मनुस्मृति के अध्याय 3 के श्लोक 201 के अनुसार पितृ शब्द की उत्पत्ति पा रक्षणे धातु से है ! जो पालन या रक्षण करे वह पितृ है ! कर्मकाण्डी पंडितों के अनुसार पितृ शब्द का अर्थ एकवचन रूप पिता = जन्म या पालन करने वाला पुरुष है ! द्विवचन पितरौ का अर्थ माता-पिता है ! बहुवचन पितरः का अर्थ सभी पूर्वज हैं !
जबकि पितृ शब्द का व्यापक अर्थों में प्रयोग किसी न किसी प्रकार के सृष्टि की उत्पत्तिकर्ता, संचालक या पालक के लिये किया गया है ! जैसे ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितृभ्यो देवदानवाः ! देवेभ्यश्च जगत् सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥ आदि आदि !
शास्त्रों के अनुसार ऋषियों से पितृ हुये, पितरों से देव-दानव, देवों से पूरा जगत् हुआ ! जगत् में अनुपूर्वशः चर और स्थाणु लिखा है ! यह निश्चित रूप से मनुष्य या अचर नहीं है जो आगे पीछे के क्रम से हों (अनुपूर्वशः) ! इसमें चर-अचर का कोई निश्चित क्रम नहीं है ! जो आज चर है, वह प्राण या शक्ति समाप्त होने पर अचर हो जायेगा !
यहां केवल अचर नहीं, स्थाणु अर्थात् धुरी जैसा स्थिर कहा है ! यह तीन प्रकार के परमाणु के कण हैं ! स्थाणु = भारी, परमाणु की नाबि के कण, जिनको संयुक्त रूपसे बेरिओन (भारी) कण कहते हैं ! हलके चक्कर लगाने वाले सभी कणों को लेप्टान कहते हैं ! विभिन्न कणों को जोड़ने वाले कण मेसोन (राज मिस्त्री) हैं !
शास्त्रों के अनुसार यह जगत् का सूक्ष्म रूप है ! इनकी उत्पत्ति देवों से हुई ! दानव या असुर प्राण उत्पादक नहीं हैं ! देव-दानव पितरों से हुए, इनको आज की भाषा में क्वार्क कहा जा सकता है ! यहां पितृ का अर्थ हुआ प्रोटो-टाईप, निर्माणाधीन अवस्था !
इसी तरह संस्कृत भाषा विदों के अनुसार वैष्णव गुरुकुलों की दो आर्य परम्परा श्रुति और स्मृति में पितृ शब्द कई पर्यायवाची अर्थों में प्रयुक्त हुआ है ! जिन्हें अब आम बोलचाल की भाषा में अलग शब्द मान लिया गया है ! लेकिन शास्त्र निर्माता इन शब्दों को पितृ का पर्यायवाची शब्द ही मानते थे ! जैसे अग्नि, सोम, ऋतु, औषधि, मन, ऊम (मित्र, सहचर), ऊर्व आदि !
इसलिए पितृ शब्द को कभी भी संकीर्ण अर्थ में नहीं लेना चाहिये ! पितृपक्ष की स्थापना का मूल उद्देश्य जीव को प्राण ऊर्जा देने वाले सभी तरह के प्राकृतिक संसाधनों को धन्यवाद प्रदान करना है ! न की मात्र अपने पूर्वजों को चावल के आटे से बने हुआ पिंड देना !
वर्तमान समय में पंडितों ने अपने धन कमाने के लिये प्रकृति पूजन को पितृ पूजन शब्द अर्थात पूर्वजों की पूजा से जोड़ दिया है ! जबकि यह एक विस्तृत शब्द है !
श्रीमद्भगवद्गीता और महाभारत के विभिन्न स्थानों पर इस शब्द का प्रयोग जीव को प्राण ऊर्जा देने वाले सभी तरह के प्राकृतिक संसाधनों के रूप में अलग अलग संदर्भ में किया गया है !
इसलिए हमें पितृ पक्ष के विधान को हल्के में नहीं लेना चाहिये ! बल्कि आज इस सृष्टि पर जो जीव वंश क्रम संचालित है वह प्राकृतिक द्वारा प्रदत्त जीवनी शक्ति से संचालित है ! जिसके लिये हम प्रकृति को वर्ष में एक बार जब वर्षा ऋतु के उपरांत प्रकृति अपने पूर्ण शबाव पर होती है, तब हम उसे 15 दिन तक अपने-अपने तरीके से धन्यवाद देते हैं !!