अभी मैंने अघोर साधना पर कुछ दिन पहले एक लेख लिखा था ! कि “अघोर साधना से आत्म दर्शन कैसे करें !” उस लेख को पढ़कर मेरे वरिष्ठ मित्र का मुझे फोन आया और उन्होंने कहा कि मैं अघोर साधना करना चाहता हूं ! इसे कैसे किया जा सकता है और यह किस आयु में संभव है ! उनके प्रश्नों के उत्तर मैं इस लेख में आप सभी को प्रस्तुत कर रहा हूं !
अघोरी होने का तात्पर्य कही भी यह नहीं है कि शरीर में भभूत लपेट कर शमशान में रहने लगना या मल, मूत्र, बिष्ठा आदि खाने लगाना !
बल्कि अघोर होने की एकमात्र शर्त यही है कि व्यक्ति में संस्कारों के प्रभाव से जो कामना की उत्पत्ति होती है ! उससे मुक्त हो जाना ! अर्थात दूसरे शब्दों में कहा जाये कि व्यक्ति इतना सहज हो जाये कि उसके अंदर स्व पोषण के लिये भी कोई कामना न बचे और उसका पोषण प्रकृति की सहज अवस्था में स्वत: होने लगे ! यही अघोर साधना का मूल मंत्र है !
जब प्रकृति के साथ व्यक्ति का तादात्म इस स्तर तक जुड़ जाता है कि व्यक्ति का संपूर्ण समर्पण प्रकृति पर निर्भर हो जाता है ! तब प्रकृति ही व्यक्ति का पोषण करने लगती है ! पर वास्तव में होता यह है कि व्यक्तियों कि समाज की मर्यादायें या औपचारिकतायें सिखाने के नाम पर अनजाने में ही व्यक्ति के अंदर तरह-तरह की कामनायें विकसित की जाती हैं ! जैसे अच्छे वस्त्र, भोजन, सम्मान, सुन्दर भवन, पर्याप्त धन, वाहन आदि की कामना !
यह सब व्यक्ति को सामाजिक औपचारिकताओं के तहत प्राय: न चाहते हुये भी या अच्छा न लगते हुये भी बहुत से सामाजिक औपचारिकताओं या परिवार आदि के दबाव में स्वीकारना पड़ता है ! जैसे किसी व्यक्ति को किसी के साथ कैसे बोलना है ! कैसे बात करना है ! कैसे उसका सम्मान करना है या कैसे उससे सम्मान प्राप्त करना है ! कैसे सांसारिक संबंधों को निभाना है आदि आदि ! लेकिन जब व्यक्ति अघोर साधना में लग जाता है तो व्यक्तिगत स्तर पर व्यक्ति इन सभी औपचारिकताओं से परे चला जाता है !
जैसे हमारे यहां महावीर जैन को ले लीजिये तो उन्होंने कामनाओं का त्याग करते करते अपने को उस पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया ! जहां पर वस्त्र उनसे स्वत: छूट गये न कि उन्होंने वस्त्रों का त्याग कर दिया ! वस्त्र का स्वत: छूट जाना और वस्त्र का त्याग कर देना ! इन दोनों स्थितियों में अंतर है ! जब व्यक्ति के वस्त्र कामना के आभाव में स्वत: छूट जाते हैं तो उस स्थिति में व्यक्ति सहज होने की तरफ बढ़ चुका होता है और जब व्यक्ति हठ पूर्वक वस्त्रों को छोड़ देता है, तो वह त्याग नहीं त्याग का आडम्बर होता है !
ठीक इसी तरह अघोरी होने का तात्पर्य कहीं भी यह नहीं है कि मल, मूत्र, विष्ठा आदि खाने लगना अर्थात अखाद्य वस्तुओं का सेवन शुरू कर देना ! जो अघोरी इस तरह की कामना या प्रदर्शन करते हैं वह अघोर साधना को जानते ही नहीं हैं ! अघोर साधना का सीधा सा अर्थ भोजन में स्वाद को न ढूढ़ना ! अर्थात स्वाद विहीन भोजन करना !
इस अवस्था में व्यक्ति इतना सहज हो जाता है कि वहां पर उसे किसी भी वस्तु की आवश्यकता मात्र अपने को जीवित रखने के लिये होती है ! उसके स्वाद के लिये नहीं होती है अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति जब स्वाद के लिये भोजन करता है ! तो वह व्यक्ति अपने पूर्व के संचित संस्कारों के प्रभाव में भोजन करता है या मैं कमजोर या बीमार न हो जाऊं इसलिये भोजन करता है !
लेकिन जब व्यक्ति अघोर अवस्था को प्राप्त कर लेता है ! तो वह भय या स्वाद के लिये भोजन नहीं करता है बल्कि इस पंचतत्व से निर्मित शरीर को क्रियान्वित रखने के लिये भोजन करता है या फिर इस शरीर की ऊर्जा के स्रोत के रूप में उसे भोजन में जो भी सहज प्राप्त हो जाता है ! उसको सहज ही खा लेता है ! उसमें स्वाद है या नमक, मीठास आदि नहीं ठूंठता है ! इस साधना की पराकाष्ठा पर पहुंचे हुये साधक को संत अवधूत की अवस्था कहते हैं !
तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इंसान के विचार और वाणी के मध्य जितने भी दरवाजे हैं ! वह उन सभी को खोल देता है ! क्योंकि होता है यह है कि हम लोग सांसारिक औपचारिकताओं को सीखने के चक्कर में अपने विचार और वाणी के मध्य बहुत से कृतिम दरवाजे बना लेते हैं !
अर्थात मन में किसी गलत व्यक्ति के गलत कार्य को लेकर उसके गलत कार्य के विरोध करने का भाव पैदा होता है ! लेकिन सामाजिक औपचारिकता या उस व्यक्ति के प्रभाव के कारण हम उसके गलत कृतियों पर अपनी राय यह सोच कर व्यक्त नहीं करते हैं कि उस व्यक्ति को शायद बुरा लग जायेगा !
अर्थात हम अपने भाव और वाणी के मध्य अनेकों कृतिम दरवाजों का निर्माण कर लेते हैं ! जिससे हमारी वाणी किसी भी भाव को प्रकट करने के पहले उस पर अनेक द्रष्टिकोण से चिंतन मंथन करना शुरू कर देती है तब हम उस विषय पर अपना भाव प्रकट करते हैं !
जबकि अघोर अवस्था को प्राप्त व्यक्ति के मन में जो भाव पैदा होता है ! वह बिना किसी कामना या भय के उस भाव को उतने ही सहज रूप में अपनी वाणी से प्रकट कर देता है ! जैसे कि एक छोटा बच्चा अपनी बात को समाज के सामने रख देता है ! उसे अपनी बात रखते समय बिल्कुल भी यह भय नहीं होता कि मेरी बात किसी को अच्छी लगेगी या बुरी लगेगी !
क्योंकि जब भाव और वाणी के मध्य सांसारिक औपचारिकता के अनेकों दरवाजे हो जाते हैं और भाव उन दरवाजों के अंदर घुट कर रह जाता है ! तो वही व्यक्ति समाज के लिये बहुत बड़ी समस्या बन जाता है ! ऐसी स्थिति में समाज में गलत व्यक्ति का विरोध न होने के कारण समाज धीरे-धीरे विकृत हो जाता है क्योंकि कोई उस गलत व्यक्ति का विरोध नहीं करता है ! जो कि एक अघोरी ही कर सकता है !
संपत्ति से मोह भी व्यक्ति के अघोर अवस्था को प्राप्त करने में सबसे बड़ा बाधक है ! क्योंकि होता यह है कि व्यक्ति संपत्ति का निर्माण अपने जीवन और भविष्य को सुरक्षित रखने के दृष्टिकोण से करता है ! किंतु कुछ समय बाद व्यक्ति उस संपत्ति के मोह में इतना फंस जाता है कि उस संपत्ति के निर्माण और संग्रह का जो मूल उद्देश्य है कि व्यक्ति का जीवन सुरक्षित हो ! उससे हटकर व्यक्ति उस संपत्ति के मोह में अपने जीवन को ही खतरे में डाल देता है ! यही माया का प्रभाव है !
किन्तु जब व्यक्ति अघोर अवस्था को प्राप्त करता है ! तो व्यक्ति की निर्भरता प्रकृति पर इतनी अधिक हो जाती है कि व्यक्ति के मस्तिष्क से भविष्य की असुरक्षा का भय ही समाप्त हो जाता है ! और जब व्यक्ति को भविष्य की असुरक्षा का भय नहीं होगा ! तो व्यक्ति निर्वाह से अधिक संपत्ति का संग्रह नहीं करेगा ! और जब व्यक्ति निर्वाह से अधिक संपत्ति का संग्रह नहीं करेगा ! तो उस संपत्ति के संरक्षण और वृद्धि की कामना उसमें पैदा नहीं होगी ! और जब व्यक्ति में अपनी संपत्ति के संरक्षण और वृद्धि की कामना नहीं होगी ! तब उस व्यक्ति का संपूर्ण समर्पण संपत्ति की जगह ईश्वर के प्रति जागृत होगा ! अत: अघोर साधना करने वाला व्यक्ति ईश्वर में इतना समर्पित हो जाता है कि उसे अपने भविष्य की सुरक्षा के लिये किसी भी चल अचल संपत्ति की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती है ! इसी को वैष्णव जीवन शैली में ईश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण कहा गया है !
इसी तरह रोग और मृत्यु का भय व्यक्ति को हजारों तरह के बंधनों में बांध देता है ! जबकि हम सभी जानते हैं कि रोगों की उत्पत्ति हमारे दूषित आहार के संस्कार से पैदा होती है ! अर्थात यदि व्यक्ति के आहार का संस्कार दूषित भोजन करने का नहीं है तो प्राकृतिक रूप से व्यक्ति कभी रोगी हो ही नहीं सकता है ! आज हम जितने रोगों को झेल रहे हैं ! यह सारे रोग हमारी गलत दिनचर्या या दूषित आहार पद्धति के कारण हो रहे हैं !
जब व्यक्ति रोग मुक्त होकर पूर्ण स्वस्थ जीवन जियेगा तो उसे कभी भी अकाल मृत्यु का भय नहीं होगा ! अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति संस्कारों के प्रभाव में जो मात्र स्वाद के लिये दूषित आहार का सेवन करता है अघोर साधना की तैयारी के लिये व्यक्ति का उससे मुक्त होना परम आवश्यक है !
जब व्यक्ति का आहार और दैनिक दिनचर्या प्रकृति की सामान्य व्यवस्था के अनुकूल होगी ! तब व्यक्ति रोग मुक्त जीवन जीने के साथ-साथ अकाल मृत्यु के भय से भी मुक्त हो जायेगा ! यही महाकाल की सही साधना है !!
जब व्यक्ति उपरोक्त सभी पद्धतियों का पालन करके सरल, सहज और संस्कारों के प्रभाव में उत्पन्न कामनाओं से मुक्त होकर प्रकृति के साथ संपूर्ण तालमेल बैठाकर अपना जीवन यापन करने लगता है ! तब यही से अघोर साधना की शुरुआत होती है ! यह सारी प्रक्रिया व्यक्ति के अघोरी होने की नहीं है बल्कि अघोरी होने की प्रक्रिया शुरू करने के पूर्व की तैयारी है ! अर्थात मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि उपरोक्त सभी प्रक्रियाओं को व्यक्ति जब सहज अवस्था में स्वीकार कर लेता है ! तब व्यक्ति शरीर, मन और संस्कारों से अघोरी साधनाओं के लिये तैयार हो जाता है !
अघोर साधना की तैयारी के उपरांत व्यक्ति जब अपनी जीवनी ऊर्जा का संपर्क अघोर साधना द्वारा ब्रह्मांडीय ऊर्जा से कर लेता है ! तब इसके बाद ईश्वरीय ऊर्जा और व्यक्ति के संपर्कों से घटित चमत्कारों का क्रम शुरू होता है !
वैसे तो यह सब बहुत ही सरल और सहज प्रक्रिया है ! लेकिन इसके लिये एक तत्व ज्ञानी गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता समय-समय पर पड़ती रहती है ! जो गुरु व्यक्ति के अंदर कहां त्रुटि हो रही है ! उसको बतलाता है और साधना के दौरान जब व्यक्ति कहीं पर भ्रमित हो जाता है ! तो वह गुरु उस समय सही मार्ग की प्रेरणा देता है !
व्यक्ति यदि एक सही तत्व ज्ञानी गुरु की राय से साधना के पथ पर आगे बढ़ता है तो मेरा यह विश्वास है कि मात्र 3 वर्ष के अंदर ही वह ऐसी चमत्कारिक सिद्धियां प्राप्त कर लेता है ! जिससे व्यक्ति के बहुत से कार्य प्रकृति स्वत: करने लगती है ! इसके लिये व्यक्ति को कोई काम करने की आवश्यकता नहीं होती है बल्कि व्यक्ति का आरंभिक चिंतन मात्र ही व्यक्ति के उस कार्य को परिणाम देने के लिये पर्याप्त होता है ! तब उस अघोर साधक के लिये लोक या परलोक की कोई भी उपलब्धि शेष नहीं बचती है ! यही इस अघोर साधना का चमत्कार है !!!