जानिये वैष्णवों ने शैवों का कैसे किया धर्मांतरण | Yogesh Mishra

“नैमिषारण्य” हुआ करता था “वैष्णव” धर्मांतरण का केन्द्र

कहते है नैमिषारण्य में भगवान विष्णु का चक्र गिरा था, तो पाताल तक चला गया और वही पानी निकलता रहता वहां पर ! इस गोलाकार कुऎं रूपी रचना के चारो तरफ़ भी बाउन्ड्री बाल बनाकर चक्र तीर्थ का निर्माण हुआ, जिसमें श्रद्धालु स्नान कर रहे थे और उन श्रद्धालुओं से अधिक वहां के पण्डे उसमें गोते लगा रहे थे ! पण्डे (पूजा इत्यादि कराने वाले) क्यों कि जनमानस द्वारा जो गुप्त दान के नाम पर पैसा, चांदी, स्वर्ण आदि को इस चक्र में प्रवाह किया जाता है ! वह पण्डे दिन भर पानी में तैर-तैर कर खोजते रहते है !

नैमिष और नीमसार यह एक ही नाम है उस जगह के जहां कभी आर्यों की सबसे बड़ी मिशनरी रही, उत्तर भारत में ऋषियों यानी वैष्णव धर्म-प्रचारकों का सबसे बड़ा गढ़ था । यहाँ वैष्णव धर्म-प्रचारकों की संख्या 88,000 के आस पास पुराणों में वर्णित है ! आप को बताऊं यह बिल्कुल वैसे ही जैसे अठारवीं सदी में योरोप और अमेरिका से आई ईसाई मिशनरियों ने भारत के जंगलों में रहने वाले लोगों के मध्य अपना धर्म-प्रचार किया और उन्हे ईसाई दीन की शिक्षा-दीक्षा दी, वैसे ही यहाँ आर्य लगभग 14 हज़ार पूर्व आकर इन नदियों के किनारे वनों में अपने धर्म-स्थलों की स्थापना कर जन-मानस पर अपना प्रभाव छोड़ने लगे !

और उस समय जो भारत का मौलिक धर्म “शैव” अर्थात भगवान शिव की आराधना पर आश्रित प्राकृतिक धर्म था ! शैव में पाशुपत, कालामुख, लकुलीश, लिंगायत, और शाक्त आदि उपासन समूह आते थे ! उस पर वैष्णव अर्थात नगरीय कृतिम जीवन पध्यति पर आधारित धर्म अपना प्रभाव जमाने लगा ! यह कार्य वैष्णव धर्माचार्य की देख रेख में होता था !

दरअसल ये धर्माचार्य आम मनुष्य के अतिरिक्त सर्वप्रथम राजा पर अपना प्रभाव छोड़ते थे ! राजा उनका अनुयायी हुआ नही कि जनता अपने आप उनसे अभिशक्त हो जाती थी !

यदि हम इतिहास में झांके को देखेगे तो पाएंगे कि धर्म का वाहक ऋषि जो गुरू होता था ! वह राजा और प्रजा का नियंता होता था ! तभी विश्वामित्र दशरथ के न चाहते हुये भी राम को अपने साथ तड़का वध के लिये ले गये थे और राम का विवाह दशरथ की आज्ञा लिये बिना ही सीता से निर्धारित करवा दी थी !

उस समय भी जो लोग जो शासक वैष्णव धर्म के प्रचारकों के आदेश पालन नहीं करते थे ! उन्हें विधर्मी, राक्षस, असुर आदि कहकर मृत्यु दंड दे दिया जाता था और उनके राज्यों व गावों को लूट लिया जाता था ! इसका सबसे बड़ा उदाहरण रावण था ! जिसने पूरे जीवन भर वैष्णव धर्म के धर्मांतरण का विरोध किया तो देवताओं ने एकजुट होकर रावण का समूल वंश नाश ही कर दिया !

धीरे-धीरे भारत में वैष्णो ने अपने देवताओं की स्थापना की उस समय के युग पुरुषों को जबरदस्ती वैष्णव धर्म का अवतार बता कर लोगों को वैष्णव धर्म मानने के लिए बाध्य किया और वैष्णव मन्दिर तथा वैष्णव तीर्थों का निर्माण किया ! जिन शैव उपासकों ने वैष्णव धर्म का अनुकरण पालन नहीं किया, उनका विनाश कर दिया गया !

यहां एक बात स्पष्ट करना चाहूंगा कि अतीत में धर्म के सहारे सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से जनता पर आधिपत्य करने की कोशिश में “धर्म” “कानून” की तरह कार्य करता था, जिसका पालन शासक और शासित दोनों को करना होता था और जो उसका पालन नहीं करता था ! उसे धर्माधिकारी दण्डित करते थे !

लोकतन्त्र और शिक्षा के प्रसार ने अब उस धार्मिक शासन को ध्वस्त तो कर दिया गया किन्तु जन-मानस के मस्तिष्क में वह धर्म और उसका डर अभी भी परंपरा के रूप में पीढी दर पीढी उसी तरह विद्यमान है !

अब न तो योग्य ऋषि हैं और न ही मुनि और सन्त इत्यादि बचे हैं लेकिन धर्म का अज्ञानत भय आज भी विद्यमान है !

धर्म के नाम पर बड़े बड़े आश्रम और तीर्थ, मन्दिर इत्यादि का का संचालन आज सिर्फ़ व्यक्तिगत महत्वांकाक्षाओं के लिये हो रहा है ! उसी का नतीजा है कि जन-कल्याण और शिक्षा के स्थान पर आज दान में आया धन कुंठित धर्माधिकारी के ऐश्वर्य और वासना की पूर्ति कर रहे हैं !

उस समय वैष्णव आर्य ग्रंथो के प्रचार प्रसार नाम पर बहुत से कलुषित विचारों वाले मूर्ख ऋषियों, मुनियों धर्माचार्यों ने शैव जीवन शैली पर आधारित लाखों पांडुलिपियों को हवन कुण्डों में जला कर नष्ट कर दिया ! और भोग वादी नगरीय संस्कृति का प्रचार प्रसार उसे श्रेष्ठ बतलाते हुये किया गया ! आज अन्ध-भक्त उन्ही देवताओं और महा-मानव की कथाये बड़ी भक्ति और श्रध्दा भाव से बाँचते रहते हैं !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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