भारतवर्ष की प्राचीन सनातन परम्परा का आदर्श तो विश्व में समाजवाद का सर्वोच्च कीर्तिमान स्थापित करता है ! व्यक्ति की उन्नति और समृद्धि को उसकी आर्थिक संपन्नता, दिखावटी भोगवादी जीवन शैली से नहीं मापा जाता ! एक स्वस्थ मानसिकता, स्वस्थ शरीर, सादा जीवन, सब से बांट कर जीना भारतीय आदर्श माना जाता था ! धनवान सरल तरीके से रहें ! गांधी जी इसे स्वेच्छा से स्वीकार की गई गऱीबी कहते थे ! यही भारतीय संस्कृति का आदर्श है !
भारतीय आदर्श सांस्कृतिक परम्परा के अनुसार एक व्यक्ति केवल अपने निकट परिवार के लोगों से ही नहीं, बल्कि पूरे समाज, सब जीव जन्तुओं और प्राकृतिक तत्वों के साथ एक जीवित संबंध के अनुभव से प्रेरित है ! पूंजीवाद की भोगवादी भव्य जीवनशैली, धन के अभद्र प्रदर्शन से समाज में ईष्र्या से अव्यवस्था और हिंसा को जन्म देते हैं ! अमीरों द्वारा खुद पर ही केवल अपने धन को खर्च करना पश्चिमी उपभोक्तावादी संस्कृति है !
भारतीय आदर्श “ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यं जगत” के अनुसार तो मनुष्य अपने को केवल धन का संरक्षक समझें और अपनी आर्थिक समृद्धि को समाज के साथ साझा ,बांट कर, दान वृत्ति से जीना चाहिये ! यही कारण है कि भारतीय समाज में प्राचीन काल से अपने धन को परमेश्वर की कृपा समझने की परम्परा रही है ! वेदों ने इसी भाव को समाज में विकसित करने पर जोर दिया है ! वेद के कई सूक्तों में इस प्रकार के निर्देश पाए जाते हैं ! ऋग्वेद के प्रथम अध्याय का पाँचवाँ सूक्त इस पर ही केंद्रित है ! यही सूक्त थोड़े परिवर्तन के साथ अथर्ववेद में भी आया है !
आओ, आप सब प्रशंसनीय गुणयुक्त कार्य करने में प्रवीण विद्वानों से मित्र भाव से सब मिल कर परस्पर स्नेहपूर्वक शिल्प विद्या को सिद्ध करने में एकत्रित हों ! वेदों के गुणों का उपदेश करें और सुनें कि जिससे वह अच्छी रीति से सिद्ध की हुई शिल्प विद्या सब को प्रकट हो जायें और उससे तुम सब लोग के सभी प्रकार के सुख प्राप्त हों ! ऋ. 1.5.1; अथर्व. 20.68.11
आकाश से लेकर पृथिवी तक के सब असंख्य पदार्थों के साधक अत्यंत उत्तम वरण करने योग्य सद्गुणों को रचने में समर्थ, परन्तु दुष्ट स्वभाव वाले जीवों के कर्मों के भोग के निमित्त और जीवमात्र को सुख दु:ख देने वाले पदार्थों के भौतिक गुणों का उपदेश करो ! और जो सब प्रकार की विद्या से प्राप्त होने योग्य पदार्थों के निमित्त कार्य हैं, उन को उक्त विद्याओं से सब के उपकार के लिए यथायोग्य युक्त करो ! ऋ. 1.5.2, अथर्व. 20.68.12
सब पदार्थ विद्याओं के ज्ञान के उपयोग से निश्चय ही सुख प्रदान करने के लिए उत्तम समृद्धि के धन अन्न और आवागमन के साधन प्राप्त होते हैं ! ऋ. 1.5.3, अथर्व. 20.69.1
भौतिक पदार्थों और उनकी प्रक्रियाओं के सम्भावित दुष्परिणामों के रोकथाम के लिए सुरक्षा के साधनों का प्रचार करो ! ऋ. 1.5.4 , अथर्व. 20.69.2
अनुसंधान के ज्ञान से उत्पन्न हो कर सुख समृद्धि के साधनों की नदियां बह चलती हैं ! ऋ. 1.5.5, अथर्व. 20.69.3
संसार के पदार्थों के सुख को ग्रहण करने ले लिए विद्या आदि उत्तम ज्ञान से प्रेरित हो कर श्रेष्ठ अत्युत्तम कर्म करने वाले पूज्य जनों का अनुसरण करो ! ऋ. 1.5.6, अथर्व. 20.69.4
जीवन को सुखदायी बनाने के लिए तुझमें उत्तम व्याख्यान से ज्ञान तथा प्रशिक्षण से अतितीक्ष्ण बुद्धि और कर्मठ प्रवृत्ति जागृत हो ! ऋ. 1.5.7 अथर्व. 20.69.5
उन्नति के लिए उत्तम ज्ञान और उपदेश की शिक्षा द्वारा तुम सैंकड़ों काम करने का यश प्राप्त करो ! ऋ. 1.5.8, अथर्व. 20.69.6
संसार का समस्त भौतिक ज्ञान प्राप्त करके प्रकृति की असंख्य उपलब्धियों को सबके साथ बांट कर ग्रहण करो ! ऋ. 1.5.9 , अथर्व. 20.69.7
राग, द्वेष, भेदभाव तथा स्वार्थ से प्रेरित हम अपनी वाणी और व्यवहार से किसी भी जीवधारी का शोषण और अहित न करें ! ऋ. 1.5.10, अथर्व. 20.69.8
भारतवर्ष में केवल 10 प्रतिशत ही श्रमिक ही संगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं ! लेकिन श्रमिक संघों के प्रभाव से इन मात्र 10 प्रतिशत श्रमिकों ने भारत वर्ष की आर्थिक नस पकड़ रखी है ! इन श्रमिक संघों के नेतृत्व में श्रमिकों के हितों की सुरक्षा के नाम पर श्रमिकों द्वारा हड़ताल, काम रोको, अनुशासनहीनता और हिंसा तोडफ़ोड़ का व्यवहार न्यायोचित बताया जाता है ! राजनीतिक दल भी अपने स्वार्थ के लिए श्रमिक संघों को हिंसा-तोडफ़ोड़ के लिए प्रेरित करते हैं !
हमें यह जान कर आश्चर्य हो सकता है कि सारी दुनिया में श्रमिक संगठनों का जन्मदाता अमेरिका का पूंजीवाद है ! पूंजीवाद में सर्वप्रथम सब उत्पादों कृषि,पशुपालन, उद्योगों का केंद्रीयकरण आरम्भ किया गया ! एडम स्मिथ अपनी पुस्तक वेल्थ ऑफ नेशन में एक फैक्ट्री का उदाहरण देते हैं जिसमें उत्पाद की प्रक्रिया को अनेक छोटी-छोटी प्रक्रियाओं में तोड़ दिया गया है ! प्रत्येक उत्पादक केवल अपने उत्पाद की प्रक्रिया के बारे में जानता है ! इस प्रकार फैक्ट्री मालिक उत्पाद पर अपना वर्चस्व बनाता है !
लेकिन कामगार के लिए इस प्रकार काम करना बहुत उबाऊ और तनावपूर्ण होता है ! वहां के इन्हीं उद्योगपतियों द्वारा अपने स्वार्थ में किए गए श्रमिकों के शोषण और दुव्र्यवहार की प्रतिक्रिया ने श्रमिक संघों को जन्म दिया ! हमारे देश के वामपंथी जो अपने को श्रमिकों का सर्वश्रेष्ठ हितैषी होने का दावा करते हैं, वे तो केवल अमेरिका की पूंजीवादी असमाजिक व्यवस्था से उत्पन्न परिस्थितियों के प्रतिक्रियावाद का ही भारतवर्ष की पुण्यभूमि में प्रसार कर रहे हैं, जो न देश के और न श्रमिकों के हित में है !