हिंदू धर्म के पवित्र ग्रन्थों को दो भागों में बाँटा गया है- श्रुति और स्मृति ! श्रुति (शाब्दिक अर्थ “सुना हुआ” है) संस्कृत ग्रंथों का एक वर्ग है जिसे रहस्योद्घाटन के रूप में माना जाता है ! वहीं स्मृति (शाब्दिक रूप से ‘याद किया हुआ’) ग्रंथों का एक वर्ग है जो स्मृति पर आधारित है ! इनकी भूमिका प्राथमिक रहस्योद्घाटन को स्पष्ट करने, व्याख्या करने और अनुवाद करने में रही है !
श्रुति में स्वयं भगवान द्वारा प्रकाशित पाठ निहित हैं, इसलिए यह निर्णय या मूल्यांकन के लिए उन्मुक्त नहीं है ! श्रुति प्रकृति में निर्विवाद और विहित है और इसमें मुख्य रूप से चार वेद (ऋग्वेद, यजूर वेद, साम वेद, अथर्ववेद) मौजूद हैं !
चारों वेद हिंदू धर्म के विभिन्न पहलुओं से संबंधित हैं और वह काव्य भजनों के रूप में हैं ! सामान्य तौर पर, इन चार वेदों में निहित पवित्र पाठ को तीन उपसमूह के अंतर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है, जो इस प्रकार हैं, संहिता, उपनिषद्, ब्राह्मण-ग्रन्थ और आरण्यक !
हिंदू धर्म के सभी छह रूढ़िवादी गुरुकुल श्रुति के अधिकार को स्वीकार करते हैं, लेकिन इन गुरुकुलों में कई विद्वानों ने इस बात से इनकार किया कि श्रुति ईश्वरीय वाणी है !
नास्तिक दर्शनिक चार्वाक, गौतम बुद्ध जैसे लोगों ने श्रुतियों के अधिकार क्षेत्र को स्वीकार नहीं किया है और उन्हें इसे मानवीय कार्य माना है ! जिस वजह से सनातन ज्ञान का रोजगार करने वाले ब्राह्मण पंडितों ने इन दार्शनिकों को आस्था के अभाव में नास्तिक कहा है !
नास्तिक शब्द का ईश्वर के प्रति आस्था से कोई लेना देना नहीं है ! दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि ब्राह्मण पंडित समाज जिन ग्रंथों को ईश्वरीय वाणी बतलाकर भावनात्मक आधार पर अपना व्यवसाय करते हैं ! उन ग्रंथों को मानसिक तर्क के आधार पर जिन विचारकों ने ईश्वरीय वाणी नहीं माना है ! उन लोगों को ब्राह्मण पंडितों ने नास्तिक शब्द दिया है !
तथाकथित धर्म युद्ध महाभारत में वैष्णव परंपरा के राजाओं की बड़े पैमाने में मृत्यु हो जाने के बाद जब गुरुकुलों का पोषण करने वाले राजा नहीं रहे, तब योग्य आचार्य पोषण के अभाव में आत्म सम्मान की रक्षा के लिए अपने निवास स्थलों को छोड़कर हिमालय आदि निर्जन स्थलों पर तप करने चले गये !
तब व्यास परंपरा के विचारकों ने सनातन ज्ञान के क्षय को देखते हुये, उसकी रक्षा के लिये सभी ग्रंथों को लिपिबद्ध करना आरम्भ किया ! जो परंपरा लगभग 28 पीढ़ी तक चलती रही ! इसी काल में साहित्य लेखन के लिये संस्कृत व्याकरण पर भी बहुत कार्य हुआ !
किसी काल में लेखन करने के लिए व्यास के सहायक वर्ग की समाज में उत्पत्ति हुई ! जो ब्राह्मणों के अलावा अन्य वर्णों के भी हुआ करते थे ! अतः इन्हें ब्राह्मणों जैसा सम्मान तो नहीं मिलता था लेकिन फिर भी समाज में धर्म ग्रन्थ लेखक के रूप में इनका सम्मान था ! लेकिन विद्वान् होने के बाद भी इन लोगों को ब्राह्मणों की तरह कर्मकांड करने की आज्ञा नहीं थी !
इसलिए इस वर्ग के लोगों ने अपने नये आराध्य की उत्पत्ति की ! जिन्हें गणेश कहा गया ! यहीं से गणपति संप्रदाय प्रारंभ हुआ तथा ब्राह्मणों ने इस वर्ग को संतुष्ट करने के लिए सामान्य कर्मकांड के पूर्व इनके आराध्य गणेश के पूजन का विधान अपने कर्मकांड में शुरू किया ! यहीं से गणेश की प्रथम पूजा की जाने लगी !
क्योंकि तत्कालीन ब्राह्मण समाज यह जानता था कि समाज का यदि यह वर्ग संतुष्ट नहीं होगा, तो मात्र धन के आधार पर धर्म ग्रंथों को लिपिबद्ध किया जाना संभव नहीं है ! अतः तत्कालीन ब्राह्मण विचारकों द्वारा इस वर्ग को संतुष्ट करने के लिए गणेश पूजन को कर्मकांड का हिस्सा बना लिया गया !
इसी तरह से हिंदू धर्म के सनातन शास्त्रों का भौतिक लिखित स्वरूप समाज को उपलब्ध हुआ ! वरना इसके पूर्व तो गुरु शिष्य परंपरा में श्रुति और स्मृति के आधार पर ही शिक्षा अगली पीढ़ी को दी जाती थी !
इसीलिये आधुनिक युग में उपलब्ध लगभग सभी मुद्रित संस्करणों को अधिक से अधिक लगभग 5000 वर्ष पुरानी पांडुलिपियों से अनुकृत किया गया है ! इससे प्राचीन लिखित साहित्य आज तक समाज में उपलब्ध नहीं हुआ है !