यह एक प्राचीन अवधारणा है कि लोग मेहनत करने से बड़े आदमी बन सकते हैं ! जो कि आज के इस भौतिक युग में पूरी तरह से गलत सिद्ध हो रहा है ! आज मेहनत करने वाला इंसान जीवन भर बस सिर्फ मेहनत करता रह जाते हैं और जोड़ जुगाड़ लगाकर कार्य करने वाला इंसान बहुत ही कम समय में एक संपन्न व्यक्ति बन जाता है !
यह प्रकृति का चमत्कार नहीं बल्कि सामाजिक व्यवस्था का दोष है ! जिसमें मेहनत करने वाला इंसान जीवन भर अपने आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संघर्ष करता रहता है और अंततः संसाधनों के अभाव में इस दुनिया को छोड़ कर चला जाता है !
उसे उसके मेहनत के बदले न तो समाज में ही कभी सम्मान मिल पाता है और न ही परिवार में, बल्कि सच्चाई तो यह है कि उसके अपने ही परिवार के जो लोग जोड़ जुगाड़ के द्वारा कुछ भौतिक संसाधन इकट्ठे कर लेते हैं और समाज उन लोगों को ही जीवन में सफल मान लेता है और मेहनत करने वाले व्यक्ति को जीवन भर मूर्ख और बेवकूफ माना जाता है !
शायद यही कारण है कि अब आज का नौजवान मेहनत से ज्यादा जोड़ जुगाड़ में विश्वास करने लगा है ! इसी वजह से समाज के नैतिक मूल्य दिन प्रतिदिन खत्म होते जा रहे हैं और इंसान मात्र कुछ भौतिक कबाड़ को इकट्ठा करने के लिए आज अपनों को ही धोखा देने में बिल्कुल भी संकोच नहीं कर रहा है !
उसी का परिणाम है कि समाज बिखर गया है और अब व्यक्ति समाज में नहीं बल्कि एक संवेदना विहीन भीड़ में जी रहा है ! जहां न तो कोई परिवार है और न ही कोई सम्मान ! आज कोई किसी के सुख दुख में खड़ा भी नहीं हो रहा है ! इसी कारण लोगों में अवसाद की स्थिति पैदा हो रही है ! जिसका अंतिम लक्ष्य आत्महत्या ही होता है !
आज जोड़ जुगाड़ की सफलता ने समाज में योग्य व्यक्ति को जिस तरह से किनारे कर दिया गया है ! उसी का परिणाम है कि अब पूरा का पूरा समाज दिशा विहीन होकर मात्र भौतिक कबाड़ को इकट्ठा करने में लगा हुआ है ! न तो वह अपने परिश्रम के पैसे का सही सदुपयोग कर पा रहा है और न ही किसी दूसरे के जीवन को बनाने के लिए उस भौतिक संसाधन का ही उपयोग हो पा रहा है !
व्यक्ति का दिल संवेदना विहीन हो जाने के कारण आज व्यक्ति एकदम एकांगी जीवन जी रहा है ! जहां दिल खोल कर बात करने वाले कोई नहीं है ! भावनाओं पर होने वाली निरंतर चोट व्यक्ति को एक कठोर पत्थर में बदल दे रही है ! जहां पर व्यक्ति धीरे-धीरे घुट-घुट कर रोज ब रोज मर रहा है और डॉक्टर उस घुटन को किसी रोग का नाम दे देते हैं !
और व्यक्ति भ्रमवश बस दवाइयां खाते-खाते ही एक दिन इस दुनिया से विदा हो जाता है ! फिर भी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है ! क्योंकि वह घुट-घुट कर मरने वाला व्यक्ति अब शायद समाज के लिए उपयोगी नहीं रह गया था !
क्या मानवता कभी इतनी एकांकी थी ! नहीं, यदि ऐसा रहा होता तो पूरी दुनिया में मनुष्य प्रजाति न जाने कब की विलुप्त हो गई होती ! मनुष्य भावनाओं और संवेदनाओं का पुंज है ! यहीं से उसकी जीवनी शक्ति का संचालन होता है ! यदि उसकी भावनाओं को पोषण और संवेदनाओं को सराहना नहीं मिलेगी, तो निश्चित रूप से इस पृथ्वी से मानवता ही नहीं एक दिन मनुष्य भी खत्म हो जाएगा !
इसलिए सावधान, यदि तुम संवेदना विहीन इंसान बने रहोगे, तो एक दिन इस धरती पर न तो तुम होगे और न ही तुम्हारा कोई उत्तराधिकारी होगा ! इसलिए यदि तुम्हें जीवित रहना है तो तुम्हें संवेदनशील बनना ही होगा ! अपने ही नहीं अपने आसपास की प्रकृति जीव-जंतु और वातावरण के प्रति भी ! यही मानवता के रक्षा का सूत्र है !