यह शास्त्रीय अवधारणा है कि तर्पण में पूर्वजों को अर्पित किया जाने वाले जल में दूध, जौ, चावल, तिल, चंदन, फूल आदि से हमारे पूर्वज तृप्त होकर हमें आशीर्वाद देते हैं !
इसके लिये कुशा के सहारे से जल की छोटी-सी अंजलि मंत्रोच्चार पूर्वक इस भाव के साथ पात्र में डाली जाती है कि मैं इस जल को अपने पूर्वजों को दे रहा हूँ ! जिससे हमारे पूर्वज तृप्त होंगे !
जबकि यह जलांजलि श्रद्धा, कृतज्ञता, सद्भावना, प्रेम, शुभकामनायें आदि मात्र भावनाओं का विषय है ! इसका पित्रों से कोई लेना देना नहीं है ! क्योंकि आत्मा रूपी पितृ या तो मृत्यु के बाद पुन: शरीर धारण कर चुके होते हैं या फिर अनंत ब्रह्मांड के कारण शरीर में स्थापित हो जाते हैं ! जहां उन्हें कोई भूख प्यास आदि नहीं सताती है ! जब तक कि वह प्रेत योनि में न चले जायें !
और यदि पितृ प्रेत योनि में चले गये हैं, तो भी आपके किसी भी औपचारिक कर्मकांड से उनका कोई भला नहीं होता है ! क्योंकि जो पितृ प्रेत योनि में गया है ! वह पितृ निश्चित रूप से ऐसी कामना और वासना में फंसा हुआ है ! जिसे कोई भी सांसारिक व्यक्ति तृप्त नहीं कर सकता है ! यह सारा खेल आपको आपके पूर्वजों से भावनात्मक रूप से जोड़े रहने का है ! इसका किसी भी आत्मा से कोई संबंध नहीं है !
फिर भी विभिन्न धर्म ग्रंथों में इसकी पैरवी बड़े जोर शोर से की जाती है और यह भी बतलाया जाता है कि हमारी पितृ तर्पण श्राद्ध प्रक्रिया में 6 तरह के तर्पण कृत्य आते हैं ! उनके नाम इस प्रकार हैं देवतर्पण, ऋषितर्पण, दिव्यमानवतर्पण, दिव्यपितृतर्पण, यमतर्पण और मनुष्यपितृतर्पण ! इनके पीछे भिन्न-भिन्न धार्मिक दार्शनिक पक्ष भी बतलाये गये हैं !
देवतर्पण के अंतर्गत जल, वायु, सूर्य, अग्नि, चंद्र, विद्युत एवं अवतारी ईश्वर अंशों की मुक्त आत्माएं आती हैं, जो मानव कल्याण हेतु निःस्वार्थ भाव से प्रयत्नरत हैं !
ऋषि तर्पण के अंतर्गत नारद, चरक, व्यास दधीचि, सुश्रुत, वसिष्ठ, याज्ञवल्क्य, विश्वामित्र, अत्रि, कात्यायन, पाणिनि आदि ऋषियों के प्रति श्रद्धा आती है !
दिव्य मानव तर्पण के अंतर्गत जिन्होंने लोक मंगल के लिए त्याग-बलिदान किया है, जैसे-पांडव, महाराणा प्रताप, राजा हरिश्चंद्र, जनक, शिवि, शिवाजी, भामाशाह, गोखले, तिलक आदि महापुरुषों के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति की जाती है !
दिव्य पितृ तर्पण के अंतर्गत जो अनुकरणीय परंपरा एवं पवित्र प्रतिष्ठा की संपत्ति छोड़ गये हैं, उनके प्रति कृतज्ञता हेतु तर्पण किया जाता है !
यम तर्पण जन्म-मरण की व्यवस्था करने वाली शक्ति के प्रति और मृत्यु का बोध बना रहे, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये इसे करते हैं !
मनुष्य पितृ तर्पण के अंतर्गत परिवार से संबंधित सभी परिजन, निकट संबंधी, गुरु, गुरु-पत्नी, शिष्य, मित्र आते हैं, यह उनके प्रति श्रद्धा भाव है !
इस प्रकार तर्पण रूपी कर्मकांड के माध्यम से हम अपनी सद्भावनाओं को जाग्रत करते हैं, ताकि वे सत्प्रवृत्तियों में परिणत होकर हमारे जीवन लक्ष्य में सहायक हो सकें !
शास्त्रों में कहीं-कहीं दैनिक तर्पण का भी वर्णन किया गया है क्योंकि कुछ शास्त्रकारों का यह मत है कि वर्ष में मात्र एक दिन किया गया तर्पण कर्म पर्याप्त नहीं है ! जैसे किसी व्यक्ति को वर्ष में 1 दिन भोजन जल आदि दे देने से वह सुखी नहीं हो सकते हैं ! ठीक इसी तरह किसी भी आत्मा को भी वर्ष में मात्र 1 दिन भोजन आदि दे देने से वह भी संतुष्ट नहीं होगी !
यह आत्मा के मनुष्य करण का प्रतीक ज्ञान है ! जबकि पंचतत्व से निर्मित पिण्ड से मुक्त आत्मा इन सभी सांसारिक क्रियाओं से प्रकृति की व्यवस्था के तहत स्वत: ही मुक्त होती है !
दूसरा तर्क यह भी है कि मनुष्य के अतिरिक्त 84 लाख योनियों में अन्य कोई जीव तर्पण आदि कर्म नहीं करता है ! जबकि शास्त्रों के अनुसार सभी जीवों में एक ही तरह की आत्मा का निवास होता है ! तो फिर क्या अन्य योनियों के पिंड छोड़ देने के उपरांत वह सब आत्मा भूखी प्यासी ही इस ब्रह्मांड में घूमती रहती हैं !
यह गहन विचार और शोध का विषय है ! इसको बिना किसी अनुभूति के स्वीकार या अस्वीकार नहीं किया जा सकता है ! या फिर इसे मात्र कर्मकांडी पंडितों का फैलाया हुआ धार्मिक मकड़जाल भी नहीं कहा जा सकता है !!