भारतीय काल गणना की विकास यात्रा
प्रकृति की जिन निश्चित घटनाओं से मनुष्य का आरंभ से ही गहरा सरोकार रहा है वे हैं – 1. रात-दिन का चक्र, 2. चंद्र की घटती-बढ़ती कलाओं का चक्र, और 3. ऋतुओं का चक्र। इन तीन घटनाओं से काल की तीन प्राकृतिक कालावधियाँ क्रमशः दिन, माह और वर्ष सुनिश्चित होती है। इनमें दिन सबसे छोटी कालावधि है, इसलिए इसे काल की बुनियादी इकाई मान लिया गया है, महीने तथा वर्ष की कालावधियाँ दिन की इकाई में ही व्यक्त की जाती है। इसलिए कैलेंडर के निर्माण में निम्नलिखित तीन भिन्न कालावधियों पर विचार करना पड़ता हैः
सौर वर्ष = 365.2422 सौर दिन, चंद्र मास = 29.53059 सौर दिन, सौर वर्ष में चंद्र मास = 12.36827
कैलेंडर की प्रमुख समस्या है, उपर्युक्त तीनों संबंधों के बीच समन्वय स्थापित करना। इसलिए एक व्यावहारिक कैलेंडर के निर्माण में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना ज़रूरी हैः (1) वर्ष और महीने में दिनों की संख्या पूर्णाकों में होनी चाहिए, (2) वर्षारंभ और मासारंभ के दिन सुनिश्चित होने चाहिए, (3) एक सुनिर्धारित संवत होना चाहिए, और (4) चंद्रमासों को रखना हो, तो सौर वर्ष के साथ उनका संबंध बिठाना चाहिए।
प्राचीन काल से अब तक विभिन्न देशों में सैंकड़ों कैलेंडर प्रयुक्त हुए हैं, मगर उपर्युक्त सभी बातों का सही और संतोषजनक समाधान अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। यह भी स्मरण रखना ज़रूरी है कि प्राचीन काल में दिन, माह और वर्ष की अवधियों की अधूरी जानकारी होने के कारण कैलेंडरों का वास्तविक घटनाओं से मेल नहीं बैठता था। इसलिए समय-समय पर उनमें ज्योतिषियों या शासकों या धर्माचार्यों द्वारा सुधार किए जाते रहे हैं।
कृषिकर्म के लिए ऋतुओं की जानकारी अत्यावश्यक है। किसानों को वर्ष भर में होने वाले ऋतु-परिवर्तनों की जानकारी देने के लिए कैलेंडर की ज़रूरत पड़ती है। निश्चित तिथियों पर धार्मिक पर्व व उत्सव मनाने पड़ते हैं, ये प्रायः कृषिकर्म से ही जुड़े होते हैं, परंतु इनके लिए और भी अधिक शुद्ध कैलेंडर (पंचांग) की आवश्यकता होती है। मगर एक व्यावहारिक कैलेंडर तैयार करना किसान के बस की बात नहीं है, क्यों कि इसके लिए लंबी अवधि तक लेखा-जोखा रखना आवश्यक होता है। यह काम कृषिकर्म से मुक्त पुरोहित-ज्योतिषी ही कर सकते थे। वर्ष 365.2422 दिनों का और चंद्र मास 29.53059 दिनों का स्वीकार किया गया था। अंतिम मान वास्तविक मान के लगभग बराबर है।
भारतीय कैलेंडर
सिंधु लिपि अभी तक पढ़ी नहीं गई है, इसलिए सिंधु सभ्यता (2500-1800 ई.पू.) के कैलेंडर के बारे में यकीन के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता। सिंधु सभ्यता मुख्यतया कृषिकर्म पर आधारित रही है, इसलिए बहुत संभव है कि वहाँ एक मिला जुला सौर-चंद्र कैलेंडर प्रचलित रहा हो।
ऋग्वेद के कतिपय उल्लेखों से जानकारी मिलती है कि उस समय (लगभग 1500 ई.पू.) सौर-चंद्र कैलेंडर का प्रचलन था और अधिमास जोड़ने की व्यवस्था थी। परंतु 12 मासों के नामों का ऋग्वेद में उल्लेख नहीं है, न ही यह पता चलता है कि अधिमास को किस तरह जोड़ा जाता था। दिनों को नक्षत्रों से व्यक्त किया जाता था, यानी रात्रि को चंद्र जिस नक्षत्र में दिखाई देता था उसी के नाम से वह दिन जाना जाता था। बाद में तिथियाँ भारतीय पंचांग की मूलाधार बन गईं, किंतु ऋग्वेद में ‘तिथि’ का कहीं कोई ज़िक्र नहीं है। ऋग्वैदिक काल में वर्ष संभवतः 366 दिनों का माना गया था। चंद्र वर्ष (354 दिन) में 12 दिन जोड़ कर 366 दिनों का सौर वर्ष बनाया गया होगा। ऋग्वेद में ‘वर्ष’ शब्द नहीं है, मगर शरद, हेमंत आदि शब्दों का काफ़ी प्रयोग हुआ है।
यजुर्वेद में 12 महीनों के और 27 नक्षत्रों तथा उनके देवताओं के नाम दिए गए हैं। साथ ही, सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन गमन के भी उल्लेख है। यजुर्वेद में बारह महीनों के नाम मधु, माधव, शुक्र, नभ, तपस आदि है, जो सायन वर्ष के मास जान पड़ते हैं। हमारे देश में चैत्र, वैशाख आदि चंद्र मास बाद में अस्तित्व में आए। यजुर्वेद में ही पहली बार ‘तिथि’ शब्द देखने को मिलता है, परंतु वहाँ इसका अर्थ आज से भिन्न रहा है। बाद के सिद्धांत ग्रंथों में ‘तिथि’ की परिभाषा हैः जब चंद्र औऱ सूर्य के बीच 12 डिग्री का अंतर बढ़ जाता है, तो एक तिथि पूर्ण होती है।
हमारे देश में ज्योतिष का जो सबसे प्राचीन स्वतंत्र ग्रंथ उपलब्ध हुआ है वह है, महात्मा लगध का ‘वेदांग-ज्योतिष’। इस ग्रंथ में 5 वर्ष का युग चुना गया है और बताया गया हैः (1) एक युग में 1830 सावन दिन और 1860 तिथियाँ होती हैं, (2) युग में 62 चंद्र मास और 60 सौर मास होते हैं, (3) युग में 30 तिथियों का क्षय होता है, (4) युग में 76 नक्षत्र मास होते हैं, यानी एक युग में चंद्रमा 67×27 = 1809 नक्षत्रों के चक्कर लगाता है, और (5) जब चंद्र व सूर्य एक साथ धनिष्ठा नक्षत्र में रहते हैं, तब दक्षिण अयनांत (मकर संक्रांति) से वर्ष की शुरुआत होती है।
1830 सावन दिनों को 62 चंद्र मास से भाग देने पर पता चलता है कि वेदांग-ज्योतिष के अनुसार एक चंद्र मास में 29.516 दिन होते हैं (वास्तविक संख्या 29.531 दिन हैं) वर्ष 366 सावन दिनों का माना गया है। वेदांग-ज्योतिष में बताया गया है कि किन तिथियों का क्षय होता है। भारतीय पद्धति में तिथियाँ क्रमानुसार नहीं आतीं, अक्सर एक तिथि छूट जाती है। छूटी हुई तिथि को ही क्षय तिथि कहते हैं। जैसे, तृतीया के बाद अगली तिथि चतुर्थी न होकर पंचमी हो सकती है। तब कहा जाएगा कि चतुर्थी का क्षय हो गया। तिथियों के क्षय होने का कारण यह है कि एक चंद्र मास के लगभग 291/2 दिन होते हैं और तिथियाँ 30 होती हैं। इसलिए लगभग दो महीनों में औसतन एक तिथि का क्षय होता है।
ईसा पूर्व चौथी सदी से बेबीलोन (खल्दिया) और यूनानियों के साथ भारत के संबंध बढ़ते गए। तब से लेकर लगभग 400 ई. तक भारत में बेबीलोनी और यूनानी ज्योतिष की कई बातों को अपनाया गया। फलतः भारत में ज्योतिष के एक नए युग का आरंभ हुआ, जिसे ‘सिद्धांत युग’ कहा जाता है। यह युग लगभग 1200 ई तक चला। सिद्धांत युग का प्रथम महत्वपूर्ण ग्रंथ आर्यभेट (प्रथम) द्वारा रचित आर्यभटीय (499 ई.) है। उसके पहले रचे गए पाँच सिद्धांतों की रूपरेखा वराहमिहिर (ईसा की छठी सदी) ने अपने पंचसिद्धांतिका (505 ई.) ग्रंथ में प्रस्तुत की है।
वेदांग-ज्योतिष के बाद सिद्धांत युग के आरंभ तक भारतीय कैलेंडर की कैसी व्यवस्था रही है, इसके बारे में ठोस जानकारी नहीं मिलती। वेदांग-ज्योतिष में 12 राशियों और सात वारों का उल्लेख नहीं है, महाभारत और रामायण में भी नहीं है। दरअसल, महाभारत, रामायण और जैनों के सूर्य प्रज्ञप्ति जैसे ग्रंथों का कैलेंडर काफ़ी हद तक वेदांग-ज्योतिष के कैलेंडर से मिलता-जुलता रहा है। इन सब में युग 5 वर्षों का और वर्ष 366 दिनों का ही माना गया है। पता चलता है कि सम्राट अशोक के समय (लगभग 250 ई पू.) में अभी वेदांग-ज्योतिष का ही कैलेंडर प्रचलित था। अशोक के अभिलेखों में उसके शासन-वर्षों का उल्लेख है, न कि किसी संवत का। शुंगों और सातवाहनों ने भी किसी संवत का इस्तेमाल नहीं किया। मगर पश्चिमी एशिया में सेल्यूकी संवत (आरंभ 312 ई.पू. से) का प्रचलन था।
वेदांग-ज्योतिष का कैलेंडर सिद्धांत-ग्रंथों के कैलेंडर में किस तरह विकसित होता गया, इसकी कुछ जानकारी वराहमिहिर द्वारा वर्णित पाँच सिद्धांतों (सूर्य-सिद्धांत, पितामह-सिद्धांत, रोमक-सिद्धांत, पुलिश-सिद्धांत और वसिष्ठ सिद्धांत) में मिल जाती है। इनमें से कुछ में युग पाँच वर्षों का ही माना गया। मगर सिद्धांत ग्रंथों में युग अब लंबे होते गए। कलियुग के आरंभ (3102 ई. पू.) से गणनाएँ करने की परिपाटी चली। कलियुग के आरंभ से गणना की जाती है, तो तब से आज तक के दिनों की संख्या, जिसे ज्योतिष में ‘अहर्गण’ कहते हैं, बहुत ही बड़ी बात हो जाती है। महायुग 432000 वर्षों का और कल्प (ब्रह्मा का एक दिन) हमारे 15,77,91,78,28,000 दिनों के बराबर माना गया! गणना की कठिनाइयाँ स्पष्ट हैं। इसलिए मार्ग खोजा गयाः इष्ट समय के काफ़ी नज़दीक के समय का चुनाव कर के तभी से गणना की जाए। इस काम के लिए हमारे देश में बहुत सारे करण-ग्रंथ लिखे गए, जिनका पंचांग बनाने के लिए उपयोग होता रहा है।
वराहमिहिर ने जिस सूर्य-सिद्धांत की जानकारी दी है वह आज उपलब्ध नहीं है, मगर उसका संशोधित संस्करण उपलब्ध है। वस्तुतः पिछले क़रीब एक हज़ार वर्षों में यही संशोधित सूर्य-सिद्धांत हमारे देश में सबसे अधिक मान्य रहा है और देश के अधिकांश पंचांग इसी के अनुसार बनते रहे हैं। चूँकि चंद्र सौर कैलेंडर में सौर वर्ष के मान का विशेष महत्व है, इसलिए जानना उपयोगी होगा कि सिद्धांत काल में वर्षमान क्या रहे हैं-
वराहमिहिर का सूर्य-सिद्धांत = 365.25875 दिन
वर्तमान संशोधित सूर्य-सिद्धांत = 365.258756 दिन
वास्तविक सायन वर्ष = 365.242196 दिन
सूर्य सिद्धांत का वर्षमान वास्तविक सायन वर्षमान से 0.016560दिन अधिक हैं। चूँकि सूर्य-सिद्धांत के इस वर्षमान का परंपरागत पंचांग बनाने में आज भी इस्तेमाल होता है, इसलिए हर साल वर्ष का आरंभ 0.01656 दिन आगे बढ़ जाता है। इस तरह, पिछले 1400 वर्षों में वर्ष का आरंभ 23.2 दिन आगे बढ़ गया है। भारतीय कैलेंडर में संशोधन करना परमावश्यक हो गया है। भारतीय कैलेंडर को ‘पंचांग’ इसलिए कहा जाता है, क्यों कि इसमें मुख्यतया पाँच बातों की जानकारी रहती हैः (1) तिथि, जो दिनांक यानी तारीख का काम करती है, (2) वारः सोमवार, मंगलवार आदि सात वार, (3) नक्षत्र, जो बताता है कि चंद्रमा तारों के किस समूह में है, (4) योग, जो बताता है कि सूर्य और चंद्रमा के भोगांशों का योग क्या है, और (5) करण, जो तिथि का आधा होता है।
पंचांग की यह प्रणाली सिद्धांत युग में काफ़ी बाद में अस्तित्व में आई है। यह इसी से स्पष्ट है कि सात वार भारतीय मूल के नहीं हैं। वैदिक साहित्य, वेदांग ज्योतिष, रामायण और महाभारत में सात वारों का उल्लेख नहीं है। जिस भारतीय अभिलेख में पहली बार एक ‘वार’ का उल्लेख हुआ है वह बुधगुप्त के समय का एरण (मध्य प्रदेश) से प्राप्त 484 ई. का है वहाँ तिथि (आषाढ़ शुक्ल द्वादशी) और वार (सुरगुरु दिवस, यानी बृहस्पतिवार) दोनों का उल्लेख है। राशियों की तरह वार भी बेबीलोनी मूल के हैं।
ऐतिहासिक घटनाओं के तिथि-निर्धारण के लिए कैलेंडर में किसी एक संवत का आरंभ-बिंदु निश्चित करना होता है। अतीत या वर्तमान के सभी कैलेंडरों की शुरुआत किसी न किसी घटना – वास्तविक या काल्पनिक – से ही मानी गई हैं। ऐसी अधिकांश घटनाएँ मिथक, इतिहास अथवा धर्मकथा से संबंधित होती है। हमारे देश में मौर्य और सातवाहन काल में शासन-वर्षों का ही इस्तेमाल होता था। तिथि-निर्धारण के लिए संवतों का प्रयोग कुषाण और शक शासकों के समय से होने लगा है। शक, मालव, गुप्त, हर्ष आदि कई संवतों का संबंध मूलतः ऐतिहासिक घटनाओं से रहा है। कलियुग संवत, जिसका आरंभ 3102 ई.पू. से माना जाता है, हमारे ज्योतिषियों ने आंतर-गणनाएँ करके ईसा की आरंभिक सदियों में बनाया है
राष्ट्रीय पंचांग
इस राष्ट्रीय पंचांग का कुछ ही सरकारी क्षेत्रों में उपयोग होता है, रस्मी तौर पर। अब लौकिक जीवन में अधिकतर ग्रेगोरी कैलेंडर का ही इस्तेमाल होता है। ईसाई अथवा ग्रेगोरी भले ही लगभग सार्वभौमिक बन गया हो, मगर व्यावहारिक तौर पर इसमें अनेक त्रुटियाँ हैं। महीने के दिन 28 से 31 तक बदलते हैं, चौथाई वर्ष में 90 से 92 दिन होते हैं, और वर्ष के दो हिस्सों में 181 व 184 दिन होते हैं। महीनों में सप्ताह के दिन भी स्थिर नहीं रहते, महीने और वर्ष का आरंभ सप्ताह के किसी भी दिन से हो सकता है। इससे नागरिक और आर्थिक जीवन में बड़ी कठिनाइयाँ पैदा होती हैं। महीने में काम करने के दिनों की संख्या भी 24 से 27 तक बदलती रहती है। इससे सांख्यिकीय विश्लेषण और वित्तीय जमा-खर्च तैयार करने में बड़ी दिक्कतें होती हैं। मौजूदा ग्रेगोरी कैलेंडर में सुधार अत्यावश्यक है।