भारत की न्याय व्यवस्था भारतीय समाज के अनुरूप नहीं है !! Yogesh Mishra

हमारा न्याय और उनका न्याय दो विपरीत अवधारणा है ! जो किसी भी रूप में राष्ट्र के अनुकूल नहीं है !!

न्याय बड़ा खूबसूरत शब्द है ! साथ में सम्मानित भी ! परंपरा में वह शब्दों का ‘अभिजन’ है ! इसीलिए जो व्यक्ति ईमानदार और न्यायकर्ता है, जिसके पास न्याय करने का अधिकार है ! किसी भी दबाव, विशेषकर सत्ता के दबावों से जो मुक्त है, ‘दूध को दूध और पानी को पानी’ सिद्ध करने की कला जिसे आती है—जनसाधारण उसकी ओर उम्मीद-भरी निगाह से देखता है ! आवश्यकता पड़ने पर वह अपने जीवन में ऐसे ही न्याय की कामना करता है ! किसी भी समाज में न्याय का स्तर उस समाज में मानवीय अधिकारों की पहुंच का भी संकेतक होता है ! समृद्ध न्याय-बोध हेतु परिपक्व अधिकारबोध आवश्यक है !

परंपरागत समाजों में मनुष्य का अधिकारबोध, सामूहिकताबोध के दबावों से मुक्त नहीं हो पाता था ! सामूहिकता का दायरा परिवार, बस्ती, जाति-समूह, पंचायत वगैरह कुछ भी हो सकता था ! साधारणजन उन्हीं के बीच रहते हुए प्रचलित सांस्कृतिक प्रतीकों, लोकगाथाओं, रूपकों और मिथों से अपने न्यायबोध का संस्कार करता था ! हालात आज भी वही हैं ! आज भी किस्से-कहानियां जनसाधारण के न्यायबोध को बनाते हैं !

बचपन से ऐसे अनेकानेक किस्सों, मिथों, धार्मिक प्रतीकों और गाथाओं से उसका वास्ता पड़ता है, जो उसे न्याय की प्रतीति कराते हैं ! या जिन्हें उसके समक्ष न्याय के मानक के रूप में पेश किया जाता है ! ‘जहांगीर का न्याय’, ‘अकबर-बीरबल’, ‘खोजा-बादशाह’, ‘मुल्ला नसरुद्दीन’, उपनिषदों और महाकाव्यों की कहानियों के अलावा समाज में लोक-किस्सों की भरमार हैं ! उलझनों के बीच वही हमारी प्रेरणा बनते हैं ! वही हमारे लोकमानस को बनाते हैं ! उन्हीं से हमारे भीतर न्याय का संस्कार बनता है !

भारतीय धर्मग्रंथों में यमराज को भी न्याय-प्रिय बताया गया है ! उसे लेकर अनेक कहानियां और मिथ समाज में विद्यमान हैं ! चूंकि उनके मूल में मिथकीय अंश ज्यादा हैं, इसलिए वे न्यायबोध को निखारने के बजाय तयशुदा निष्पत्तियों को थोपने का ही काम करते हैं ! अपने समग्र प्रभाव में वे व्यक्ति को न्याय की मूल अवधारणा से दूर ले जाते हैं ! जिस न्याय पर हम फिलहाल विचार करने जा रहे हैं, उसका दायरा विस्तृत है ! वह बादशाह, काजी, अदालत, यमराज या किसी दयालु सम्राट के परंपरागत न्याय-बोध से परे है ! न्याय के विविध रूपों पर विचार करने से पहले दो किस्से, बतौर उद्धरण यहां प्रस्तुत हैं !

‘महमूद गजनबी का पिता सुबुक्तगीन गजनी के बादशाह का गुलाम था ! कहते हैं कि प्रतिभा किसी की चेरी नहीं होती ! गरीब के घर विद्वान जन्म ले सकता है, और तमाम इंतजामात के बावजूद बादशाह का बेटा निकम्मा, आलसी, दुर्व्यसनी और मंदबुद्धि हो सकता है ! तुर्की मूल के गुलाम सुबुक्तगीन की प्रतिभा को देखते हुए गजनी के बादशाह ने उसे अपना दामाद बना लिया था ! अवसर मिला तो सुबुक्तगीन की साम्राज्यवादी लालसाएं जोर मारने लगीं ! उसने भारत पर आक्रमण कर कांधार पर कब्जा कर लिया और वहां अपनी छावनी बना दीं ! सुबुक्तगीन भारतीय इतिहास में खुद तो ज्यादा हस्तक्षेप न कर सका !

लेकिन उसके बेटे महमूद गजनवी ने भारत के बड़े हिस्से पर कब्जा कर अपनी सलनत कायम कर ली ! महमूद गजनवी भले ही सुलतान हो, हजारों सैनिकों की फौज का बेड़ा रखता हो ! परंतु यह बात वह भी भली-भांति जानता था कि राजा-महाराजाओं को तलवार के दम पर दबाया जा सकता है ! परंतु प्रजा को तलवार के बल पर लंबे समय तक दबा पाना असंभव होता है ! निहत्थी जनता यदि अपनी पर आ जाए तो बड़े-बड़े साम्राज्य भू-लुंठित होने लगते हैं ! हां, उसे भुलावे में जरूर रखा जा सकता है !

धर्म, परंपरा, संस्कृति, राष्ट्रवाद जनता को भुलावे में रखने के ही उद्यम हैं ! निजी मंसूबों को साधने के लिए चालबाज लोग इन्हीं का सहारा लेते आए हैं ! भारतीय राजाओं का इतिहास रहा है कि वे आपसी फूट द्वारा प्रतिपक्षी की विजय को खुद आसान बना देते थे ! सुबुक्तगीन को इसी का लाभ मिला था ! अपनी छोटी-सी सेना की मदद से उसने युद्ध में स्थानीय राजा जयपाल को बुरी तरह पराजित किया था ! उस युद्ध में जयपाल ने एक लाख सैनिक उतारे थे ! परंतु युद्ध कौशल का अभाव और आपस की फूट ने उसे हथियार डालने को विवश कर दिया था !

बड़ी सलतनत खड़ी करने और लंबे समय तक बनाए रखने के लिए प्रजा का भरोसा जीतना भी आवश्यक है ! सो मोहम्मद गजनवी ने प्रजा को न्याय का भरोसा दिलाया ! विश्वास दिलाया कि न्याय के आगे बादशाह हो या फकीर सब बराबर हैं ! ‘मनुस्मृति’ के विधान के जरिये ऊंच-नीय और गैरबराबरी में जीने वाले भारतीय जनसमाज के लिए ‘इस्लाम का बराबरी का सिद्धांत’ बड़ा ही आकर्षक सिद्ध हुआ ! वर्ण-व्यवस्था के सताए लोग इस्लाम में दीक्षित होने लगे ! नए धर्म में शामिल होने के बाद उनके हालात में क्या सुधार हुआ, यह कहना कठिन है ! परंतु यह बात सही है कि इस्लाम अपने साथ कई आकर्षक परंपराएं भी लेकर आया था !

प्राचीन फारस में न्याय के लिए काजी नियुक्त करने की व्यवस्था थी ! काजी उसे बनाया जाता था जो अनुभवी हो ! निडर हो ! राजा-प्रजा के भेद से जिसका न्याय प्रभावित न होता हो ! महमूद का काजी था—मोहतसिब ! वह सुलतान के किसी भी आदेश से बरी था ! न्याय के लिए उसे किसी खास समय की दरकार न थी ! इसलिए लोग उसे चलता-फिरता न्यायालय मानते थे ! उसका देखा-सुना ही प्रमाण था ! घटना का यदि वह स्वयं साक्षी हो तो बिना किसी औपचारिकता के घटना-स्थल पर अदालत लगा, मामले को वहीं निपटा देता था ! राज्य में सामाजिक स्थलों पर शराब पीने या शराब पीकर बाहर निकलने पर पूरी पाबंदी थी ! एक दिन सुलतान और उसके सरदार ने शराब पी ! नशे से दोनों झूमने लगे !

शराब पीने के बाद सरदार ने घर जाने की इच्छा जाहिर की ! इस पर सुलतान ने उसे रोका ! समझाया कि नशा उतरने के बाद बाहर निकलना ! लेकिन सरदार न केवल शराब का बल्कि रुतबे का नशा भी सवार था ! सो सुलतान की सलाह की परवाह किए बिना वहां से चल दिया ! संयोग ऐसा कि उसी समय काजी मोहतसिब खाना खाने के बाद घूमने के लिए निकला था ! उसने सरदार को डगमगाते कदमों से गुजरते देखा तो गुस्सा आ गया ! तत्क्षण सरदार को गिरफ्तार कर कोड़े लगाने का दंड सुनाया गया ! न्याय हुआ, स्वयं बादशाह अपने चहेते सरदार को बचा न सका !’

ऐसे किस्सों में कितना सच होता है कितना झूठ, यह ठीक-ठीक बता पाना आसान नहीं है ! सभी राजा-महाराजा, बादशाह-सुलतान दरबार में भाटों को नियुक्त रखते थे ! उनका काम ही था, राजा की महिमा का बखान करते रहना ! ताकि जनता को अपने राजा पर भरोसा बना रहे ! उस समय तक ‘राजा’ और ‘राज्य’ में बड़ा अंतर नहीं था ! राजा एक व्यक्ति के साथ-साथ संस्था भी होता था ! उसकी इच्छा ही न्याय होती थी ! जाहिराना तौर पर उसका झुकाव राजा के करीबियों की ओर अधिक होता था !

न्याय के दूसरे स्वरूप को जानने के लिए दूसरा किस्सा प्रस्तुत है ! यह न्याय से जुड़े नैतिक पक्ष की ओर संकेत करता है ! महाभारत के वनपर्व में राजा उशीनर के न्याय की कहानी आई हैं ! कुछ पुराणों इस कहानी को महान असुरराज बलि की दानवीरता से भी जोड़ा गया है !

‘एक दिन उशीनर दरबार में बैठे हुए थे कि एक घबराया हुआ कबूतर उनकी गोद में आकर गिरा ! पीछे-पीछे एक बाज भी वहां आ पहुंचा ! शरणागत की रक्षा के लिए उशीनर ने तलवार उठा ली ! इस पर बाज बोला—‘महाराज! यह मेरा भोजन है ! इसपर मेरा अधिकार है !’ उशीनर ने कबूतर की आंखों में झांककर देखा, वहां भय ही भय था ! उसे देख राजा ने कहा—‘यह मेरी शरण में आया है और शरणागत की रक्षा करना मेरा धर्म है !’ बाज इस प्रश्न के उत्तर के लिए तैयार था ! बोला—‘आपकी दया और दानवीरता के अनेक किस्से मैं सुन चुका हूं ! इस समय मैं भूख से व्याकुल हूं ! अगर जल्द कुछ इंतजाम न हुआ तो मैं यहीं दरबार में सबके सामने अपने प्राण त्याग दूंगा ! राज्य में भूख के कारण मेरी अकाल मृत्यु के जिम्मेदार एकमात्र आप होंगे !’

उशीनर पेशोपेश में पड़ गया ! कबूतर भयभीत था ! राज्य-धर्म कहता था, शरण में आए की रक्षा करना ! दूसरी ओर बाज भी अपनी जगह सही है ! सृष्टि में ऐसे अनेक प्राणी है जिनका आहार दूसरे जीव हैं ! प्रकृति की इस व्यवस्था को भी नहीं बदला जा सकता ! सहसा राजा ने निर्णय लिया ! उसका दायां हाथ उठा ! कटार चली ! राजा ने जांघ पर प्रहार कर मांस का एक हिस्सा शरीर से अलग कर दिया—‘कबूतर के मांस के बराबर मेरा मांस लेकर तुम अपनी क्षुधा शांत कर सकते हो !’

पहले किस्से में न्याय का लोक-प्रचलित रूप है ! न्याय को लेकर सामान्य धारणा इसी प्रकार की होती है ! राज्य का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक नागरिक के अधिकारों की रक्षा करे ! प्राणरक्षा करना कबूतर का भी अधिकार है ! बाज के सामने जब वह खुद को बचा नहीं पाता तो राजा की शरण लेता है ! तभी बाज अपने दावे के साथ उपस्थित हो जाता है ! एक तरह से दोनों का जीवन दाव पर लगा है ! बाज सोचता है कि भोजन नहीं मिला तो उसके प्राण चले जाएंगे !

दूसरी ओर कबूतर भी जानता है कि यदि वह बाज के प्राकृतिक अधिकार के आगे झुका तो वह स्वयं अपने जीवन से हाथ धो बैठेगा ! उशीनर कबूतर और बाज दोनों के जीवन के अधिकार का सम्मान करता हुआ, तीसरा जो अपेक्षाकृत निरापद रास्ता है, अपनाता है ! कबूतर के भार के बराबर अपना मांस देकर वह बाज के जीवन की रक्षा करता है ! यह न्याय की पराकाष्ठा है, जिसमें राज्य(उशीनर) किसी भी पक्ष को हानि पहुंचाए बिना उन्हें संतुष्ट कर देता है ! यह अपेक्षाकृत दुर्बल प्राणियों के प्रति राज्य के कर्तव्य को दर्शाता है !

ऐसी अवस्था में वकील, अदालत आदि की भूमिका अप्रासंगिक हो जाती है ! पहले किस्म के न्याय का परिष्कृत रूप हम अदालतों में देखते हैं ! न्याय के प्रति जनसाधारण का दृष्टिकोण न्यायालयों में होने वाले न्याय तक सीमित होता है ! कई बार क्षोभ और हताशा में डूबा व्यक्ति पुकार उठता है—‘दुनिया से न्याय मानो उठ-सा गया है !’ उस समय उसकी शिकायत पूरे समाज, देश और व्यवस्था से होती है ! दूसरी कहानी में न्याय का स्वरूप परिष्कृत है ! वहां भौतिक संसाधनों की अपेक्षा अधिकार और कर्तव्य पर चर्चा होती है ! न्याय करते हुए उशीनर सामान्य दंडाधिकारी से बहुत ऊपर उठ जाता है ! वादी और प्रतिवादी में से किसी को कष्ट न हो, इसलिए वह स्वयं कष्ट-पीड़ा सहकर न्याय का संकल्प उठाता है ! हालांकि न्याय की आधुनिक सैद्धांतिकी पर ऐसे उद्धरण पूरी तरह खरे नहीं उतरते !

धर्म-केंद्रित समाजों की सामान्य धारणा होती है कि केवल परमात्मा की कृपा और उसका डर मनुष्य को धर्म की ओर प्रवृत्त कर सकता है ! इसलिए हर धर्म के साथ कुछ न कुछ सिद्ध-निषिद्ध जुड़े होते हैं ! मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि जो सामाजिक रूप से अनुमन्य है, उसका पालन करे तथा जिन कार्यों को निषिद्ध घोषित किया गया है—उनसे अपेक्षित दूरी बनाए रखे ! ये शिक्षाएं विभिन्न सांस्कृतिक कार्यकलापों, किस्से-कहानियों, गाथाओं और मिथकों के माध्यम से जनता तक पहुंचती हैं ! उपर्युक्त दोनों कहानियां धर्म के न्यायशील पक्ष को दर्शाती हैं ! दोनों राजशाही के दौर की हैं ! जिस दौर की ये कहानियां हैं वहां असहमतियों के लिए बहुत कम गुंजाइश थी ! इसलिए वर्षों-वर्ष राज्य की मर्जी को ही धर्म और न्याय कहकर महिमा-मंडित किया जाता रहा ! प्रकारांतर में ये कहानियां न्याय के दो भिन्न रूपों की ओर हमारा ध्यानाकर्षित करती हैं ! जैसा कि अध्याय के आरंभ में ही कहा गया है, इस तरह की कहानियां ही जनसाधारण की चेतना का निर्माण करती हैं !

यदि यह सच है तो न्याय को धर्म का विस्तार अथवा उसका प्रतिफल मानने में संकोच कैसा? वैसे भी धर्म जनसाधारण के बीच न्याय की अपेक्षा कहीं लोकप्रिय शब्द है ! धर्म का इतिहास भले ही खून-खराबे का रहा हो, पुरोहितों ने उसके सहारे अपना धंधा खूब चमकाया हो, परंतु उसे सामाजिकता का आधार बनाने वाले आरंभिक मनीषियों की नीयत पर संदेह नहीं किया जा सकता ! यदि उन्होंने समाज की सुख-शांति के लिए डर को आवश्यक माना तथा समाज उसके कारण शताब्दियों तक अनुशासित रहा तो आगे भी उसका अनुसरण करने में बुराई क्या है! प्रश्न जितना आसान दीखता है, उत्तर उतना सरलीकृत नहीं है !

धर्म-प्रधान राज्यों की न्याय व्यवस्था को देखकर इस वास्तविकता को समझा जा सकता है ! अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए प्रत्येक धर्म नैतिकता का समर्थन करता है ! यह बात अलग है कि धर्म-प्रेरित नैतिकता स्वयं स्फूर्त्त नहीं होती ! वहां ईश्वर या परमात्मा के रूप में तीसरी सत्ता अवश्य होती है ! ऐसी सत्ता जो सर्वोपरि है !

सर्वशक्तिमान भी है ! जिसका स्वरूप अनिश्चित और अदृश्य है ! सर्वोपरि और सर्वशक्तिमान बताकर उसका हर निर्णय अंतिम मान लिया जाता है ! वहीं स्वरूप निश्चित न होने के कारण व्यक्ति को यह अवसर मिलता है, कि वह ईश्वर के नाम पर अपनी इच्छाएं थोप सके ! धर्मप्राण मनुष्य के सद्कर्म और इच्छाएं बिना ईश्वर को बीच में लाए पूरी नहीं होतीं ! परिणामस्वरूप उसके लिए जीवन और व्यक्ति दोनों का महत्त्व घट जाता है ! वह अपने फैसले व्यक्ति और समाज की जरूरत के बजाय तीसरी शक्ति को प्रसन्न करने की चाहत के साथ लेने लगता है ! ‘रिपब्लिक’ में सुकरात के साथ चर्चा करते हुए ग्लाकॉन नामक पात्र धर्माधारित न्याय की इसी कमजोरी की ओर इशारा करता है ! इससे विकास के मायने और लक्ष्य दोनों बदल जाते हैं !

प्राचीन सम्राट धर्मालयों के निर्माण पर जितना खर्च करते थे, लोकमहत्त्व के निर्माण यथा सड़क, चिकित्सालय, नहर, स्कूल आदि पर बहुत कम खर्च होता था ! भारतीय राजाओं ने देश में जितनी बड़ी संख्या में मंदिर बनवाए, उसका दसवां हिस्सा भी यदि विद्यालय बनवाए होते तो समाज की हालत दूसरी होती ! उन्होंने शिक्षा की जिम्मेदारी उस वर्ग को सौंपी हुई थी, जिसके वर्गीय स्वार्थ प्रबल थे ! यही कारण है कि शिक्षा भारत में सदा ही धर्म का पूरक संस्कार बनी रही, उसके प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण कभी नहीं पनप सका ! बावजूद इसके प्राचीन समाजों में जनविद्रोह की घटनाएं विरल हैं ! यह भी संभव है कि जानबूझकर उनका उल्लेख करने से बचा गया हो !

इतिहासकारों, लेखकों और कवियों ने उनके दस्तावेजीकरण में उपेक्षा बरती हो ! क्योंकि उस दौर में सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं को धर्म और सत्ता की दृष्टि से देखने का चलन था ! धर्म का जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हस्तक्षेप था ! यह जानते हुए भी कि जिसे धर्मानुशासन कहा जाता है, वह स्वयं-स्फूर्त्त नहीं होता ! मनुष्य को उसकी कीमत अपने विवेक के रूप में चुकानी पड़ती है, जिससे अपने बुद्धि-विवेक से निर्णय लेने का अभ्यास निरंतर कम होता जाता है !

उपर्युक्त के बावजूद लंबे समय तक न्याय का धर्म-केंद्रित होना ही ‘श्रेष्ठतम न्याय’ माना जाता रहा ! वैदिक युग से लेकर दो-ढाई सौ वर्ष पहले तक भारत में यही व्यवस्था काम करती रही ! हालांकि ईश्वर को किसी ने देखा नहीं था, धर्म की परिभाषाएं आपस में गड्ड-मड्ड थी, फिर भी लोग एक-दूसरे को समझाते—‘दुनिया धर्म पर टिकी है ! ईश्वर सच्चा न्यायकर्ता है !’ यह सोचते हुए वे अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण निर्णय भी दूसरों के हवाले कर देते ! बिना यह सोचे-विचारे कि ईश्वर के नाम पर स्वार्थ का सारा कारोबार उसके चेले-चपाटों ने कब्जाया हुआ है !

चूंकि तीसरी शक्ति का कल्पना से बाहर कोई अस्तित्व नहीं है, इसलिए जनसाधारण ईश्वरेच्छा के नाम पर चंद लोगों की मनमानी का दास होकर रह जाता है, जिन्हें वह अपना गुरु अथवा अधीश्वर मानता है ! उनके प्रभाव में न्याय व्यक्ति का अधिकार न रहकर शीर्ष पर बैठे लोगों की अनुकंपा मान लिया जाता है ! इसी के साथ व्यक्ति से निर्णय की आलोचना का अधिकार छिन जाता है !

कई बार तो न्याय की आलोचना या विरोध को दैवीय इच्छा का अपमान मान लिया जाता है ! इस कोशिश में मानवीय अस्मिता को पीछे ढकेल दिया जाता है ! मनुष्य के मान-सम्मान, आत्मगौरव, सहज विश्वास यहां तक कि स्वतंत्र पहचान को भी धर्म की राह में बाधक मान लिया जाता है ! यह नजरंदाज कर दिया जाता है कि न्याय व्यक्ति का अधिकार, राज्य का अपने नागरिकों के प्रति पवित्रतम दायित्व है ! उसे राज्य की अनुकंपा मानना समाजीकरण के उद्देश्यों पर पानी फेरने जैसा है ! न्यायशीलता राज्य और राजा दोनों का अभीष्ट गुण है ! यदि किसी धर्म में यह गुण मौजूद है तो निश्चित रूप से वह प्रशंसनीय है ! फिर भी न्याय को धर्म का प्रतिफल मानना सर्वथा अनुचित होगा ! उसे लोकचेतना का विस्तार अवश्य कहा जा सकता है ! अरस्तु के शब्दों में न्याय, ‘समाज का शुभत्व है, वही राज्य को शुभत्व प्रदान करता है !’

अभी तक के विश्लेषण से न्याय की दो प्रवृत्तियां उभरती हैं ! अदालतों में वकील, जज आदि के माध्यम से होने वाला न्याय ! दूसरे अपने नागरिकों के प्रति राज्य के कर्तव्य के रूप में निरूपायित न्याय ! भारतीय धर्मग्रंथों में न्याय के प्रथम रूप पर पर्याप्त चर्चा है ! ब्राह्मण ग्रंथों, स्मृतियां और धर्मसूत्रों में इसपर खुलकर विचार किया गया है ! उसे राज्य का कर्तव्य बताया गया है ! परंतु न्याय के दूसरे पक्ष जो नागरिक-समाज के प्रति राज्य के दायित्व को दर्शाता है, को लेकर भारतीय वाङ्मय में गहरी चुप्पी पसरी है !

अर्थशास्त्र में राजा के सामने हालांकि लोकहित का बड़ा आदर्श रखा गया है ! जोर देकर कहा गया है—‘प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है ! प्रजाहित में राजा का हित सन्निहित है !’ ‘विष्णु धर्मसूत्र’ में भी इस भावना को विस्तार दिया गया है ! तदनुसार—‘जो राजा प्रजा के सुख में सुखी, उसके दुख में दुखी हो जाता है ! उसे संसार में अपनी कीर्ति बनाए रखने के लिए यज्ञ और तपादि की आवश्यकता नहीं है !’

लेकिन यही ग्रंथ जब राजा को पृथ्वी का ईश्वर या देवता घोषित करते हैं, और उसके हाथ में सारे अधिकार सौंप देते हैं, और उत्तराधिकार में अंतरित राजन्य जब अयोग्य हाथों में पहुंचकर मनमानी का अवसर देता है, तब वह एक ऐसी निरंकुश शक्ति का प्रतीक बन जाता है, जिसका निर्णय समीक्षा और आलोचना से परे है ! इन ग्रंथों के अनुसार राजा अकेला ही रक्षक, प्रजापालक, अन्नदाता, दंडाधिकारी वगैरह सबकुछ होता था ! फैसले पर कोई सवाल न उठे, इसलिए उसके निर्णय को देववाणी घोषित कर दिया जाता था !

न्याय की दृष्टि से पश्चिमी दर्शन अपेक्षाकृत उदार रहे हैं ! विशेषकर सुकरात और उसके बाद के यूनानी विचारक ! मानव-केद्रित होने के कारण वे नियतिवाद से उतने प्रभावित नजर नहीं आते, जितने भारतीय धर्म-दर्शन ! ऐसा नहीं है कि यूनानी साहित्य मिथकीय प्रभावों से सर्वथा मुक्त रहा है ! इस आधार पर यूनानी दर्शनों को सुकरात पूर्व और सुकरात के बाद के दर्शनों में बांटा जा सकता है ! सुकरात पूर्व के यूनानी दर्शनों पर मिथकीय चरित्रों का वैसा ही प्रभाव है, जैसा भारतीय धर्म-दर्शनों पर ! कुछ अंशों में यह प्लेटो के विचारों पर भी बना रहता है ! लेकिन प्लेटो उससे सिर्फ प्रेरणा लेता है ! अपने विचारों को परंपरा से बांधता नहीं है ! अरस्तु सहित उत्तरवर्ती विचारक उसे और भी विस्तार देते हैं !

वस्तुतः ईसा पूर्व छठी शताब्दी का समय पूरी दुनिया में बौद्धिक क्रांति का था, जिसमें विश्वास को तर्क की कसौटी कसा जाने लगा था ! भारत में उसके सूत्रधार थे— गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी तथा यूनान में सुकरात, प्लेटो, जेनोफीन, डेमीक्रिटिस आदि ! भारत में जैन एवं बौद्ध दर्शन के अलावा अनीश्वरवादी विचारक यथा आजीवक, लोकायत, वैनायिक भी वैदिक परंपरा के धर्म-दर्शनों का तार्किक विरोध कर रहे थे !

फिलहाल उनके पक्ष में शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध न होने के कारण कुछ भी कहना अनुचित होगा ! बुद्ध और सुकरात दोनों ने अपने-अपने देश में ठेठ परंपरावाद, आडंबर और दिखावे का जोरदार विरोध किया था ! दोनों ने दर्शन के क्षेत्र में व्यावहारिकता को समर्थन दिया ! यूनान में सुकरात आदि के नेतृत्व में उभरे बौद्धिक आंदोलनों ने मिथकीय विश्वासों को दर्शन के क्षेत्र से करीब-करीब अलग-थलग कर दिया था ! इससे न्याय के क्षेत्र में स्वतंत्र चिंतन को बल मिला !

एक प्रसिद्ध ग्रीक कहावत है—‘मनुष्य अपने लिए न्याय का दरवाजा स्वयं खोलता है !’ इसका मंतव्य एकदम स्पष्ट है ! जब भी कोई मनुष्य अपने मित्रों, सगे-संबंधियों, पड़ोसियों तथा परिजनों के प्रति न्याय-भाव से परिपूर्ण आचरण करता है, तो उसके अपने लिए न्याय के रास्ते प्रशस्त हो जाते हैं ! उसे न्याय के लिए भटकना नहीं पड़ता ! आवश्यकता पड़ने पर न्याय स्वयं उस तक चला आता है ! दूसरे शब्दों में ‘न्याय ही न्याय को कमाता है !’ कदाचित इसीलिए सुकरात ने कहा था—‘न्याय समाज का सद्गुण है ! वह समाज में शुभत्व की उपस्थिति को दर्शाता है !’ सुकरात की यह अवधारणा न्याय की आधुनिक परिभाषा के काफी निकट है ! हालांकि यूनान में सुकरात के पहले से ही न्याय को समझने की कोशिश होती रही है ! सोलोन की कविता में कहा गया है कि ‘बिना कानून के राज्य को कानून एवं व्यवस्था के राज्य में बदल देना चाहिए !’

यूनानी धर्मशास्त्रों में ‘दाइक’ को न्याय की देवी बताया गया है ! हेसियद की कविता में ‘दाइक’ को ‘क्रूरता को समाप्त करने के लिए जीयस की ओर से उपहार’ बताया गया है ! प्लेटो ने ‘दाइक’ को दंड के निषेध के रूप में, उदारता एवं विवेक से न्याय करने वाली पराशक्ति के रूप में परिभाषित किया है ! ‘दाइक’ की प्रतिपक्षी के रूप में ‘अदाइका’ का उल्लेख है, जिसे यूनानी धर्मशास्त्रों में ‘अन्याय’ की देवी माना गया है ! मिथकीय गाथा के अनुसार ‘दाइका’ अन्याय की देवी ‘अदाइका’ को छड़ी से पीटकर भगा देती है ! रोमन धर्मशास्त्रों में ‘दाइक’ की समकक्ष देवी ‘जस्टीटिया’ है ! दोनों अपने हाथ में न्याय के प्रतीक के रूप में ‘तराजू’ को उठाए रहती हैं ! स्पष्ट है कि भारतीय धर्मशास्त्रों की भांति प्राचीन यूनानी एवं रोमन धर्मशास्त्रों में भी न्याय की आरंभिक अवधारणा रूढ़ ही रही है ! उसमें बदलाव ईसा पूर्व छठी शताब्दी के बाद से दिखाई पड़ता है ! सुकरात उसका प्रमुख सूत्रधार है !

उस समय पूरे यूनान में दास प्रथा थी ! अर्थव्यवस्था में दासों की संख्या का बड़ा योगदान था ! सुकरात के समय एथेंस की कुल जनसंख्या लगभग तीन लाख थी ! उसमें से 125000 दास तथा लगभग 25000 कृषिदास अथवा अर्धदास थे ! कृषिदास मुख्यतः कृष्ट भूमि से जुड़े किसान थे ! भू-अधिकार में परिवर्तन के साथ ही उनका स्वामित्व भी नए भू-स्वामी के हाथों में अंतरित हो जाता था ! अर्धदासों में छोटे शिल्पकार और कारीगर भी आते थे ! एथेंस और रोम की संपन्नता का सारा दारोमदार उन्हीं के कंधों पर था ! इसलिए दर्शन के क्षेत्र में शुभत्व और सदगुण की मांग करने वाले सुकरात, प्लेटो और अरस्तु जैसे विचारक भी दास प्रथा के समर्थक थे ! वे उसे समाज की आवश्यकता के रूप में देखते थे ! अभिजात वर्ग में जन्मे विचारकों के लिए उस व्यवस्था का विरोध एकाएक संभव भी न था !

न्याय संबंधी उनकी अवधारणा जीवन में सामान्य नैतिकता के अनुपालन तक सीमित थी ! एनेक्सिमेंडर के लिए न्याय का सामान्य अर्थ था—व्यक्ति के संपत्ति-अधिकारों की सुरक्षा ! उन दिनों यूनानी देशों की परंपरा थी कि यदि किसी कुलीन परिवार की स्त्री का पति मर जाता था, तो उसकी संपत्ति राज्य के अधीन मान ली जाती थी ! इस कानून के विरोध में स्त्रियां मोर्चा निकाल चुकी थीं ! एनेक्सिमेंडर जैसे कुछ विचारक कुलीन परिवार की विधवाओं को संपत्ति अधिकार देने के पक्ष में थे ! दूसरे की संपत्ति पर अधिकार को अनैतिक माना जाने लगा था ! सुकरात के समकालीन थियोगनिस की काव्य-पंक्तियों में तत्कालीन समाज में न्याय एवं कानून-व्यवस्था के प्रति क्षोभ समाया हुआ है !

‘उन्होंने हिंसा द्वारा संपत्ति कब्जा ली है ! यह पूरे विश्व के लिए संकट की स्थिति है ! वास्तविक न्याय अब संभव नहीं दिखता !’

न्याय-केंद्रित समाजों में मनुष्य को यह विश्वास होता है कि समाज में रहते हुए उसके हित सुरक्षित है ! आवश्यकता पड़ने पर पूरा समाज मदद के लिए उसके साथ होगा ! उसने न्याय को समाज की प्रमुख मार्गदर्शक शक्ति माना है ! तदनुसार न्याय मनुष्य का समाज में विश्वास बढ़ाता है ! उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है ! एक कविता में उसने देवी के मुंह से कहलवाया है !

‘सुनो! बुराई तुम्हें आगे नहीं ले जाएगी ! इस रास्ते पर मनुष्य को आगे बढ़ने से रोकने के लिए बाधाएं अनेक हैं ! केवल न्याय और कानून ही तुम्हें राह दिखा सकते हैं !’

एनेक्सिमेंडर, हेराक्लाट्स, पेरामेनिडस आदि जितने भी सुकरात पूर्व तथा उसके समकालीन यूनानी चिंतक हैं, सभी ने न्याय को अपनी-अपनी तरह से परिभाषित करने की कोशिश की थी ! परंतु लगभग सुकरात पूर्व के सभी विचारक न्याय को ईश्वर के संदर्भ में देख रहे थे ! उनके लिए न्याय या तो ईश्वर का उपहार था अथवा दैवीय विधान, जिसमें किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप अवांछनीय है ! कह सकते हैं कि जिस तरह भारतीय चिंतक न्याय को धर्म के उपांग या उपहार के रूप में देखते थे, वैसे ही पश्चिम में भी न्याय ईश्वरीय प्रेरणा या उपहार तक सीमित था ! इसके लिए वहां ‘न्याय की देवी’ जैसी मिथकीय कल्पना भी मौजूद है ! हालात में परिवर्तन सुकरात के आगमन से होता है ! सुकरात ने सत्य को सद्गुण और सद्गुणों को शुभत्व की यात्रा का पाथेय मानकर उसे सामाजिक नैतिकता का विषय बना दिया !

‘रिपब्लिक’ के चौथे खंड में प्लेटो ‘न्याय क्या है’ यह बताने की कोशिश करता है ! शुरुआत करते हुए ग्लाकॉन ‘शुभत्व’ को तीन हिस्सों में परिभाषित करता है ! आंतरिक, जैसे कि सुख, आनंद, वस्तुनिष्ठ जैसे कि सुख-सुविधा के संसाधन, धन जिससे सुख-समृद्धि बटोरी जा सकती है ! तीसरा आंतरिक और वस्तुनिष्ठ जैसे कि स्वास्थ्य ! तीनों में से एक का भी अभाव मनुष्य को अपूर्णता का एहसास कराता है ! ग्लाकॉन द्वारा यह पूछने पर कि तीनों में से कौन-सा शुभत्व न्याय है, सुकरात तीसरे का समर्थन करता है ! सुकरात मानता है कि उससे न्याय को समग्रता में परखा जाता है !

लेकिन वह अपने निर्णय के समर्थन में पर्याप्त तर्क देने में असमर्थ रहता है ! ग्लाकॉन न्याय संबंधी अपनी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहता है कि न्याय दूसरों को हानि पहुंचाने तथा जरूरतमंद की मदद के बीच संतुलन हेतु व्यक्तिमात्र की अपने प्रति प्रतिबद्धता है ! ऐसा करते हुए वह स्वयं को समाज के प्रति उत्तरदायी बनाने का काम करता है ! स्वार्थपरकता न्याय की राह में सबसे बड़ी बाधा है ! वह व्यक्ति को व्यक्ति और समाज दोनों के प्रति गैर-जिम्मेदार बनाती है ! मानव की स्वाभाविक कमजोरियों लालच, स्वार्थ आदि को स्वीकारते हुए ग्लाकॉन न्याय को उनसे दूर रहने तथा अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान बनाए रखने वाली प्रेरणाशक्ति के रूप में स्वीकारता है ! उसके अनुसार न्यायशील व्यक्ति का अपने और समाज के प्रति ईमानदार रहना आवश्यक है !

यदि ऐसा नहीं है ! यदि कोई व्यक्ति यह भ्रम रखते हुए कि केवल वही न्याय के पथ पर है, दूसरों की आलोचना करता है तथा उनपर अपना स्वार्थ थोपने का प्रयास करता है ! तो ऐसे कथित न्यायशील व्यक्ति की अपेक्षा अन्याय का समर्थन करना उचित है ! उसके अनुसार न्याय की एकमात्र कसौटी वृहद सामाजिक हित में है !

ग्लाकॉन के अनुसार न्याय कृत्रिम चीज, रूढ़ियों की उपज है ! इसके लिए उसके तर्क अपने साथियों से थोड़ा हटकर हैं ! वह कहता है कि प्राकृतिक अवस्था में लोग अन्याय करते और सहते हैं ! लेकिन अन्याय की मात्रा व्यक्ति की शक्ति पर निर्भर करती है ! जो अधिक शक्तिशाली है, वह तदानुरूप अधिक अन्याय करने में सक्षम होता है ! इसलिए जब कमजोर यह देखते हैं कि वे उतना अन्याय करने में अक्षम हैं, जितना उन्हें सहना पड़ता है, तब वे संगठन के विवश होते हैं ! इस तरह न्याय सबल की नहीं, दुर्बल की आवश्यकता और इच्छा का परिणाम बन जाता है ! उसके माध्यम से वह अपने से शक्तिशाली के व्यवहार को नियंत्रित करने का सपना देख सकता है !

एक संविदा के तहत, जिसका आधार धर्म भी हो सकता है और संविधान भी, वे एक-दूसरे के प्रति अत्याचार न करने, न ही सहने के लिए वचनबद्ध होते हैं ! धीरे-धीरे वह संविदा कानून का रूप ग्रहण कर लेती है ! लेकिन मानव-प्रवृत्ति हमेशा एक जैसी नहीं रहती ! जब उसको लगता है कि किसी कानून या बल के आधार पर उसे नियंत्रित करने की तैयारी हो रही है, तो वह विरोध पर उतर आता है !

परिणामस्वरूप समाज में जिसका गठन सहअस्तित्व की भावना के साथ हुआ था, कुछ लोग बल की भाषा बोलने-समझने लगते हैं ! इससे समाज के वर्ग के भीतर भय उमड़ने लगता है ! उसी से न्याय की उत्पत्ति होती है ! ग्लाकॉन के अनुसार, ‘न्याय सबसे अच्छे और सबसे बुरे के बीच का रास्ता, एक समझौता है ! सर्वोत्तम यह है कि मनुष्य अन्याय से दूर रहे, ताकि दंड से बचा रहे और सबसे बुरा यह है कि अन्याय सहे और बदला न ले सके !’ निर्बल सबल से बदला कैसे ले सकता है? वह जानता है कि वह अकेला शक्तिशाली का सामना नहीं कर सकता ! अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए वह अपने ही जैसे लोगों के साथ समझौते को बाध्य होता है !

चूंकि समाज में कमजोरों की संख्या अधिक होती है, इसलिए बहुसंख्यक वर्ग की सम्मिलित शक्ति अल्पसंख्यक शक्तिशाली वर्ग से अधिक हो जाती है ! शक्तिशाली वर्ग इस सत्य को भली-भांति समझता है ! इसलिए वह निरंतर इस प्रयास में रहता है कि शक्ति-विपन्न वर्गों में फूट डालकर उन्हें एकजुट होने से रोक सके ! अल्पसंख्यक शक्तिशाली समूहों की बहुसंख्यक शक्ति-विपन्न समूहों पर शासन करने की योग्यता, प्रायः इस बात पर निर्भर करती है कि वह उन्हें बांटे रखने में कितना सफल हो पाता है ! धर्म, जाति, क्षेत्रीयता, रंग-भेद आदि ऐसे ही माध्यम हैं जो असल जिंदगी में अनुपयोगी होने के बावजूद बहुसंख्यक समाज को बांटे रखने में सहायक होते हैं !

थ्रेचाइमच्स ने ‘ताकतवर हमेशा सही’ कहते हुए न्याय को ‘शक्तिशाली का स्वार्थ’ माना है ! जबकि गलाकॉन न्याय की उत्पत्ति भय से मानता है ! दोनों न्याय तक पहुंचने के लिए धुर-विपरीत ध्रुवों से अपनी विचार-यात्रा की शुरुआत करते हैं ! यह प्लेटो की विशिष्ट शैली है ! इसके माध्यम से वह किसी दार्शनिक निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले अपने मंतव्य को प्रत्येक दृष्टिकोण से परख लेना चाहता है ! ग्लाकॉन का विचार वृथा नहीं गया ! मध्यकाल में हॉब्स जैसे विचारकों ने भी उसका समर्थन किया है !

साधारणतः वह स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ मानता है, और यह मानते हुए कि दूसरे उसके जितने श्रेष्ठ नहीं हैं, उसे अपनी श्रेष्ठता पर खतरा दिखाई पड़ता है ! यह अंतर्विरोध या कि आत्मसंघर्ष मनुष्य को दूसरों से सहयोग और समझौते के लिए प्रेरित करता है ! स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठतर सिद्ध करने की प्रवृत्ति मनुष्य की यशलिप्सा के रूप में प्रकट होती है ! जाहिर है समाज में रहते हुए व्यक्ति को न केवल बाहरी बल्कि आंतरिक संघर्ष से भी गुजरना पड़ता है ! यही द्वंद्व समाज में न्याय को प्रासंगिक बनाता है !

केफलस, पॉलीमार्क्स, थ्रेचाइमच्स और ग्लाकॉन सब न्याय को अपनी-अपनी तरह से परिभाषित करते हैं ! उसके लिए वे अलग-अलग तर्क देते हैं ! सुकरात को बीच में लाकर प्लेटो उनकी मान्यता के कमजोर पक्षों की ओर इशारा करता है ! अलग-अलग दिखने वाले उन विचारों में प्लेटो को जो सामान्य बात नजर आती है, वह यह है कि चारों न्याय को बाहरी चीज मानते हैं ! उनके अनुसार न्याय चूंकि बाहर की चीज है इसलिए किसी न किसी रूप में वे सभी मनुष्य की क्षमताओं, उसकी प्रवृत्तियों और संभावनाओं पर संदेह कर रहे होते हैं !

चारों के दर्शन में प्लेटो को यही बात सर्वाधिक अखरती है ! मन से कवि और विचारों से दार्शनिक प्लेटो मनुष्य और मनुष्यता में अपने विश्वास को कम नहीं होने देता ! इसलिए वह यह सिद्ध करने में जुट जाता है कि न्याय बाहरी वस्तु न होकर मनुष्य के आंतरिक बल का परिचायक है ! वह सिद्ध करने की कोशिश करता है कि न्याय न तो बाहरी सौगात है, न ही रूढ़ि न ही किसी अदृश्य सत्ता की ओर से उपहार !

असल में वह मनुष्य की अपनी महिमा, उसका आंतरिक बल, ओज और तेज है ! वह बताता है कि उसके साथी न्याय पर समग्रता से विचार करने के बजाय, उसके परिस्थितिगत लक्षणों पर विचार कर रहे हें ! इसलिए न्याय को लेकर उनके विचार अधूरे और अपर्याप्त हैं ! उसके अनुसार न्याय मानव प्रकृति की उच्चतम अवस्था है ! समाज का अपना व्यक्तित्व होता है ! सीमित संदर्भों में जहां न्याय मानव-मात्र की आंतरिक शुभता का परिणाम हैं, वहीं व्यापक संदर्भों में वह समाज की आंतरिक शुभता को भी दर्शाता है ! इसकी विवेचना हेतु प्लेटो पुस्तक का उदाहरण देता है ! मान लीजिए एक व्यक्ति के पास किसी पुस्तक की दो प्रतियां हैं !

उनमें से एक बड़े अक्षरों में टाइप होने के कारण काफी मोटी है, दूसरी छोटे अक्षरों में, आकार में अपेक्षाकृत छोटी है ! हालांकि दोनों प्रतियों की विषय-वस्तु में कोई अंतर नहीं है ! फिर यदि किसी व्यक्ति को उन्हें पढ़ने को दिया जाए तो वह बड़े फांट की पुस्तक को पढ़ना पसंद करेगा ! यही उसके लिए आसान भी होगा ! भले ही बड़े अक्षरों वाली पुस्तक को लाना-ले-जाना उसके लिए कठिन हो !

प्लेटो के अनुसार व्यक्तिगत न्याय और सामाजिक न्याय में यही अंतर है ! दोनों मनुष्य की आंतरिक शुभता, उसके सदाचार और सद्गुणों की उत्पत्ति होता है ! समाज में जाकर उसका रूप बड़ा हो जाता है ! वह व्यक्ति से अधिक समाज को समझने पर जोर देता है ! अपने दायरे के कुछ लोगों को वह दूसरों से अधिक जान पाता है तो इसलिए कि वे उसकी सामाजिकता के दायरे में हैं ! आदर्श समाज में किसी नागरिक को जानने और समाज को जानने में अंतर नहीं होता ! न्याय की इस विशेषता को समाज के प्रति सकारात्मक सोच और वृहद संदर्भों में ही परखा जा सकता है ! इसके लिए प्लेटो स्पष्ट करता है कि कोई राज्य अपनी धन-संपदा या शक्ति के बल पर आदर्श नहीं बनता ! आदर्श राज्य अपने नागरिकों के श्रेष्ठतम चरित्र से आकार लेता है !

चर्चा के अगले चरण में एडीमेंटस विमर्श में शामिल हो जाता है ! न्याय की उसकी व्याख्या सामाजिक अनुभवों पर केंद्रित तथा आत्मपरक है ! उसके अनुसार लोग अपने बच्चों को न्याय का समर्थन करना इसलिए नहीं सिखाते क्योंकि वह शुभता का प्रतीक है ! बल्कि इसलिए सिखाते हैं कि बच्चे बड़े होकर उनका साथ दे सकें ! प्रथम दृष्टया यह प्रतीत होता है कि एडीमेंटस न्याय को पारिवारिक सुख तक सीमित रखकर, राज्य की उपेक्षा कर रहा है ! लेकिन ऐडीमेंटस निरा परिवारवादी नहीं है ! उसका समाज में भरोसा है ! वह मानता है कि समाज कोई अमूर्त्त अवधारणा नहीं है ! किसी भी व्यक्ति का समाज उसके आसपास के परिवेश से बनता है, जिसमें उसमें परिवार भी सम्मिलित होता है !

इसलिए परिवार और परिवेश के प्रति निष्ठा प्रकारांतर में समाज के प्रति निष्ठा की परिचायक है ! अतएव व्यक्ति को न्याय के प्रति अनुरक्त करने का सर्वात्तम रास्ता है कि उसके परिवेश में सुधार लाया जाए ! ऐसे परिवेश का निर्माण किया जाए जिसमें उसे न्यूनतम अंतर्द्वंद्वों का सामना करना पड़े ! समाज और सामाजिकता में विश्वास बनाए रखने का दायित्व व्यक्ति और समाज दोनों का है ! ऐडीमेंटस आगे कहता है कि न्याय से लोगों को परचाने, उसके अनुपालन करने हेतु धार्मिक शिक्षा अपर्याप्त है ! वह न्याय को राज्य एवं नागरिकों के बीच शुभता के आदान-प्रदान के रूप में प्रभावी करने के बजाए, उसे दैवीय बना देती है !

धार्मिक व्यक्ति कहता है ! यदि तुम दूसरों के साथ न्याय करोगे तो ईश्वर तुम्हारी मदद करेगा, तुम्हें उसका पारितोषिक देगा ! और यदि तुम अन्याय करोगे तो ईश्वर की निगाह में दंड के भागी बनोगे ! स्वर्ग-नर्क की अवधारणा, मोक्ष आदि न्याय के ऐसे ही भ्रांत स्वरूप हैं ! ऐसे में व्यक्ति जो करता है, वह या तो डर के कारण, अथवा दूसरों के विवेक से अनुशासित होकर ! कर्तव्य एवं न्याय-भावना को भुलाकर पूजापाठ, दान-पुण्य आदि के बहाने वह ईश्वर को खुश करने की कवायद में जुट जाता है ! चूंकि ईश्वर का कोई अस्तित्व ही नहीं है, इसलिए धार्मिक व्यक्ति का न्यायबोध सिवाय भ्रांति के कुछ नहीं होता ! यह भ्रांति न केवल उसके अपने लिए, बल्कि समाज के लिए भी हानिकारक है ! इसके चलते ईश्वरीय न्याय को ही वास्तविक न्याय मानने का दावा करने वाले उसके नाम पर मनमानी करने में सफल हो जाते हैं !

न्याय सामाजिक शुभता का दूसरा नाम है ! अवास्तविक अथवा काल्पनिक पात्रों के सहारे समाज द्वारा उसकी सिद्धि असंभव है ! न ही उसे भय फैलाकर प्राप्त किया जा सकता है ! ईश्वर के नाम पर होने वाला न्याय पुरोहित तथा उसके चेले-चपाटों के बीच चढ़ावे की हिस्सेदारी में सिमटकर रह जाता है ! धर्म को लेकर एंडीमेटस का दृष्टिकोण कई मायने में महत्त्वपूर्ण है ! वह न्याय के बारे में आधुनिक विचारधाराओं से मेल खाता है ! जान लॉक, रूसो, बैंथम, फायरबाख, कार्ल मार्क्स, से लेकर पीटर क्रोप्टोकिन तक सभी विचारक जीवन में धर्म के अतिरेकी विस्तार तथा उसे न्याय का पर्याय मानने वाली मानसिकता का विरोध करते आए हैं ! इसी का प्रभाव है कि धर्म को आधुनिक राज्यों में नीति-निर्माण की प्रक्रिया से अलग-थलग कर दिया गया है !

वैसे भी धर्म और न्याय का कोई अंतःसंबंध नहीं है ! आरंभ से ही धर्म अभिजन-हितों का समर्थक-साधक रहा है ! इसके अनगिनत उदाहरण रोजमर्रा के जीवन में खोजे जा सकते हैं ! महाभारत-युद्ध को प्रायः धर्म-युद्ध कहकर प्रचारित किया जाता है ! युद्ध के प्रमुख सूत्रधार की भूमिका निभाता हुआ कृष्ण अठारह अक्षौहिणी सेना, जो उस समय विश्व की कुल जनसंख्या की एक-तिहाई थी, को एक-दूसरे से भिड़ाकर भगवान बन जाता है ! उस युद्ध का प्राप्य क्या था? युधिष्ठिर को राज्य मिला ! पर अठारह अक्षौहिणी सेना का हिस्सा बनकर लड़े सैनिकों या उनके परिजनों को क्या मिला? इसपर महाभारत या इतिहास की किसी पुस्तक में कोई उल्लेख नहीं है !

आज भी इस पर कोई चर्चा नहीं करता ! बस धर्म-युद्ध मानकर उसपर उठने वाले प्रत्येक सवाल पर पर्दा डाल दिया जाता है ! युधिष्ठिर के धर्म-राज्य में प्रजा का क्या हाल था, पता नहीं ! परंतु स्वयं महाभारत का संकेत है कि उस युद्ध ने एक परजीवी वर्ग को जन्म दिया था, जो इतना शक्तिशाली था कि नवनियुक्त सम्राट की आंखों के सामने किसी की भी हत्या कर सकता था ! धर्मराज होने का दावा करने वाला युधिष्ठिर उसको देखकर भी चुप रहने को विवश था ! यह उदाहरण महाभारत के शांतिपर्व से है !

‘कुरुक्षेत्र के महाभारत के बाद जब पांडव विजयी होकर लौटे तो प्रजा उनके स्वागत को उमड़ पड़ी थी ! हजारों ब्राह्मण भी दान की अभिलाषा युधिष्ठिर को आशीर्वाद देने के नाम पर नगर-द्वार पर आ जुटे ! जैसे ही युधिष्ठिर का रथ आता दिखाई पड़ा, प्रजा उसकी जय-जयकार करने लगी ! नगर-द्वार पर जमा ब्राह्मण स्तुतिगान में लग गए ! उस खुशनुमा माहौल में एक श्रमण साधुओं के बीच से अचानक निकला और युधिष्ठिर को देखकर कहने लगा !

‘हे युधिष्ठिर! तुमने अपने बंधुओं की हत्या की है ! स्वजनों की हत्या और गुरुजनों का नरसंहार करके तुम्हें क्या मिला? तुम पापी हो ! तुम्हें क्षोभ से मर जाना चाहिए !’

युधिष्ठिर स्तब्ध ! लोगों को काटो तो खून नहीं ! कुछ पलों के लिए ब्राह्मणों को भी मानो सांप सूंघ गया ! अपराधबोध का मारा युधिष्ठिर सचमुच मर जाना चाहता था ! अचानक ब्राह्मण दल को चेत हुआ ! सारे के सारे ब्राह्मण एक-साथ चिल्लाने लगे—‘यह हमारा प्रतिनिधि नहीं है ! हम ऐसा नहीं सोचते ! यह पापी चार्वाक है ! इस अधर्मी को जीने का कोई अधिकार नहीं है !’

यह कहकर सारे साधु उस श्रमण पर टूट पड़े ! धर्मावतार युधिष्ठिर की आंखों के सामने उसे जीते-जी भस्म कर दिया गया !’

धर्म के नाम पर ऐसे ही अमानवीय न्याय का उदाहरण वेन की कहानी के रूप में आया है ! पुराणों में वेन को विश्व का पहला निर्वाचित सम्राट बताया गया है ! कहानी के अनुसार आर्यों ने जब कृषि की शुरुआत की और उसके लिए एक जगह टिककर रहना आरंभ किया तो सुरक्षा के लिए राजा चुनने का विचार सामने आया ! ऐसा व्यक्ति जो जरूरत के समय उनका नेतृत्व कर सके ! उस समय लोगों ने सर्वसम्मिति से वेन को अपना राजा निर्वाचित किया ! वेन ने न्याय करते हुए जमीन का समुचित विभाजन किया !

ब्राह्मण चूंकि शिक्षा का दायित्व संभाले हुए थे, उन्हें अनेक कर्मकांडों में लिप्त रहना पड़ता था, इसलिए उन्हें नदी किनारे की उपजाऊ जमीन दी गई ! लोग खेती करने लगे ! वेन के नेतृत्व में विश् तरक्की करने लगा ! लेकिन खेती तो मौसम पर निर्भर थी ! एक बार भयंकर अकाल पड़ा ! पूरा विश् भूख की चपेट में आ गया ! लोग तड़फ-तड़फकर मरने लगे ! जब तक सुख देती थी, तब तक नई व्यवस्था लोगों को हितकारी लगती थी ! मौसम की मार के साथ ही उसकी कमजोरी सामने आ गई ! लोग वेन को दोष देने लगे ! एक राजा का दायित्व निभाते हुए वेन ने विश् के लोगों की बैठक बुलाई ! ब्राह्मणों को दी गई भूमि पर अब भी खेती हो रही थी !

नदी किनारे होने का उसे लाभ मिला था ! वेन उनसे आपद्धर्म के रूप में कृषि उपज को जरूरतमंदों के बीच बांटने का आग्रह किया ! इसपर वे चिढ़ गए ! लोगों को राजा के विरुद्ध भड़काने लगे ! भूखे लोगों का दिलो-दिमाग सुन्न हो चुका था ! आक्रोश जब सीमा पार कर गया तो भूखे से अकुलाए उग्र विश-वासियों ने राजा पर हमला कर दिया ! इस तरह प्रथम निर्वाचत राजा अपने ही लोगों के हाथों मारा गया !

विमर्श के अगले चरण में प्लेटो इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि न्याय को उसकी लोकोन्मुखता तथा वृहद सामाजिक हितों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए ! न कि उन व्यक्तियों के व्यवहार से जो न्याय प्रक्रिया में सम्मिलित होने की दावेदारी करते हैं ! न्याय-संबंधी विमर्श में अनेक लोगों को सम्मिलित कर वह तत्कालीन समाज में प्रचलित न्याय के परंपरावादी, उग्रवादी एवं व्यवहारवादी स्वरूपों की समीक्षा करता है ! अंततः उसका संवेदनशील कवि हृदय उसको आदर्शवाद के समर्थन में ले जाता है ! सुकरात के माध्यम से वह स्पष्ट करता है कि न्याय मनुष्य की आंतरिक शुभता, उसका सदाचरण है—‘यदि कोई व्यक्ति अपने दायित्वों का समुचित वहन करता है, तो उसका आचरण ही उसकी न्याय-प्रियता का प्रमाण बन जाता है !’ वह मानता है कि न्याय प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में रहता है ! मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का समयानुसार पालन करना ही न्याय है !

जाहिर है प्लेटो के लिए न्याय कोई सिद्धांत या विचारधारा न होकर आचरण की वस्तु है ! क्या न्याय की शिक्षा दी जा सकती है? इसी से जुड़ा प्रश्न यह भी है कि क्या शिक्षा व्यक्ति को अधिक न्यायशील बनाती है ! प्लेटो शिक्षा की उपयोगिता से इन्कार नहीं करता ! व्यक्तित्व विकास हेतु शिक्षा अनिवार्य है ! तथापि उसके अनुसार शिक्षा साध्य नहीं है ! वह केवल साधनमात्र है ! उसका महत्त्व व्यक्ति को राज्य का योग्यतम सदस्य बनाने में मदद करना है ! शिक्षा के अलावा अधिकार चेतना, जिसमें अपने साथ-साथ दूसरों के अधिकारों का बोध भी जरूरी है तथा कर्तव्य के प्रति जागरूकता और समर्पण का भाव व्यक्ति को श्रेष्ठ नागरिक बनाने में मदद करता है !

‘रिपब्लिक’ की शुरुआत वह व्यैक्तिक नैतिकता एवं न्याय-प्रिय व्यक्ति के न्याय-संगत जीवन की विशेषताओं से करता है, लेकिन आगे बढ़ते-बढ़ते स्थिति साफ होती जाती है ! पता चलता है कि लेखक का उद्देश्य संपूर्ण समाज को न्याय एवं नैतिकता से बंधे हुए देखना है ! वह मानता है कि न्याय समाज का विशिष्ट गुण है ! यह गुण समाज में बाहर से नहीं आता ! बल्कि उसके नागरिकगण अपने न्याय-संगत आचरण द्वारा उसे संभव बनाते हैं ! न्याय तथा औचित्य अथवा अन्याय एवं अनौचित्य जिस प्रकार व्यक्ति के गुण-दोष हो सकते हैं, उसी प्रकार ये समाज के भी गुण-दोष हो सकते हैं ! न्याय व्यक्ति एवं समाज को परस्पर अन्योन्याश्रित, पूरक एवं प्रेरक बनाता है !

आधुनिक विचारक जॉन रॉउल न्याय को सामाजिक संस्थाओं का विशेष लक्षण मानता है ! उसके अनुसार—‘न्याय सामाजिक संस्थाओं का शुभत्व है ! उसका वही महत्त्व है जो वैचारिक उद्यमों में सत्य का होता है !’ प्लेटो के लिए न्याय एवं नैतिकता में कोई अंतर नहीं है ! दोनों परस्पर पूरक और पर्याय हैं ! आदर्श स्थिति वह है जब व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर न्याय में अंतर मिट जाता है ! इसके लिए प्लेटो समाज को शासक, रक्षक और कृषक तीन हिस्सों में बांटता है ! जैसे भारत में शूद्रों को वर्ण विभाजन में सबसे निचले स्तर पर रखा गया है और दासों को वर्ण विभाजन में स्थान ही नहीं दिया गया है, इसी प्रकार प्लेटो के आदर्श राज्य में भी दासों को कार्यविभाजन से बाहर रखा गया है ! दोनों ही जगह उनकी स्थिति खरीदी गई वस्तु या संसाधन के समान है ! बावजूद इसके दोनों में बड़ा अंतर है !

प्लेटो का सिद्धांत पूरी तरह से सामाजिक जरूरतों और विकास के नजरिये पर आधारित है ! वह किसी व्यक्ति को जन्म, लिंग अथवा उसकी पैत्रिक पहचान के आधार पर छोटा या बड़ा घोषित नहीं करता ! व्यक्ति का चयन उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि से इतर, विशुद्ध योग्यता के आधार पर हो—इसके लिए वह बच्चों का पालन-पोषण सात वर्ष का होते ही—माता-पिता से दूर, उसकी पैत्रिक पहचान को छिपाकर करने की अनुशंसा करता है ! ताकि बड़े होने पर उनमें जन्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव न किया जा सके ! भारत में कार्यविभाजन इससे भिन्न था ! वेदों, स्मृतियों तथा धर्म-सूत्रों में कार्यविभाजन के नाम पर समाज को चार वर्गां में बांटने का विधान रचा गया है ! हालांकि दावा यह किया गया है कि वह विशुद्ध गुणों पर आधारित विभाजन हे और कोई मनुष्य अपने गुण एवं प्रतिभा के आधार पर वर्ग-अंतरण कर सकता है ! परंतु वास्तविकता इससे अलग है ! कर्म-गुण के आधार पर भारतीय समाज में वर्ग-अंतरण के उदाहरण इतने विरल हैं कि उन्हें अपवाद मानकर छोड़ा जा सकता है !

भारतीय विशेषकर हिंदू समाज में जाति-व्यवस्था दास प्रथा की अपेक्षा कहीं अधिक निकृष्ट और भयावह थी ! अपने स्वामी की अनुकंपा अथवा तय मूल्य-राशि का भुगतान करने के पश्चात दास अपनी स्वतंत्रता खरीद सकता था ! जातिप्रथा में दबे शूद्रों को इस प्रकार के अवसर उपलब्ध न थे ! जाति जन्म के साथ जीवन में प्रवेश करती और मरण तक देह और मन से चिपकी रहती थी ! ‘रिपब्लिक’ में कार्य-विभाजन नीति-सम्मत है ! प्लेटो व्यक्ति के गुण-दोष के अनुसार उसे उपयुक्त जिम्मेदारी सौंपने की सिफारिश करता है, ताकि उसकी योग्यता का समाज-हित में भरपूर इस्तेमाल किया जा सके ! भारतीय, विशेषकर हिंदु समाज में जातीय विभाजन धर्म-सम्मत व्यवस्था है ! जाति-व्यवस्था के लिए व्यक्ति की रुचि एवं योग्यता कोई मूल्य नहीं है ! वह सबकुछ जन्म के आधार पर, बिना व्यक्ति की रुचि अथवा योग्यता देखे, काम सौंपने में विश्वास रखती है ! इसलिए उसमें बदलाव सरल नहीं है ! दूसरी ओर प्लेटो का कार्य-विभाजन अधिक वैज्ञानिक, निष्पक्ष और राज्य-कल्याण की भावना से भरा है !

‘रिपब्लिक’ मानवीय मेधा की अमूल्य धरोहर है ! उसकी प्रशंसा करते हुए बार्कर ने लिखा है—न्याय रिपब्लिक की आधारशिला है ! और रिपब्लिक न्याय की मूल अवधारणा का संस्थागत रूप है !’ ‘रिपब्लिक’ में प्लेटो ने कहा है कि समाज के तीनों वर्गों को बिना एक-दूसरे के कार्य में व्यवधान उत्पन्न किए, काम करते रहना चाहिए ! सब अपना-अपना कार्य मनोयोग से करेंगे तो सामाजिक शांति और सद्भाव बना रहेगा ! राज्य आत्मनिर्भर बनेगा ! अंतर्द्वंद्व घटेंगे और उनके समाधान में खप रही ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग लोककल्याण के निमित्त संभव हो सकेगा !

सेबाइन ने प्लेटो के न्याय-सिद्धांत को सामाजिक न्याय के लिए आवश्यक माना है ! उसके अनुसार—‘न्याय वह बंधन है जो मानव-समाज को एकता के सूत्र में पिरोता है ! यह उन व्यक्तियों के सहयोग और समन्वय का नाम है जो अपनी शिक्षा-दीक्षा, योग्यता एवं रुचि के अनुसार अपने कर्तव्य का चयन करते हैं और फिर अपनी संपूर्ण निष्ठा से उसके अनुपालन में लगे रहते हैं ! अपनी निष्ठा एवं समर्पण भावना से वे समाज को संपूर्ण एवं आत्मनिर्भर बनाते हैं ! ऐसा समाज जो संपूर्ण मानव-मनस् की रचना हो, जिसमें हर कोई अपना प्रतिबिंब देख सके ! सामाजिक जीवन के ऐसे ही मूलभूत, उदात्त रूप को प्लेटो ने न्याय की संज्ञा दी है ! आचरण की शुभता पर जोर देते हुए वह ऐसे आदर्श समाज की परिकल्पना करता है, जिसमें मानव-व्यक्तित्व की उठान सामाजिक शुभता के परम-बिदु को छूने लगती हे ! लक्ष्य आसान नहीं है ! परंतु निजता को सर्वकल्याण को समर्पित करने के बाद मनुष्य उस अवस्था को प्राप्त कर सकता है !

प्लेटो न्याय और ज्ञान को परस्पर पूरक मानता है ! उसके अनुसार ज्ञान मनुष्य को न्याय की पहचान कराता है ! ज्ञान ही एकमात्र ऐसा उपकरण है जिससे मनुष्य शुभ-अशुभ, अच्छे-बुरे का बोध कराता है ! ज्ञान न्याय की पूर्वापेक्षा और अनिवार्यता है ! इसलिए ज्ञान एकमात्र शुभ है ! सुकरात के माध्यम से प्लेटो द्वारा न्याय की खोज का सिलसिला आदर्श समाज की अवधारणा तक बढ़ जाता है ! प्लेटो ने साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधाओं, नाटक, कविता आदि की आलोचना की थी ! वह उन्हें लोकरंजन के माध्यम से अधिक मानने को तैयार न था ! नाटक एवं कविता को तो वह मानव-चरित्र को दुर्बल बनाने वाली विधाएं मानता था ! लेकिन उसके दर्शन में कवि मन की संवेदनशीलता साफ-साफ झलकती है ! ‘रिपब्लिक’ में न्याय की खोज का सिलसिला, संवेदनशील मन की कविता जैसा है, जिसे उसकी विद्वता महत्त्वपूर्ण बना देती है !

प्लेटो की न्याय-संबंधी अवधारणा के कई बिंदू विचारणीय है ! उनमें कुछ ऐसे भी हैं जिनसे उसकी कुंठा जाहिर होती है ! ध्यातव्य है कि प्लेटो का संबंध एथेंस के शासक परिवार से था ! वह स्वयं को एथेंस की सत्ता की सत्ता के प्रमुख दावेदारों में से एक मानता था ! लेकिन सुकरात को मृत्युदंड दिए जाने के बाद से तत्कालीन राजनीति से उसका जी उचट गया था ! प्लेटो से पहले यूनानी समाज में कोई खास कार्यविभाजन न था ! न ही कार्य-विशेष के प्रति व्यक्ति की रुचि का कोई महत्त्व था ! इसलिए माना जाता था कि कोई भी व्यक्ति कुछ भी कार्य कर सकता है !

इसी धारणा के चलते एथेंस में गणतांत्रिक पदों पर नियुक्तियां लॉटरी के माध्यम से की जाती थीं ! इसके चलते कई बार कार्य-विशेष के लिए अयोग्य व्यक्ति चुन लिए जाते थे ! इस अविवेकी व्यवस्था ने एथेंस का गणतंत्र अयोग्य हाथों की कठपुतली बना हुआ था ! सुकरात ने उस पर चोट की थी ! खुद को गणतंत्र का समर्थक मानने वाले एथेंस की यह सबसे बड़ी त्रासदी थी ! प्लेटो की आदर्श राज्य की परिकल्पना उसकी इसी छटपटाहट का सुफल कही जा सकती है ! न्याय की विवेचना के रूप में यही छटपटाहट आदर्श राज्य की कल्पना में भी दिखाई पड़ती है ! वह ऐसे राज्य की कल्पना पेश करता है, जहां लोग बजाए स्वार्थ-भाव के सर्वोदय भाव से जुड़े हों ! जिनमें पारस्परिक कल्याण के प्रति एका और विश्वास हो !

वह स्पष्ट करता है कि न्याय आदर्शोन्मुखी समाज की सहज-स्वाभाविक उपलब्धि है ! वह कृत्रिम अथवा बाहरी शक्ति द्वारा थोपी गई व्यवस्था नहीं है ! किसी भी समाज में न्याय का संरक्षण किसी भय या दबाव में न होकर उसके स्वयं स्फूर्त्त प्रयासों के माध्यम से होता हे ! वह इसलिए भी आवश्यक है कि न्याय का कोई दूसरा या तीसरा पक्ष नहीं होता ! न्याय या तो न्याय होता है, अथवा न्याय नहीं होता ! उसे केवल वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है ! उसके लिए आवश्यक है कि समाज की इकाइयों में परस्पर सामंजस्य और एक-दूसरे के प्रति विश्वास का भाव हो !

प्लेटो ने स्वीकार किया था कि जन्म एवं शिक्षा में दूसरों से बेहतर होने के कारण संरक्षकों के बेटे-बेटियां समाज के शेष वर्गां की संतान की अपेक्षा लाभ की स्थिति में होंगे, जिससे समाज का शक्ति संतुलन एक वर्ग विशेष के पक्ष में खिसकता चला जाएगा ! न्याय की व्याख्या के अगले चरण में वह ऐसे राज्य की परिकल्पना करता है जिसका संघटन पंरपरा अथवा किंचित आदर्शयुक्त पसंदों के आधार पर किया गया हो ! आदर्श राज्य के रूप में प्लेटो की परिकल्पना में ऐसा राज्य था, जहां ‘न्याय’ कि सर्वत्र व्याप्ति हो ! प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्यपालन में तल्लीन रहता हो ! वह प्रश्न उठाता है कि व्यक्ति के कर्तव्य को परिभाषित कैसे किया जाए? वह कौन-सा कार्य हो सकता है, जिसको करके कोई नागरिक आदर्श राज्य के निर्माण में अपना योगदान दे सकता है? प्राचीन यूनान, आमेर आदि राज्यों में पुत्र को वही कार्य करना पड़ता था, जो उसके पिता के लिए निर्धारित था ! पीढ़ी-दर-पीढ़ी यही चलता रहता था ! इस प्रणाली पर कभी कोई प्रश्न नहीं उठता था ! मगर प्लेटो के राज्य में स्थिति दूसरी थी !

‘संरक्षक वर्ग के स्त्री-पुरुषों में से कोई भी अपना घर-परिवार नहीं बसाएगा ! कोई भी किसी के साथ व्यक्तिगत रूप से सहवास नहीं करेगा ! शासक स्त्रियां शासक वर्ग के सभी पुरुषों की समान रूप से पत्नियां होंगी ! उनकी संतानें भी समान रूप से सभी की होंगी ! न तो माता-पिता अपनी वास्तविक संतान के बारे में जान पाएंगे न ही संतान अपने वास्तविक जन्मदाता को जान सकेगी !’

बुद्धकालीन गणतंत्रों में भी एक समय ऐसा था, जब वहां का प्रत्येक नागरिक ‘मैं राजा हूं’, ‘मैं राजा हूं’ कहकर शासक होने का दावा करता था ! सोफिस्टों के कार्यकाल में एथेंस का भी यही हाल था ! ऐसे समाज में जहां प्रत्येक आदमी खुद को ‘मुखिया’ समझता हो, वहां नागरिकों को व्यक्तिगत एवं सामाजिक नैतिकता के प्रचार द्वारा प्रेरित किया जा सकता था ! उसके लिए प्लेटो की सारी उम्मीद दार्शनिक सम्राट पर टिकी थी ! उसका मानना था कि दार्शनिक सम्राट किसी भी प्रकार के लालच से परे, परमबुद्धिमान, व्यवहारकुशल, परम-प्रज्ञावान, वीर, तेजस्वी और परिश्रमी होंगे ! लोग स्वयं उससे प्रेरणा ले सकेंगे ! लेकिन महामानव की खोज आसान नहीं थी ! इस बात को प्लेटो भी समझता था ! ऐसी अवस्था में उसने दार्शनिकों के समूह को राज्य की बागडोर सौंपने की अनुशंसा की है ! मुश्किल यह है कि केवल विचार के बल पर समाज नहीं चलता ! विकास की गति को बनाए रखने के लिए नए आविष्कारों की भी जरूरत पड़ती है ! राज्य में उत्पादन वृद्धि और तकनीकी शोध के लिए दार्शनिक सम्राट का क्या योगदान होगा? प्लेटो इस बारे में कोई सुझाव नहीं देता ! न ही उसकी कल्पनाशीलता काम करती है ! इसका कारण दास के रूप में उपलब्ध अतिरिक्त और सस्ता श्रम भी हो सकता है !

राजनीति को अनुभवहीन लोगों के हाथों से निकालकर परिपक्व हाथों को समर्पित करने की कोशिश ! परंतु उसमें वह इतना आगे बढ़ जाता है कि ‘रिपब्लिक’ का संदेश ही बिगड़ जाता है ! तो फिर प्लेटो के ‘रिपब्लिक’ की देन क्या है? आधुनिक समाज उससे क्या ग्रहण कर सकता है? इस बारे में एक बीसवीं शताब्दी के महानतम दार्शनिकों में से एक बर्ट्रेंड रसेल की टिप्पणी है !

‘उत्तर है—गतिहीनता, ठहराव, एकरसता! इससे केवल युद्धकाल में सफल हुआ जा सकता है, वह भी तब, जब सामना करीब-करीब बराबरी का हो ! यह केवल छोटे समूह की आजीविका को सुरक्षित रख सकता है ! जड़ सोच और कठोर नियमों के कारण इस व्यवस्था में निश्चित रूप से, न तो विज्ञान का भला होगा, न ही कलाओं का !’

स्पार्टा और वहां की राजनीति ने अपने समकालीन जिन विचारकों को प्रभावित किया था, प्लेटो भी उनमें से एक था ! अपने जीवन में उसने कई उतार-चढ़ाव देखे थे, जिनमें उसके देश एथेंस की शर्मनाक पराजय तथा अकाल आदि सम्मिलित थे ! इन सभी घटनाओं ने उसके संवेदनशील मन को गहराई से प्रभावित किया था ! इसका स्पष्ट प्रभाव उसके राजनीतिक सोच पर देखने को मिलता है ! वह मानता था राजनीतिज्ञों में सुधार के साथ इन आपदाओं से मुक्ति संभव है ! कवि-हृदय प्लेटो का मनुष्यता में अटूट विश्वास था ! उसके लेखन से सर्वत्र इसकी पुष्टि भी होती है ! हालांकि वह या तो समझ नहीं पाया था अथवा स्वयं को जानबूझकर भुलावे में रखे था कि आदर्श सदैव व्यक्ति-सापेक्ष होता है ! उसके बारे में चर्चा भी वही करते हैं, जो उसमें विश्वास रखते हैं !

अधिकांश व्यक्ति निजी सुखों को ही अहमियत देते हैं ! उन्हें अपने लिए बेहतर भोजन, अच्छा आवास तथा अन्य सुख-सुविधाएं चाहिए ! तब आदर्श और सामान्य पसंदों के बीच अंतर कैसे किया जाए? वह कौन-सा गुण है जो व्यक्ति की सामान्य पसंदों को आदर्श पसंदों का रूप दे दे सकता है? प्लेटो के अनुसार व्यक्ति की इच्छाएं कहीं न कहीं उसके अहं से प्रेरित-प्रभावित होती हैं ! अहं व्यक्ति को आत्मकेंद्रित एवं स्वार्थी बनाता है ! इसलिए ‘आदर्श पसंदें’ वे पसंदें कही जा सकती हैं, जिनमें व्यक्ति के अहं का न्यूनतम प्रभाव हो—जो समाज की सामान्य इच्छाएं हों तथा व्यक्ति के निजत्व को सामान्यबोध की पहचान देकर उसे लोकोन्मुखी बनाती हों ! समाज का हित है कि ऐसी पसंदों को प्राथमिकता दी जाए ! जैसे किसी व्यक्ति की यह इच्छा कि प्रत्येक व्यक्ति के पास पर्याप्त भोजन हो अथवा यह सोच कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति के पास उत्तम आवास, वस्त्र तथा भोजन आदि की सुविधाएं पर्याप्त मात्रा में हों ! इस प्रकार की इच्छा के साथ व्यक्ति का अहं तिरोहित हो जाता है ! किंतु सभी मनुष्य तो एकसमान नहीं होते ! उनकी रुचियों, स्वभाव और पसंदों में स्वाभाविक अंतर होता है !

ऐसे में इच्छाओं का समाजीकरण कैसे हो? कैसे उनके आदर्श स्वरूप को कायम रखा जाए? ‘रिपब्लिक’ में प्लेटो इसकी भी व्याख्या करता है ! उसके अनुसार अहं के तिरोहण के पश्चात इच्छाओं का सहज समाजीकरण संभव है ! उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति की दर्शन में रुचि है तो वह इच्छा कर सकता है कि समाज के सभी व्यक्तियों को दर्शन का भरपूर ज्ञान हो ! ऐसे ही विज्ञान में रुचि रखने वाला व्यक्ति विज्ञान तथा कलाओं में रुचि रखने वाला व्यक्ति कलाओं के बारे में इच्छा व्यक्त कर सकता है ! इस तरह इच्छाओं का समाजीकरण क्या मानव-स्वभाव से निरपेक्ष नहीं होता ! प्लेटो का विश्वास था कि उदारतापूर्ण इच्छाएं अपने समन्वयीकरण की प्रक्रिया में समाज में अपनी ही जैसी इच्छाओं को बढ़ावा देंगी ! इससे व्यक्ति के निजी स्वार्थ में कमी आएगी ! समाज में निजी संपत्ति की अवधारणा कमजोर पड़ेगी ! फलस्वरूप आर्थिक समानता के स्तर को बनाए रखना आसान होगा !

इच्छाओं और पसंदों का सामान्यीकरण जितना आसान दिखता है, उतना होता नहीं ! यदि व्यक्ति का पालन-पोषण भिन्न परिस्थितियों में हुआ हो तो यह और भी कठिन हो जाता है ! विकास की भिन्न स्थितियां तथा तज्जनित विषमताएं मतभेदों को जन्म देती हैं ! मतभेद हों तो व्यक्तिगत इच्छाएं भी अहं से संचालित होने लगती हैं ! जैसे राष्ट्रीय भावना से प्रेरित कोई व्यक्ति यह इच्छा रख सकता है कि सभी जर्मनवासी प्रसन्न हों ! जबकि दूसरा व्यक्ति इसपर आपत्ति सकता है कि सिर्फ जर्मनवासी क्यों, दुनिया में जितने भी लोग हैं, सभी प्रसन्न रहने चाहिए ! इसी तरह भारतीय राष्ट्रवादी का सामान्य सोच होगा कि भारत दुनिया में अन्य सभी देशों में अग्रणी हो ! अतिश्रद्धालु व्यक्ति अपने धर्म को पूरी दुनिया पर छाये हुए देखना चाहेगा ! जबकि मानवतावादी सपना होगा कि विश्व के सभी देश बराबर हों ! किसी का किसी पर अधिकार न हो ! लोग अपने-अपने विश्वास, मान्यताओं और परंपरा के साथ सुरक्षित रहें ! सुख में सभी की समान साझेदारी हो !

ऐसे परस्पर विरोधी विचारधाराओं वाले मनुष्य समाज में एक साथ होंगे तो उनके मतभेद उभरकर सामने आएंगे ही ! फिर उनके बीच तालमेल कैसे संभव है? कैसे उन सभी की रचनात्मक क्षमताओं का इस्तेमाल समाज-हित में किया जाए? यह चुनौती प्लेटो के समय में थी ! आज भी है ! निजी स्वार्थ एवं मतभेदों के कारण वह एथेंस के गणतंत्र की दुर्दशा को देख चुका था ! उसका मानना था कि व्यक्तिगत मतभेदों का समाहाहर केवल आदर्श समाज में संभव है ! आदर्श समाज से उसका आशय था, ऐसा समाज जहां सभी को अपने-अपने कर्तव्य का एहसास हो और सभी उसके प्रति समर्पित होकर काम करें ! बदले में राज्य बिना किसी पक्षपात के सभी को जीवनयापन के आवश्यक संसाधन उपलब्घ कराने की जिम्मेदारी ले !

अहं संवेदनाओं को कुचलता आया है ! अहं के टकराव की समस्या प्लेटो के समय में भी रही होगी ! इसलिए वह समाधान भी देता है ! समाधान उसके इस विश्वास से जन्म लेता है कि मनुष्य मूलतः अच्छा प्राणी होता है ! प्लेटो के अनुसार व्यक्ति का सामान्य मनोविज्ञान यह है कि वह व्यक्ति-विशेष अथवा कुछ व्यक्तियों के अप्रसन्न रहने की इच्छा तो कर सकता है, किंतु दुनिया के अधिकांश लोगों के अप्रसन्न होने की चाहत व्यक्ति के सामान्य मनोविज्ञान के विरुद्ध है ! इसलिए ऊपर के उदाहरण में दूसरे व्यक्ति की इच्छा जो दुनिया-भर के लोगों के प्रसन्न होने की कामना करता है, पहले व्यक्ति, जो केवल किसी खास देश, धर्म अथवा संस्कृति को सबसे आगे निकलते देखने की इच्छा रखता है, पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना सकती है !

इच्छाओं के सार्वजनिक प्रकटीकरण के अवसर पर वह अपने अहं को आहत महसूस कर सकता है ! यह उसको अपनी राष्ट्रभावना के विरुद्ध भी लग सकता है ! इसके बावजूद सार्वजनिक रूप में उसको दूसरे व्यक्ति की भावनाओं का सम्मान करना पड़ेगा ! सच यह भी है कि व्यवहार में निरपेक्ष आदर्श जैसा कुछ हो ही नहीं सकता ! व्यक्ति की अभिप्रेरणाएं उसकी रुचियों, स्वभाव, सोच और परिस्थितियों द्वारा संचालित होती हैं ! नीत्शे के महामानव की संकल्पना ईसाई परंपरा में संत की अवधारणा से एकदम भिन्न है ! उसके बावजूद नीत्शे पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि इस संकल्पना के पीछे उसका कोई स्वार्थ था ! सच तो यह है कि समाज की बेहतरी के लिए ईसाई परंपरा में संत जो काम करते हैं, विचारक के नाते नीत्शे ने महामानव की संकल्पना उसी कोटि की है !

इसलिए नीत्शे के विचारों की आलोचना की जा सकती है, किंतु उसकी नीयत पर संदेह करना अथवा उसे निरंकुश राज्य का समर्थक मानना—सर्वथा अनुचित होगा ! अज्ञानता के कारण ही सही प्राचीन भारत और विश्व में पशुबलि को मानवकल्याण के लिए जरूरी माना जाता रहा है ! भारत में जब बौद्ध धर्म का उदय हुआ तो बुद्ध ने न केवल पशुबलि का जोरदार विरोध किया था, बल्कि आत्मा और परमात्मा जैसे विषयों पर चर्चा को भी अनावश्यक माना था ! जबकि श्रमण परंपरा को छोड़कर बुद्ध से पहले का लगभग पूरा का पूरा भारतीय दर्शन उन्हीं विषयों पर केंद्रित था ! चूंकि बौद्ध दर्शन वृहद जनसमाज के हितों का पक्ष लेता था तथा पशुबलि का निषेध लोगों के आर्थिक-सामाजिक विकास से भी जुड़ा था, इसलिए ऐसे लोगों ने बौद्ध धर्म को हाथों-हाथ अपनाया जो पिछली व्यवस्था में अभाव और उत्पीड़न झेलते आए थे ! बौद्ध धर्म अपेक्षाकृत समानता पर जोर देता था ! उनके प्रभाव के चलते समाज में जातीय वैमनस्य में कमी आई थी ! उसके फलस्वरूप सामाजिक असंतोष भी घटा था !

प्लेटो के अनुसार इच्छाओं का पूर्ण सामान्यीकरण असंभव है ! दो इच्छाओं के बीच चयन उस समय संभव नहीं है, जब तक व्यक्ति का किसी एक इच्छा की ओर विशेष झुकाव न हो ! यदि उनमें से एक भी इच्छा से उसकी सहमति नहीं है तो वह उनका विरोध करेगा ! इसके लिए व्यक्ति में नैतिक साहस का होना जरूरी है ! जहां नैतिक सहमति-असहमति आसान न हो, वहां बल-प्रयोग की संभावना बनी ही रहती है ! ‘रिपब्लिक’ में थ्रेचाइमच्स जब यह कहता है कि ‘न्याय ताकतवर के हितलाभ के सिवाय कुछ नहीं है,’ उस समय वह सुकरात सहित उन सभी साथियों से असहमति दर्शा रहा होता है, जो उसके मत के विरोध में हैं ! न्याय को सबल का एकाधिकार कहने वाला थ्रेचाइमच्स अकेला व्यक्ति नहीं था ! उसका मत न केवल सोफिस्ट विचारकों से प्रेरित था, बल्कि जनसाधारण के सामान्य सोच का भी प्रतिनिधित्व करता है ! दुनिया में लगभग नब्बे प्रतिशत लोग आस्थावादी हैं ! हर श्रद्धालु मानता है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है और वही सच्चा न्यायकर्ता भी है !

भारत में धर्म को, जिसका पूरा कारोबार ईश्वर और डर पर टिका है, न्याय के रूप में थोपा जाता रहा है ! इसका अर्थ यह नहीं है कि हर व्यक्ति दूसरों पर शासन करने का सपना देखता है; या अधिकांश लोग शासित होने को अपनी नियति माने रहते हैं ! सच तो यह है कि सुख की कामना प्रत्येक व्यक्ति को होती है ! सुख और सुरक्षा पर खतरा उसे प्रतिरोध के लिए उकसाता है ! समाज को अंतर्द्वंद्वों और अनावश्यक विक्षोभों से बचाने के लिए आवश्यक है कि नागरिकों के बीच असमानता का स्तर न्यूनतम हो !

उनमें यह भरोसा बना रहे कि राज्य न्याय के समर्थन और सुरक्षा में खड़ा है ! इसलिए बात जब आदर्श समाज की होगी, तो लोकहित से जुड़े मुद्दों की समीक्षा की मांग भी उठेगी ! सच यह भी है कि अधिकांश समाज न्याय की वस्तुनिष्ठ समीक्षा और उसकी व्याप्ति की ओर से उदासीन रहते हैं ! सरकारें सत्ताधारी वर्ग के जो संख्या में अल्प हैं, हित साधने में लगी रहती हैं ! इस कारण ‘न्याय’ की वस्तुनिष्ठ समीक्षा, उसकी संकल्पना पर गंभीर विमर्श संभव नहीं हो पाता ! कारण यह भी है कि अधिकांश लोग न्याय के वृहत्तर संदर्भों से अपरिचित होते हैं ! वे उसे किसी अदालती ‘फैसले’ के रूप में लेते हैं, जिसमें दो पक्षों के बीच तीसरा पक्ष जो घटना से पूरी तरह अनजान है, निर्णायक पक्ष की भूमिका निभाता है !

तीसरा पक्ष हालांकि राज्य का प्रतिनिधित्व करता है ! इसने भी न्यायविदों और राजनीति विज्ञानियों के लिए सदैव समस्याएं उत्पन्न की हैं ! उनमें से एक बड़ी समस्या है कि ‘अच्छे’ और ‘बुरे’, ‘पाप’ और ‘पुण्य’ की तार्किक व्याख्या कैसे संभव हो? वे कौन से मानक हैं, जिनके आधार पर इनके बीच एक स्पष्ट विभाजनरेखा खींच पाना संभव है? यह समस्या प्लेटो के सामने भी थी ! वह विविध स्थितियों की व्याख्या करता है, जिन्हें न्यायसंगत माना जा सकता है ! बहस को प्रभावित करने के बजाय वह केवल दर्शक के रूप में मौजूद है ! वह देखता है कि सुकरात जैसे विद्वान की उपस्थिति के बावजूद बहस के दौरान कोई न कोई पक्ष सदैव असंतुष्ट बना रहता है !

फिर विमर्श का समापन कहां पर हो? ‘आदर्श पसंदों’ का विचार इसी की परिणति था ! ‘आदर्श पसंदों’ से उसका अभिप्राय ऐसी पसंदों से था, जिनकी अधिकांश लोग कामना करते हों ! परोक्ष रूप में यह भी बहुमत की दादागिरी हुई, जिसे न्याय की दृष्टि से निरापद नहीं कहा जा सकता ! लोकतंत्र को ‘बहुमत की दादागिरी’ बताकर प्रायः उसकी आलोचना की जाती है ! दादागिरी या निरंकुश आचरण किसी का भी हो सकता है ! राजशाही में अकसर उस व्यक्ति की दावेदारी चलती थी, जिसके हाथों में राजमुद्रा हो ! धर्म को लोककल्याणकारी बताया जाता है ! परंतु वह भक्त और भगवान दोनों की अतियों पर निर्भर करता है ! भक्त समर्पण की उच्चतम सीमा तक समर्पित होता है ! ईश्वर उच्चतम सीमा तक निरंकुश और तानाशाह, परिणामस्वरूप धर्म के नाम पर हुए धत्त्कर्म को जीवन के आदर्श की तरह थोपा जाता है !

एक प्रकार से यह भी अति ही है ! व्यावहारिक सोच यही है कि चयन जब ‘बहुमत की दादागिरी’ और ‘अल्पमत की दादागिरी’ के बीच हो तो न्याय को पहले के पक्ष में झुके हुए नजर आना चाहिए ! आदर्शवादी प्लेटो को इस तरह का व्यावहारिक चलन नापसंद था ! उसके अनुसार न्याय के लिए कोई बीच का रास्ता नहीं होता ! न्याय या तो न्याय होता है, अथवा न्याय नहीं होता ! उसके सामने अपने आदर्श नगर-राज्य की समृद्धि और सुरक्षा का मसला बहुत बड़ा था ! लोकतंत्र की विकृतियों को वह देख-समझ सका था ! इसलिए न्याय पर चर्चा करते हुए उसकी अन्यान्य स्थितियों पर चर्चा करता है तथा निर्णय पाठक के विमर्श के लिए छोड़ देता है ! उसके लिए यह समीचीन भी था !

क्या न्याय को धर्म के आधार पर परिभाषित किया जा सकता है? जो समाज ईश्वर को हाजिर-नाजिर मानकर न्याय करने का दावा करते हैं, क्या उनकी वैचारिकी को आदर्श समाज की वैचारिकी के बराबर माना जा सकता है? प्लेटो इसपर विचार नहीं करता ! एक सपाट-सी व्याख्या में वह कह देता है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा—इसका निर्धारण ईश्वर करता है ! इससे समस्या सुलझने के बजाय और भी उलझ जाती है !

सब जानते हैं कि ईश्वर अपनी इच्छा के बारे में किसी से भी संवाद नहीं करता ! उसका अपना अस्तित्व ही संद्धिग्ध है ! वह अपने भक्तों के विश्वास से परे, जिसे वे अपना धर्म मानते हैं, कुछ भी नहीं है ! बावजूद इसके धर्माचार्य दावा करते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति जो कथित ईश्वरेच्छा को अपनी इच्छा मान लेता है—वही सत्पुरुष है ! उनके अनुसार ईश्वर परमकल्याणकर्ता है, अतएव उसकी इच्छा और कर्तव्यों को शुभ का आधार माना जा सकता है ! पर ईश्वर की इच्छा जाहिर कैसे हो? यह कैसे तय हो कि ईश्वर यही चाहता है? क्या ऐसा भी रास्ता है, जिससे कथित ईश्वरेच्छा का सटीक अनुमान लगाया जा सके? दूसरे जिसे ईश्वरेच्छा होने का दावा किया जाता है, उसके प्रमाणन का सही रास्ता क्या हो? कैसे तय किया जाए कि जिसे ईश्वरेच्छा बताया जा रहा है, वही श्रेष्ठतम विकल्प है ! चूंकि ऐसा कोई रास्ता व्यवहार में संभव नहीं है ! ईश्वरेच्छा अपने आप में अप्रामाणिक है ! इसलिए उसके अनुयायी उसे आस्था का विषय बनाकर पेश करते हैं !

सच तो यह है कि जिसे ईश्वरेच्छा बताकर उसके अनुयायियों द्वारा आरोपित किया जाता है, वह वास्तव में उसके अनुयायियों की ही इच्छा होती है ! धर्म और ईश्वरेच्छा के नाम पर ऐसे पाखंड पुरोहित वर्ग शदियों से रचता आ रहा है ! हो सकता है धर्मानुशासन से समाज का थोड़ा-बहुत भला होता हो ! परंतु उसके माध्यम से होने वाला नुकसान उससे कहीं अधिक होता है ! दरअसल ‘शुभ’, ‘अशुभ’, ‘पाप’, ‘पुण्य’ आदि अवधारणाएं व्यक्ति-सापेक्ष होती हैं ! ‘वस्तुनिष्ठ सत्य’ जैसा कुछ नहीं है ! हां, सीमित संदर्भों में व्यक्ति ‘सत्य’ अथवा ‘असत्य’ के बारे में अनुमान अवश्य लगा सकता है ! ठीक ऐसे ही जैसे यह जान लेना कि ‘वर्फ’ सफेद है ! यहां सफेद रंग वर्फ का प्रमुख लक्षण है, परंतु ‘सफेद’ कह देने-भर से वर्फ का बोध नहीं होता ! बगुले का रंग भी सफेद होता है !

यह संज्ञा मनुष्य की ओर से ही एक रंग विशेष के नाम की गई है ! कोई व्यक्ति वर्फ के रंग का बयान कर सकता है ! पर यदि कोई ऐसा व्यक्ति जिसने सफेद वर्फ कभी देखी ही न हो, वह वर्फ के रंग के बारे में दावे के साथ कोई बात नहीं कह सकता ! तो भी सामान्य जानकारी में यह कहना कि वर्फ सफेद होती है, कि महात्मा गांधी की हत्या हुई थी, कि जवाहर लाल नेहरू इस देश के प्रथम प्रधानमंत्री थे, कि 1947 में भारत का विभाजन एक सच्ची ऐतिहासिक घटना है जैसी कुछ बातें हैं जो लोकसम्मति के आधार पर सच मान ली जाती हैं !

प्लेटो मानता था कि ‘शुभ’ की सत्ता है तथा उसको पहचाना जा सकता है ! अपने आदर्शलोक में वह उन स्थितियों पर जोर डालता है, जिनके द्वारा मनुष्य के आचरण को नैतिक बनाए रखकर शुभ की संभावना को बढ़ाया जा सकता है ! उसका मानना था कि आदर्श गणतंत्रात्मक राज्य भी अपने आप में ‘शुभ’ है ! हालांकि गणतंत्र की कोई स्पष्ट परिभाषा वह नहीं देता ! जिस आदर्शलोक की परिकल्पना वह ‘रिपब्लिक’ में करता है, उसमें जबरदस्त आर्थिक-सामाजिक स्तरीकरण है ! निकृष्ट दासप्रथा है !

सुकरातकालीन एथेंस की तीन लाख की आबादी में लगभग आधी दास और अर्धदास लोगों की थी, जिन्हें सामान्य जीवन जीने के लिए आवश्यक न्यूनतम अधिकारों से भी वंचित रखा गया था ! प्लेटो की आलोचना का यह बड़ा आधार है ! स्वयं प्लेटो के समय में भी उसके कई आलोचक और विरोधी थे ! लेकिन प्लेटो के चिंतन का दायरा विशद है ! उसकी आलोचना की जा सकती है ! असहमत भी हुआ जा सकता है ! स्वयं प्लेटो ने अपने साथियों के असमति के अधिकार की रक्षा की है ! लेकिन उसके चिंतन को नकारा नहीं जा सकता ! प्लेटो के दर्शन को लेकर थ्रेचाइमच्स की टिप्पणी सहस्राब्दियों बाद भी प्रासंगिक है ! उसका कहना था—‘प्लेटो से सहमति अथवा असहमति का प्रश्न ही नहीं है ! प्रश्न सिर्फ इतना है कि आप प्लेटो के आदर्शलोक की कल्पना से कितने और कहां तक सहमत हैं? यदि आप उससे सहमत हैं तो यह आपके लिए शुभ है; और यदि आप उससे असहमत हैं तो निश्चय ही यह आपके लिए बुरा है !’

कुल मिलाकर प्लेटो के दर्शन में ऐसा बहुत कुछ है, जो उससे असहमति से बावजूद बुद्धिजीवियों को प्रेरित और आकर्षित करता आया है ! उसके आदर्शलोक की विशेषता यह भी है कि वह केवल बौद्धिक विमर्श और कागजों तक सीमित नहीं था, बल्कि उसकी स्थापना वास्तविक धरातल पर संभव हुई थी ! उसके अनेक प्रावधान जिन्हें अव्यावहारिक माना जाता है, जैसे बच्चों को उनके माता-पिता से दूर रखकर उनकी पहचान को छिपाकर पालना-पोसना स्पार्टा से लिए गए थे ! दार्शनिक सम्राट का प्रयोग भी अनेक राज्यों में आजमाया जा चुका था ! अनेक सम्राट ऐसे थे जो अपने राज्यों में दार्शनिकों को उच्च स्थान पर रखते थे, यद्यपि ऐसे राज्यों की सफलता के बारे में सटीक टिप्पणी कर पाना संभव नहीं है ! सही मायने में प्लेटो सबसे पहला दार्शनिक था, जिसने ऐसे समानता पर आधारित समाज का सपना देखा था ! जहां संसाधनों का उपयोग संपूर्ण समाज के भले के लिए किया जाता हो ! इसलिए उन सबके लिए वह आज भी सम्मानेय है, जो आमूल परिवर्तन का सपना अपनी आंखों में पाले हुए हैं !

भारत में व्यावहारिक नैतिकता पर जोर देने का काम सुकरात से थोड़ा पहले बुद्ध ने किया था ! बुद्ध की न्याय-संबंधी अवधारणा व्यैक्तिक एवं सामूहिक हितों से मिलकर बनी थी ! उनके अनुसार व्यक्तिमात्र की खुशी आत्मलाभ में होती है ! यानी हर कोई अपनी खुशी चाहता है ! यह मनुष्य की सामान्य प्रवृत्ति है ! दूसरी ओर समाज का हित सामूहिक लाभ में होता है ! चूंकि समाज व्यक्ति-सापेक्ष रचना है ! उसमें व्यक्ति स्वयं समाहित हैं, इसलिए समाज-हित तभी संभव है जब उसमें व्यक्तिमात्र के हितों की सुरक्षा होती हो ! इसलिए न्याय का अभिप्रायः ‘सामूहिक आत्मलाभ’ है ! ऐसी व्यवस्था जिसमें समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने तथा बाकी सदस्यों के सुख एवं सुरक्षा के प्रति आश्वस्त हो !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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