वैष्णव जीवन शैली में एक अवधारणा यह भी है कि “होई है वही जो राम रचि राखा” अर्थात इस दुनिया में आपके साथ जो कुछ भी होना है, उसे ईश्वर ने पहले से ही लिख रखा है या दूसरे शब्दों में कहा जाए कि आप इस दुनिया में जो भी कार्य करते हैं, वह ईश्वर की प्रेरणा से ही करते हैं !
आज हम लोग इसी विषय पर चर्चा करेंगे !
उपरोक्त अवधारणा को यदि सत्य मान लिया जाए तो मनुष्य द्वारा किए जाने वाले सभी अच्छे और बुरे कार्य ईश्वर द्वारा पूर्व से ही निर्धारित हैं !
मतलब व्यक्ति यदि किसी स्त्री के साथ बलात्कार करता है तो वह ईश्वर की प्रेरणा पर, ईश्वर की इच्छा से, ईश्वर द्वारा लिखे गए प्रारब्ध के वशीभूत करता है !
या यदि कोई व्यक्ति शराब पीता है, तो क्या माना लिया जाए कि वह ईश्वर की इच्छा पर शराब पी रहा है ! ऐसा सोचना ही व्यर्थ का विश्लेषण है !
यदि इस तर्क को सही मान लिया जाये, तो इस दुनिया के सभी अपराधों का मूल कारण ईश्वर ही है !
जबकि व्यवहारिक तौर पर ऐसा नहीं है ! इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि वैष्णव लेखकों द्वारा लिखा गया यह सिद्धांत “होई है वही जो राम रचि राखा” नितांत अव्यवहारिक है !
फिर प्रश्न यह खड़ा होता है कि सत्य क्या है और व्यक्ति किसके प्रभाव में अपराध करता है !
इसका सीधा सा जवाब है कि व्यक्ति के संस्कार ही व्यक्ति के हर कार्य का आधार है यदि कोई व्यक्ति समाज से मान्यता प्राप्त सत्कर्म करता है तो वह भी संस्कार के प्रभाव में ही करता है और यदि कोई व्यक्ति समाज विरोधी दुष्कर्म करता है तो वह भी संस्कार के प्रभाव से ही करता है !
इसलिए स्पष्ट रूप से यह जान लेना चाहिए की यह अवधारणा “होई है वही जो राम रचि राखा” नितांत गलत है !
बल्कि सत्य यह है कि व्यक्ति अपने संस्कार में परिवर्तन करके अपने कृत्यों के स्वरूप को बदल सकता है और बदले हुए कृत्यों के स्वरूप से ही व्यक्ति को इस संसार में सुख या दुख की अनुभूति होती है !
इसलिए किसी ईश्वर के पीछे ढोलक मजीरा पीटने से बेहतर है कि अपने संस्कारों को सुधारने पर कार्य किया जाए !
यही सुविकसित संस्कार आपको इस संसार में स्वर्ग की अनुभूति करा सकते हैं अन्यथा तो आप इन्हीं विकृत संस्कारों के प्रभाव में नर्क तो भोग ही रहे हैं !!