यहाँ चर्चा विज्ञान से अधिक अध्यात्म की है या यूँ कहें कि प्रकृति के व्यवस्था की है ! जैसा कि आध्यात्मिक विज्ञान से स्पष्ट किया गया है कि सूक्ष्म शरीर यह जानता है कि गर्भधारण के बाद बना एक विशेष युग्मनज पिण्ड किसी सूक्ष्म शरीर के लिये ही निर्मित हुआ है !
गर्भ में प्रवेश पूर्व के प्रथम तीन महीनों में सूक्ष्म शरीर अधिकतर उसी सूक्ष्मलोक में रहता है ! जहां से वह शरीर धारण करने हेतु आया होता है ! गर्भ में प्राय: नहीं आता है ! तीसरे महीने के बाद सूक्ष्म शरीर अधिकतर गर्भ में निवास करता है ! गर्भ में प्रवेश का समय अलग अलग जीव का अलग अलग हो सकता है ! गर्भ प्रवेश का समय तीसरे महीने से लेकर सातवें महीने तक भी हो सकता है ! सूक्ष्म शरीर जितना शीघ्र जीवन पाने की इच्छा वाला होगा उतना शीघ्र यह गर्भ में स्थान ले लेगा !
यह सारी प्रक्रिया एक घर बनाने के समान है ! साधरणत: हम निर्माण आरम्भ होने के समय ठेकेदार से बात करने के लिये उपस्थित होते हैं ! बीच-बीच में हम घर का निर्माण जांचने के लिये जाते हैं ! अन्त में हम घर में तभी प्रवेश करते हैं, जब घर पूर्ण हो जाता है ! गर्भधारण के समय से तीसरा महीना निर्माण के समान है ! तीसरे महीने के बाद भ्रूण का इतना विकास हो जाता है कि सूक्ष्म शरीर उसमें प्रवेश कर सकता है !
गर्भ में प्रवेश के पूर्व सूक्ष्म ज्ञान के आधार पर जीव निरन्तर उस गर्भ के आस पास के परिवेश और वातावरण का अवलोकन करता रहता है और जीव यह विश्लेषण करता है कि इस गर्भ से जन्म लेने पर क्या वह अपने पूर्व संचित संस्कार के अनुरूप कमाना की पूर्ति कर पायेगा या नहीं ! जब वह अपने उद्देश्य पूर्ति के लिये आश्वस्त हो जाता है, तब ही वह भुवलोक से गर्भ के भ्रूण में प्रवेश करता है ! अन्यथा भुवलोक में ही निवास करता है ! इसी कारण कहा जाता है कि यही सात्विक सन्तान चाहिये तो गर्भकाल में धर्म ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये !
गर्भ में प्रवेश करते हुए सूक्ष्म शरीर पर उस परिवार के पूर्वजों की शक्ति अथवा कुलदेवता आदि का प्रभाव पड़ता है ! गर्भ में बाद सूक्ष्म शरीर के रहने के लिये भ्रूण या गर्भ एक नया वातावरण होता है ! प्रायः सूक्ष्म शरीर पिछले जन्म का भौतिक शरीर छोडने के बाद भी स्वयं को उसी आकार का समझता है जैसा कि वह पिछले जन्म में था !
अत: गर्भधारण के समय युग्मनज का बहुत छोटा आकार इस जीव को भयावह लगता है ! वास्तव में यह बाधा मानसिक या कहें वैचारिक स्तर की है ! क्योंकि सूक्ष्म शरीर कोई भी रूप अथवा आकार ले सकता है ! अतः गर्भ के तीसरे माह तक गर्भाशय इतना बडा हो जाता है कि सूक्ष्म शरीर उसमें प्रवेश कर सकता है ! किन्तु फिर भी जीव की संस्कार गत मानसिक अस्वीकृति के कारण सूक्ष्म शरीर भ्रूण छोडकर बार-बार सूक्ष्म लोक आता-जाता रहता है ! समय बीतने के साथ-साथ सूक्ष्म लोक में आना जाना कम हो जाता है और प्रायः 7 वें माह के बाद यह गर्भ में स्थायी रूप से प्रवेश कर जाता है ! ऐसा इसलिये क्योंकि इस समय तक इसकी आसक्ति पहले के सूक्ष्म लोक से कम होकर पृथ्वी की ओर होने लगती है !
सूक्ष्म शरीर भ्रूण में कई मार्गों से प्रवेश कर सकता है ! 70% सूक्ष्म शरीर भ्रूण में त्वचा के माध्यम से प्रवेश करते हैं और 30% अन्य रन्ध्रों जैसे मुख, नासिका इत्यादि ! यदि होने वाली मां का आध्यात्मिक स्तर 70% से अधिक है, तो वह सूक्ष्म शरीर के प्रवेश की संवेदना को अनुभव कर सकती है ! साधारणत: ऐसी माताएं उच्च आध्यात्मिक स्तर के बालक को जन्म देती हैं !
प्रायः गर्भ में जीव के स्थाई प्रवेश के उपरांत जीव मां के आहार, विहार, विचार, परिवेश आदि का बड़ी सूक्ष्मता से परीक्षण करता है और यदि किसी कारणवश जीव को यह लगने लगता है कि उसने गलत गर्भ में प्रवेश कर लिया है या दूसरे शब्दों में कहें कि जीव को अपने संस्कारों की ऊर्जा और अपेक्षा के विपरीत यदि यह लगने लगता है कि जिस गर्भ में उसने प्रवेश किया है वहां उसके संस्कार और अपेक्षा की पूर्ति नहीं हो सकेगी तो उस स्थिति में जीव उस गर्भ का त्याग कर देता है !
गर्भ क्योंकि एक पिंड मात्र है और जीव उसका त्याग करके जा चुका होता है ऐसी स्थिति में वह पिण्ड मृत प्राय हो जाता है और उसके अंदर रासायनिक कारणों से विघटन शुरू हो जाती है जैसे मृत्यु के बाद शरीर से जीव के निकल जाने के उपरांत शरीर स्वत: गलने लगता है ! इसी रासायनिक विघटन से मां के जीवन को खतरा पैदा हो जाता है ! अतः मृत पिण्ड को मां के गर्भ से निकाल दिया जाता है !
अर्थात स्पष्ट है कि यदि जीव के गर्भ में प्रवेश करने के उपरांत उसे उस परिवार और परिवेश मैं अपने संस्कारों के अनुरूप अनुकूलता यदि नहीं समझ में आती है तो जीव उस गर्भ का त्याग कर देता है ! इसीलिए गर्भवती महिलाओं को सदैव प्रसन्न रखना चाहिये और उनकी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करना चाहिये ! जिससे वह एक स्वस्थ सुंदर और विद्वान संतान को जन्म दे सके !!