वभर में प्रसिध्द है। आज भी वह दिव्य उपस्कर ( मुकुट, धनुष – बाण, खडाऊं, कमण्डल) महाराज काशी के संरक्षण में प्राचीन बृहस्पति मंदिर में सुरक्षित हैं। वर्ष में सिर्फ एक बार भरत मिलाप के दिन प्रभु राम के मुकुट, धनुष – बाण, खडाऊं, कमण्डल प्रयोग में लाये जाते हैं। तभी भरत मिलाप अद्वीतिय मना जाता है। इस रामलीला को देखने के लिये देश विदेश के पर्यटक रामनगर वाराणासी आते हैं।
जिसे बाद में पुनः 1783 में रामनगर में रामलीला की शुरुआत काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने की थी ! जिस पर 1834 के एक अंग्रेज अधिकारी जेम्स प्रिंसेस ने इंग्लैंड रिपोर्ट भेजी कि काशी बनारस के रामनगर की रामलीला काशी नरेश के सामने होती है । इसकी समाप्ति रावण के पुतले के दहन के साथ होती है । धीरे-धीरे रामलीला का विस्तार पूरे विश्व में हो गया !
रामलीला एक ऐतिहासिक नाट्य है ! इसके आधार पर राम रावण के ऐतिहासिक नाट्य के तत्वों की विवेचना के आधार पर किसी भी तिथि का निर्धारण किया जाना अतिशयोक्ति है ! इस संदर्भ में मेरे द्वारा लिखे गये अनेकों लेख मेरी आईडी और वेबसाइट पर मौजूद हैं जिससे आप सत्य को जान सकते हैं !