ओंकार ध्यान का वर्णन ´छान्दोग्य उपनिषद्´ में किया गया है। यह एक विशाल उपनिषद् है। ´छान्दोग्य उपनिषद्´ को 8 भागों में बांटा गया है। पहले भाग में ´ओंकार´ का ध्यानोपासना के भिन्न-भिन्न रूप में वर्णन किया गया है। वैदिक साहित्य में ´ओंकार´ का वर्णन इस प्रकार किया है कि ´ओंकार´ के ध्यान को ही जीवन का अंतिम लक्ष्य माना गया है। इसके अनुसार मानव जीवन में ´ओंकार´ ध्यान के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य होना चाहिए। ´ऊँ´ का महत्व का वर्णन उपनिषद् में मिलता है। इस का वर्णन करते हुए कहा गया है कि ´ऊँ´ का जप (पढ़ना) तथा ´ऊँ´ गान रसों से उत्पन्न सुख या रस ही परम रस है। ´ऊँ´ का ध्यान करने से मन को शांति मिलती है।
ओंकार ध्यान के अभ्यास की विभिन्न स्थितियां-
पहली स्थिति-
- इसके अभ्यास के लिए सिद्धासन या पद्मासन या सुखासन में बैठ जाएं। कमर, गर्दन और पीठ को सीधा करके रखें। आंखों को बन्द कर ले और दोनों हाथों से अंजुली मुद्रा बनाकर नाभि के पास रखें। इसके बाद ´ऊँ´ मंत्र का मधुर स्वर में बिना रुके जप करें। ओंकार ध्यान में ´ऊँ´ का जप करते समय मन के साथ शरीर का अधिक प्रयोग करने से शरीर पूर्णरूप से ओंकार ध्वनि में लीन हो जाता है।
- ध्यान रखें कि ´ऊँ´ का जप करते समय अपनी पूर्ण शक्ति को ओंकार के जप में ही लगाना चाहिए। ´ऊँ´ को पढ़ने की क्रिया लयबद्ध एवं शांत भाव से करना चाहिए।
- इस तरह ओंकार का जप करने से शरीर और मन में अदृश्य रूप से एक अनुपम कम्पन होने लगता है, शरीर में उत्पन्न होने वाली यह कम्पन ही ओंकार ध्वनि की लहरें होती हैं। ´ऊँ´ से उत्पन्न होने वाली ध्वनि तरंग ही शरीर के चारों तरफ फैलने लगती है, जो शून्यता के भाव से अद्भुत रूप से ध्वनित होते हुए बाहरी वातावरण से टकराकर वापस आती है। इससे आस-पास का वातावरण शांत होता है तथा शरीर आनन्द का अनुभव करता है।
- ´ऊँ´ का जप लयबद्ध रूप से बिना रुकावट के करना चाहिए। ओंकार जप लगातार करना चाहिए जैसे- ऊँऊँऊँऊँऊँऊँ………। ´ऊँ´ जप के बीच में कोई भी खाली जगह नहीं बननी चाहिए। इससे मन में अन्य भावनाएं उत्पन्न हो सकती है। इस तरह ओंकार ध्यान करने से उत्पन्न ध्वनि के कारण ध्यान वाले स्थान ´ऊँ´ मय हो जाता है और पुन: वही ध्वनि चारों तरफ से टकराकर वापस आकर सुनाई देने लगती है। इस ध्वनि तरंग को सुनकर रोम-रोम प्रसन्न और पुलकित होने लगता है, जिससे शरीर स्वास्थ्य एवं शांत होता है। इससे बहुत सी शारीरिक समताएं अपने आप समाप्त हो जाती है, क्योंकि इस प्रक्रिया से अन्नमयकोश एवं प्राणमयकोश दोनों प्रभावित होते हैं। इनकी शुद्धता पर ही शरीर का बाहरी तथा भीतरी स्वास्थ्य निर्भर है। इस ´ऊँ´ कार ध्यान के अभ्यास से ही सूक्ष्म शरीर का पूर्ण ज्ञान सम्भव है। ´ऊँ´ कार के जप से शरीर ´ऊँ´ रूपी जल स्नान में मग्न (लीन) होकर एक अलौकिक शांति, पवित्रता एवं शीतलता का अनुभव करता है।
- उपनिषदों के अनुसार तत्व और प्राण (जीवन) द्वारा शरीर की उत्पत्ति हुई है। अत: शरीर ध्वनि का ही अंश है। इस तरह ´ऊँ´ का जप प्रतिदिन 15 मिनट तक जोर-जोर से करना चाहिए। इससे पूरा शरीर, मन और वातावरण ´ऊँ´ मय हो जाता है।
दूसरी स्थिति-
- पहली स्थिति में ´ऊँ´ का जप करने के बाद दूसरी स्थिति में ´ऊँ´ का जप करें। इसमें ´ऊँ´ का जप मन में किया जाता है। इसके लिए आसन में रहते हुए होंठों को बन्द कर लें और जीभ को तालू से लगाकर रखें। इस स्थिति में मुख, कण्ठ एवं जीभ का उपयोग नहीं किया जाता। इस तरह की शारीरिक स्थिति बनाने के बाद ´ऊँ´ का जप मन ही मन जोर-जोर से करें। मन में बोलने व सुनने की गति पहली वाले स्थिति के समान ही लयबद्ध रखनी चाहिए। इस तरह ´ऊँ´ का जप करते समय ढीलापन या रुकावट नहीं आनी चाहिए। इस ध्यान क्रिया में ओंकार जप से उत्पन्न ध्वनि शरीर के अन्दर ही गूंजती रहती है तथा इसमें सांस लेकर रुकने की भी कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। इस क्रिया को बिना रुके लगातार करते रहें
- ´ऊँ´ मंत्र से उत्पन्न ध्वनि को जप के द्वारा शरीर के अन्दर इस तरह भर दें कि सिर से पैर तक ´ऊँ´ ध्वनि से उत्पन्न कम्पन अपने-आप ´ऊँ´ मंत्र को दोहराने लगें। इस तरह मन ही मन ´ऊँ´ मंत्र का जप एकांत में बैठ कर जितनी देर तक सम्भव हो उतनी देर तक अभ्यास करें। ´ऊँ´ जप के बीच में कोई खाली स्थान न छोड़े, क्योंकि इससे मन में अन्य विचार उत्पन्न हो सकता है। इसलिए ´ऊँ´ मंत्र का जप लगातार करना चाहिए। इस तरह ओंकार ध्वनि का ध्यान करने से धारणा शक्ति बढ़ती है और समाधि के लिए अत्यन्त लाभकारी होती है।
- मन ही मन में ´ऊँ´ का जप करते समय जीभ का उपयोग नहीं करना चाहिए। इस क्रिया में शरीर को स्थिर व मन को शांत रखना चाहिए तथा ´ऊँ´ ध्वनि से निकलने वाली तरंगों का अनुभव करना चाहिए। इसमे ध्वनि तरंग आंतरिक शरीर व मन से टकराकर अन्दर ही अन्दर गूंजती रहती है। पहली स्थिति में ´ऊँ´ जप से शरीर शुद्ध होकर मन ही मन जप के योग्य बनता है और मन ही मन ´ऊँ´ जप करके मन शुद्ध व निर्मल बनता है, जिससे बुरे मानसिक विचार दूर होते हैं। इस ध्यान से शरीर और मन दोनों ही ´ऊँ´ मय हो जाते हैं। इससे मन शांत होकर ईश्वर शक्ति का ज्ञान प्राप्त करता है और व्यक्ति समाधि की प्राप्ति करता है।
- इस क्रिया का अभ्यास प्रतिदिन 15 मिनट तक करना चाहिए। इससे मनोमयकोश एवं विज्ञानमयकोश शुद्ध होता है। उत्तरोत्तर कोश के शुद्ध हो जाने पर आनन्दमयकोश द्वारा परमानन्द की प्राप्ति होने लगती है। अन्नमयकोश एवं प्राणमयकोश रोगों को शरीर में प्रवेश नहीं करने देते जिससे स्थूल शरीर स्वस्थ और सजग बना रहता है। मनोमयकोश एवं विज्ञानमयकोश की शुद्धता के फल स्वरूप सूक्ष्म शरीर का बोध होता है। इस से सूक्ष्म शरीर में किसी भी प्रकार का दोष प्रवेश नहीं कर पाता। उपनिषदों के अनुसार दोष सूक्ष्म रूप ही रोग का कारण है। ´ऊँ´ मंत्र का मानसिक जप व ध्यान करने से शरीर के 5 कोशों का ज्ञान होता है जिससे तुरीय अवस्था में चेतना तत्व का ज्ञान होता है। यह चेतना तत्व शरीर का मूल स्रोत है। जब ´ऊँ´ कार ध्यान का अभ्यास करते हुए व्यक्ति को कारण, स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर का ज्ञान प्राप्त होने के बाद व्यक्ति ज्योति में लीन हो जाता है तो इसी अवस्था विशेष को निर्बीज समाधि कहते हैं।
तीसरी स्थिति-
- इस क्रिया के अभ्यास में मन के द्वारा ´ऊँ´ का जप करना बन्द कर दिया जाता है और केवल आंतरिक भाव से ´ऊँ´ के जप से उत्पन्न ध्वनि का अनुभव किया जाता है। इस क्रिया में ऐसा अनुभव करें कि ´ऊँ´ ध्वनि का उच्चारण आंतरिक शरीर में अपने आप हो रहा है। इस तरह मन में विचार करते हुए ध्यान से आपको अनुभव होने लगेगा की शरीर के अन्दर ´ऊँ´ की सूक्ष्म ध्वनि गूंज रही है। इस तरह का अनुभव होने लगेगा की सभी जगह ´ऊँ ऊँ´ का जप हो रहा है। ´ऊँ´ ही ´ऊँ´ की ध्वनि सुनाई दे रही है। उसी ध्वनि पर अपने ध्यान को लगाएं।
- ´ओंकार ध्वनि तरंग ध्यान का जप में पहले ध्याता, ध्यान और ध्येत तीनों मौजूद होते हैं। परन्तु पहली स्थिति में ´ओंकार जप के द्वारा ध्याता शरीर से हट जाता है। फिर दूसरी स्थिति में ध्याता को मानसिक जप द्वारा मन से भी हटाया जाता है। इन दोनों प्रक्रिया में ध्याता पूर्ण रूप से गायब (लोप) हो जाता है। केवल ध्यान और ध्येय बचा रह जाता है। तीसरी स्थिति में ´ऊँ´ का जप करने से केवल ध्येय ही बचा रह जाता है जो ´ऊँ´ कार ध्यान साधना विधि का फल है। इसलिए ध्यान के लिए ´ऊँ´ से अदभुत कोई मंत्र नहीं है।
- इस ´ऊँ´ ध्वनि तरंग ध्यान की विधि में पहली 2 अवस्थाओं में ´ऊँ´ को बोलकर और मन के द्वारा जप किया जाता है। परन्तु तीसरी स्थिति में आंतरिक भाव से ´ऊँ´ मंत्र का केवल अपने अन्दर अनुभव किया जाता है। पहली 2 स्थितियों तक कर्ताभाव से हम ध्यान करते हैं क्योंकि शरीर और मन कर्तव्य का हिस्सा है। परन्तु तीसरी स्थिति में आंतरिक भाव से मंत्र को सुनते हैं। इससे सिर्फ शुद्ध चेतन्य बचती है। वही सर्वस्थित ´ओंकार ब्रह्म है। यही ´ओंकार ध्यान साधना विधि है।
- इस तरह प्रतिदिन ´ओंकार ध्यान साधना का अभ्यास करें। इस आसन में बैठकर पहले ´ऊँ´ मंत्र को पढ़कर अभ्यास करें, दूसरे में मन ही मन ´ऊँ´ को पढ़ें और तीसरी अवस्था में केवल अपने भाव के द्वारा उस ध्वनि तरंग को अनुभव करें। अभ्यास के बाद अपने आप को ध्यानावस्था से मुक्त करके बाहरी संसार का अनुभव करें, शरीर तथा स्थान का ध्यान करें। अपने कामों का ध्यान करें। इसके बाद ईश्वरकृत प्राकृतिक दृश्यों की कल्पना करें- ´´मेरे चारों ओर हरे-भरे पेड़-पौधे और फूलों-फलों का पेड़ है। मै जिस स्थान पर ध्यान का अभ्यास कर रहा हूं वहां के स्वच्छ व शांत वातारण में स्वच्छ पानी के बहाव वाली नदी बह रही है तथा एक सुन्दर पर्वत है जिसके बीच बैठकर मैं यह ध्यान का अभ्यास कर रहा हूं।
- इस तरह के प्राकृतिक दृश्य का अनुभव करने से शरीर स्वस्थ और मन प्रसन्न होता है। ऐसा अनुभव करने के बाद दोनों हथेलियों को आपस में रगड़कर चेहरे पर तथा आंखों पर लगाएं। इसके बाद आंखों को हथेलियों से ढक दें और फिर खोलें। आसन त्याग करने के बाद 5 से 10 मिनट तक पीठ के बल लेटकर श्वास क्रिया करें। श्वसन क्रिया के बाद कुछ क्षण तक मौन रहना चाहिए और फिर अपने दैनिक कार्यों पर लौट जाना चाहिए।
- इस प्रकार ओंकार ध्यान साधना का अभ्यास एक महीने तक फल की इच्छा के बिना करना चाहिए। इस ध्यान साधना का अभ्यास करना पहले कठिन होता है परन्तु प्रतिदिन अभ्यास करने से यह आसानी से होने लगता है। इस क्रिया में सफलता प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मन को अपने वश में करके एकाग्र करना चाहिए। ध्यान क्रिया में जल्दबाजी करने से लाभ के स्थान पर हानि होने की सम्भावना रहती है और मन में इससे ऐसी भावना पैदा होना ही इस की सफलता में सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए इस का अभ्यास को धैर्य व साहस के साथ करना चाहिए।
- यदि ´ऊँ´ ध्यान साधना विधि का अभ्यास फल की इच्छा के बिना किया जाएं तो कुछ महीने में ही सफलता प्राप्त हो सकती है। इस क्रिया में ओंकार मंत्र को अंतर आत्मा में इस तरह चिंतन किया जाता है कि कुछ समय में ही व्यक्ति को दिव्य शक्ति व ज्ञान प्राप्त होने लगता है।
- भारतीय आस्तिक दर्शनों में ओंकार मंत्र को बीज कहा गया हैं और जिस तरह बीज को जमीन से निकाल लेने पर पेड़ नहीं बनते, उसी तरह ओंकार मंत्रों को अंतर आत्मा में पूरी श्रद्धा के साथ धारण न करने पर सफलता प्राप्त नहीं होती। परन्तु अंतर मन के साथ इस साधना को करने से अच्छा परिणाम मिलता है।
- उसी ब्रह्म को उपनिषदों में नेति कहा गया है। जब ध्यान में मन लीन होने लगता है तो संसार स्वत्नवत हो जाता है और ध्यान करने वाला व्यक्ति साक्षी हो जाता है। इस तरह ध्यान करने से मनुष्य को ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त होता है और उसे अनुभव होता है कि यह संसार एक स्टेज है और जीवन एक अभिनय। यह ज्ञान ही जीवन मुक्ति है और कैवल्य या परम पद है।
- महर्षि पतांजलि ने कहा है कि जब मनुष्य अपने स्वरूप को जान लेता है तो वह सुख की कामना नहीं करता और न ही दु:ख से बचाव की ही कामना करता है। क्योंकि इस ध्यान साधना से उसे ज्ञान हो जाता है कि सुख और दु:ख केवल बाहरी साधना है। ओंकार साधना से बाहरी सम्बंध टूट जाते है और मन अंतर आत्मा में स्थित और स्थिर हो जाता है। काम, क्रोध, लोभ व मोह का नाश होकर अन्दर केवल आनन्द ही आनन्द रहता है। वह ईश्वर के चिंतन में लीन होने लगता है। ´ऊँ´ मंत्र उसके श्वास-प्रश्वास में बहने लगता है। ´अणेरणीयान महतो महीयान´ अर्थात ओंकार ध्यान साधना के द्वारा व्यक्ति संसार के सभी पदार्थों में ईश्वर का अनुभव करने लगता है।उसे यह ज्ञान हो जाता है कि संसार के सभी वस्तुओं में ब्रह्म मौजूद है। इस कैवल्य-अवस्था में आरूढ़ व्यक्ति में संसारिक वस्तुओं के प्रति इच्छाओं का नाश हो जाता है तथा मन में किसी तरह की कोई इच्छा नहीं रह जाती। इस तरह मन की इच्छा का नाश होने के कारण व्यक्ति संसार के जीवन, मरण के चक्र से मुक्त होकर हमेशा के लिए ईश्वर के पास चला जाता है। इसके बाद आत्मा का न कभी जन्म होता है और न ही कभी मृत्यु। जीवन और मन की क्रिया तब तक होती रहती है, जब तक इच्छाओं का नाश नहीं हो जाता। मनुष्य अपने जीवन में जिस वस्तु या सुख आदि की कामना करता है उसका उसी इच्छाओं को लेकर नए रूप में जन्म लेता है। ओंकार ध्यान साधना से सम्पूर्ण मायावी आकांक्षा रूपी बीज बन जाती है। ओंकार ध्यान साधना से भी सभी महत्वकांक्षाओं का नाश होकर केवल ईश्वर की इच्छा रह जाती है। तत्त्ववेता ऋषियों ने भी उपरोक्त जन्म मरण के कारणों को स्वकथन द्वारा पुष्ट किया है-
मृतिबीजं भवेज्जन्म जन्मबीजं तथा मृति:।
घटीयंत्रवदाश्रान्तो बम्भ्रमीत्य निशंनर:।।
अर्थात जन्म मृत्यु का बीज है और मृत्यु जन्म का बीज है। मनुष्य निरन्तर घड़ी की सुई की तरह बिना आराम किए बार-बार जन्म और मरण के चक्कर में घूमता रहता है। अत: ओंकार ध्यान साधना से मानव जीवन के उस चक्र से मुक्ति मिल जाती है।
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