हर व्यक्ति अनादि काल से किसी न किसी योग्य गुरु का शिष्य बनना चाहता है ! पर अब तो उलटी गंगा बह रही है ! अब व्यक्ति शिष्य बनना चाहे या न चाहे गुरु ही यह दावा करते हैं कि मैं योग्य गुरु हूं और तुम मेरे शिष्य बन जाओ !
शायद इसीलिये अब तथाकथित इन गुरुओं को अपने शिष्य बनाने की दुकान चलाने की बहुत जल्दी है ! इसीलिए तो लाखों रुपए खर्च करके भीड़ को इकट्ठा करके गुरु ऊंचे सिंहासन पर बैठ कर लोडीस्पीकर से शिष्य को दिक्षा दे रहे हैं ! भले ही उन्हें इस दीक्षा का आध्यत्मिक अर्थ न मालूम हो !
बिना इस बात को जांचे परखे की क्या भीड़ में आया हुआ व्यक्ति शिष्य बनने योग्य है भी या नहीं ! या दूसरे शब्दों में कहा जाये तो अब गुरु शिष्य नहीं बनाते बल्कि समाज का दोहन करने के लिए शिष्य बनाने का ढोंग करते हैं जिससे समाज का शोषण किया जा सके !
लेकिन हमारी सनातन गुरु शिष्य परंपरा इतनी ओछी और छिछिली नहीं थी ! यह अनादि अनंत परंपरा अपने आप में संपूर्ण है !
गुरु का तात्पर्य जो अपने गुरत्व बल अर्थात ज्ञान के आकर्षण से शिष्य के समस्त विजातीय तत्व अलग कर दे फिर वह चाहे संस्कारगत दोष ही क्यों न हों !
शिष्य शब्द की उत्पत्ति शेष शब्द से हुई है ! शिष्य शेष शब्द का विशेषण है ! जब गुरु सभी विकृतियों को ख़त्म कर दे और शिष्य में अनन्त ज्ञान ही शेष बचे वही शिष्य है !
और ऐसा करने का समर्थ रखने वाला ही गुरु है क्योंकि अनन्त ज्ञान का रास्ता विकृति के शून्य से होकर ही जाता है !
क्योंकि ईश्वरीय व्यवस्था में अनन्त से अनन्त को अलग कर देने पर जब शेष अनन्त ही बचता है तो वही अनन्त पूर्ण ज्ञान है अर्थात पूर्णता की उपलब्धि है !
इसी पूर्णता के साक्षात्कार को अनुभव करवाने वाला ही गुरु है अन्यथा शेष तो सभी आचार्य हैं, टीचर हैं !!
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