तीन बातें एकदम स्पष्ट हैं ! एक काल अविभाज्य है अर्थात सृष्टि की उत्पत्ति के प्रथम पल से लेकर सृष्टि के विलय के अंतिम पल तक काल अर्थात समय अविभाज्य है ! इसको तीन खंडों में अर्थात भूत, भविष्य और वर्तमान हम लोगों ने अपनी गणना की सुविधा के लिए बांट रखा है !
दूसरी बात यह भी एकदम स्पष्ट है कि ईश्वर ने मनुष्य को यह शक्ति दी है कि वह अपनी साधना द्वारा मानसिक तरंगों के माध्यम से काल यात्रा कर सकता है अर्थात भूत भविष्य में यदि चाहे तो वह मनुष्य काल यात्रा करके लाखों साल पूर्व और लाखों साल भविष्य की घटनाओं को ठीक उसी तरह देख सकता है जैसे वर्तमान को देख रहा हो ! ऐसे साधकों को सनातन शास्त्रों में त्रिकालदर्शी कहा गया है !
और तीसरी बात यह भी एकदम स्पष्ट है कि मनुष्य का शरीर और उस को संचालित करने वाली जीवनी ऊर्जा अर्थात आत्मा अलग अलग है ! कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य का शरीर पंच तत्वों से निर्मित मात्र एक भौतिक पिंड है ! जिसको जीवात्मा यंत्रवत अपने सांसारिक प्रयोजनों के लिए संचालित करती है ! अर्थात शरीर और जीवात्मा दोनों अलग-अलग हैं ! शरीर बनता और नष्ट होता रहता है किंतु जीवात्मा की यात्रा सतत कामनावान होकर मन, बुद्धि, संस्कार के साथ नये नये शरीरों में चलती रहती है !
अब आइये बतलाता हूं कि मानसिक समय यात्रा कैसे की जा सकती है ! व्यक्ति की जीवनी शक्ति का निवास उसकी नाभि में होता है ! नाभि से मस्तिष्क को मेरुदंड के माध्यम से जीवनी ऊर्जा प्राप्त होती है ! तब मस्तिष्क शरीर के विभिन्न अंगों को अपना कार्य करने के लिए तरंगों के रूप में निर्देश जारी करता है !
तब मानसिक तरंगों के निर्देश पर मनुष्य के शरीर के विभिन्न अंग हार्ट, लीवर, किडनी, फेफड़े, आतें, हाथ पांव की मांसपेशियां आदि अपना अपना कार्य करती हैं ! और जब मस्तिष्क की तरंगे यदि सही तरह से इन अंगों को प्राप्त नहीं होती हैं तो यह अंग धीरे-धीरे से सिथिल होने लगते हैं और कार्य करने में अक्षम हो जाते हैं ! इसी को बुढ़ापा कहा जाता है ! इसीलिए कहा गया है कि यदि जो व्यक्ति बहुत चिंतित रहता है उसके अंदर बुढ़ापे के लक्षण जल्दी ही प्रकट होने लगते हैं ! क्योंकि अधिक चिंता करने से मस्तिष्क द्वारा शरीर के अंगों को नियमित और व्यवस्थित निर्देश मिलने बंद हो जाते हैं !
जब साधक गहन साधना करता है तो जीवनी ऊर्जा मूलाधार चक्र से ऊपर की तरफ उठने लगती है और आठ चक्रों को भेदती हुई आज्ञा चक्र के ऊपर सहस्त्रधारा तक पहुंच जाती है ! जब जीवनी उर्जा सहस्त्र धार पर आ जाती है तब मस्तिष्क के दायें बायें भाग के अतिरिक्त तृतीय मध्य भाग भी जागृत हो जाता है ! जिसे तृतीय नेत्र खुलना कहते हैं !
जब मिड ब्रेन का मुख्य अंग “पीनियल” को पर्याप्त जीवनी ऊर्जा मिलने लगती है ! तब व्यक्ति का संबंध सामान्य मस्तिष्क द्वारा शरीर से स्थापित हो जाता है और पीनियल ग्लैंड के सक्रिय हो जाने के कारण मध्य मस्तिष्क का संबंध सीधे ईश्वरी ऊर्जाओं देश, काल, भाषा, अनुभूति आदि से जुड़ने लगता है ! उस स्थिति में मनुष्य का काल के साथ अर्थात समय के साथ संबंध जुड़ जाना एक स्वाभाविक प्राकृतिक प्रक्रिया है ! इसीलिये कहा जाता है कि जब व्यक्ति साधना करता है तो माया के प्रभाव से बाहर जाकर अर्थात वर्तमान से बाहर जाकर, वह भूत भविष्य को भी जान सकता है अर्थात वह त्रिकालदर्शी हो जाता है !
ऐसी स्थिति में मनुष्य सृष्टि के आदि से लेकर अंत तक, ईश्वर ने इस सृष्टि को संचालित करने के लिये जो जो माया अर्थात लीला रची है ! वह सभी देख सकता है ! उस माया का जो अंश पूर्व में घटित हो चुका है उसे भी और जो भविष्य में घटित होने वाला है उसे भी !
यह त्रिकाल दर्शन इतना बारीक होता है कि मनुष्य सृष्टि के किसी भी जीव ऊर्जा का व्यक्तिगत परीक्षण भी कर सकता है अर्थात मनुष्य अपने विषय में तो जान ही सकता है ! इसके अलावा अन्य किसी भी व्यक्ति, जीव-जंतु, पेड़-पौधा, जल, वायु, भूमि, वनस्पति आदि की भी उत्पत्ति और विनाश तक की यात्रा को व्यक्तिगत रूप से अनुभूत कर सकता है ! चरक सहित, घाघ मौसम विज्ञानी, जैसे ग्रन्थ इसी विज्ञान के आधार पर लिखे गये हैं !
इस काल यात्रा के द्वारा ब्रह्मांड की समस्त आकाशगंगाओं की उत्पत्ति से लेकर अपने गमले में उगे हुये घास के पौधे तक सभी के विषय में समय यात्रा करके जाना जा सकता है ! यह विशेष अधिकार इस सृष्टि के 84लाख योनियों में मात्र मनुष्य को ही ईश्वर ने वरदान के रूप में प्राप्त है !
अर्थात दूसरे शब्दों में कहा जाये तो मात्र साधना द्वारा कोई भी व्यक्ति अपने आपको इतना विकसित कर सकता है कि वह त्रिकालदर्शी होकर सृष्टि में आज से पूर्व की समस्त घटनाओं को जान सकता है और आज के बाद भविष्य में कब क्या-क्या घटेगा ! इसका भी साक्षात्कार कर सकता है ! इसी साधना के स्तर पर हमारे ऋषियों ने भविष्य पुराण आदि ग्रंथों की रचना की है ! जिसमें जो गणना कर आज से हजारों साल पहले जो बतलाया गया था वह आज भी एकदम सही और व्यवस्थित क्रम में घटित हो रहा है !
यही है मानसिक तरंगों द्वारा समय यात्रा का सिद्धांत ! बस आवश्यकता है अष्टांग योग के माध्यम से अपने को गहन साधना में उतार कर एक व्यवस्थित क्रम से साधना करने की ! जिससे आप माया के प्रभाव से बाहर निकल कर अपनी मानसिक तरंगों से समय यात्रा कर सकें !