जानिए तप का अर्थ क्या है : Yogesh Mishra

तप का तात्पर्य जीवन के शाश्वत मूल्यों की प्राप्ति के लिये किसी गुरु से सानिध्य में प्रशिक्षण लेना ! जिसे श्रीमद् भगवद्गीता में इस प्रकार बतलाया गया है कि तप के शरीरिक, वाचिक और मानसिक पक्ष हैं ! शारीरिक तप देव, द्विज, गुरु और अहिंसा में निहित होता है ! वाचिक तप अनुद्वेगकर वाणी, सत्य और प्रियभाषण तथा स्वाध्याय से होता है और मानसिक तप मन की प्रसन्नता, सौम्यता, आत्मनिग्रह और भावसंशुद्धि से सिद्ध होता है ! इस सबसे श्रेष्ठ उत्तम तप तो श्रद्धापूर्वक फल की इच्छा से विरक्त होकर किया जाता है !
अर्थात तप किसी उद्देश्य विशेष की प्राप्ति के लिये आत्मिक और शारीरिक अनुशासन के तहत उठाये जाने वाले दैहिक कष्ट को तप नहीं माना जाना चाहिये ! बल्कि आत्म या सामाजिक कल्याण के लिये किया गया विशेष अतिरिक्त पुरुषार्थ ही सदैव से तप माना गया है !
फिर वह तप चाहे गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये भागीरथ द्वारा किया गया हो या फिर ब्रह्मा से अमृत्व का ज्ञान प्राप्त करने के लिये करने के लिये रावण द्वारा किया गया हो ! यमराज से लोककल्याण हेतु मृत्यु का रहस्य समझने के लिये नचिकेता द्वारा किया गया हो या फिर भगवान शिव को विवाह के लिये तैयार करने हेतु माता सती के द्वारा किया गया हो !

अर्थात कहने का तात्पर्य है कि जब व्यक्ति किसी व्यक्तिगत कल्याण या लोक कल्याण की मंशा से सामान्य पुरुषार्थ से अलग हटकर अधिक पुरुषार्थ करता है ! तो उसे हमारे यहां शास्त्रों में तप की संज्ञा दी गई है !

और जब उस अधिक पुरुषार्थ के कारण देवता विशेष प्रसन्न हो जाते हैं और उस गुप्त रहस्य को तप करने वाले व्यक्ति के समक्ष प्रकट कर देते हैं ! तब इसे तप की सफलता माना गया है !

तप पर दैत्य, दानव, असुर, किन्नर, यक्ष, रक्ष, गन्धर्व, मनुष्य, आनव आदि सभी संस्कृतियों में निवास करने वाले व्यक्तियों का समान अधिकार है ! तप किसी भी जाति, धर्म या व्यवस्था के तहत बंधा हुआ नहीं है ! कोई भी व्यक्ति अतिरिक्त पुरुषार्थ करके किसी भी संस्कृति के किसी भी देवता से कोई भी रहस्य जान सकता है ! यही पक्षपात रहित सनातन संस्कृति रही है और जब देवता किसी व्यक्ति के चरित्र और व्यक्तित्व से स्वत: प्रसन्न होकर उसे कोई रहस्य पूर्ण ज्ञान बतला देते हैं ! तो उसे आशीर्वाद कहलाते है ! जैसे दुर्वासा ऋषि ने कुन्ती को देव पुत्र प्राप्ति की पद्ध्यती बतलायी थी !

वास्तव में तपस्या की भावना का विकास चार पुरुषार्थो और चार आश्रमों के सिद्धांत के विकास का परिणाम है ! यह सभी विचार उत्तर वैदिक युग की ही देन हैं ! ऋग्वेद में तपस्या का कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता है !

तपस्या का यह स्वरूप शैव जीवन शैली की खोज थी ! जिसके लाभ और परिणाम को देख कर बाद में वैष्णव साधकों ने भी अपना लिया ! तप तांत्रिक और गुह्यक साधना के लिये किया जाता था ! लगभग सभी शैव साधकों ने तप किया है और सिद्दियाँ प्राप्त की हैं ! बाद में वैष्णव साधकों के तप करने से इसकी चर्चा ब्राहम्ण उपनिषदों और पुराणों में मिलने लगी !

वैष्णव लेखकों ने उद्देश्यों की भिन्नता से तपस्या के अनेक प्रकार और रूप विकसित किये ! विद्याध्यायी ब्रह्मचारी तप, पुत्र कलत्र तप, धनसंपत्ति हेतु तप, ऐहिक सुखों हेतु तप, दैहिक सुखों हेतु तप, गृहस्थ जीवन हेतु तप, यश हेतु तप, परमात्मा की प्राप्ति हेतु तप, मोक्ष हेतु तप आदि आदि !

अर्थात तप का तात्पर्य लक्ष्य की दिशा में अतिरिक्त शाररिक और मानसिक पुरुषार्थ करना है न कि भूखे और प्यासे रह कर शरीर को कष्ट देना !!

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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