चित् वह है जो अपने को सब आवरणों से ढककर भी सदा अनावृत बना रहता है, सब परिवर्तनों के भीतर भी सदा परिवर्तनरहित बना रहता है ! उसमें प्रमाता प्रमेय, वेदक वेद्य का द्वैत भाव नहीं रहता, क्योंकि उसके अतिरिक्त दूसरा कुछ है ही नहीं !
इसका स्वरूप प्रकाशविमर्शमय है ! शांकर वेदांत भी चित् को अद्वैत मानता है, किंतु शांकर वेदांत में चित् केवल प्रकाशस्वरूप है, प्रत्यभिज्ञा दर्शन में वह प्रकाशविमर्शमय है ! मणि भी प्रकाशरूप है ! केवल प्रकाशरूप कह देने से परमतत्व का निरूपण नहीं हो सकता ! त्रिक् या प्रत्यभिज्ञा दर्शन का कहना है कि परम तत्व वह प्रकाश है जिसे अपने प्रकाश का विमर्श भी है !
“विमर्श” पारिभाषिक शब्द है ! इसका अर्थ है चित् की आत्मचेतना, प्रकाश का आत्मज्ञान, प्रकाश का यह ज्ञान कि “मैं हूँ” ! मणि भी स्वयंप्रकाश है, किंतु उसे अपने प्रकाश का ज्ञान नही है ! परमतत्व को केवल स्वयंप्रकाश कह देने से काम नहीं चलेगा ! प्रत्यभिज्ञा दर्शन का कहना है कि ऐसा प्रकाश जिसे अपना ज्ञान है विमर्शमय है ! विमर्श चेतना की चेतना है !
क्षेमराज ने विमर्श को “अकृत्रिममाहम इति विस्फुरणम्” (पराप्रावेशिका, पृ.2) स्वाभाविक अहं रूपी स्फुरण कहा है ! कृत्रिम अहं हृ “अस्वाभाविक मैं” का ज्ञान वेद्यसापेक्ष है ! विमर्श स्वाभाविक अहं का ज्ञान पूर्ण है, वह “पूर्णहीनता” है, क्योंकि समस्त विश्व उसी में है ! उससे व्यतिरिक्त कुछ है ही नहीं ! क्षेमराज ने कहा है “यदि निर्विमर्श: स्यात् अनीश्वरो जडश्च प्रसज्यते (पराप्रावेशिका, प्र. 2) अर्थात् यदि परम तत्व प्रकाश मात्र होता और विमर्शमय न होता तो वह निरीश्वर और जड़ हो जाता ! चित् अपने को चित्शक्ति के रूप में देखता है !
चित् का अपने को इस रूप में देखने को ही विमर्श कहते हैं ! इसी विमर्श को इस शास्त्र ने पराशक्ति, परावाक्, स्वातंत्र्य, ऐश्वर्य, कर्तृत्व, स्फुरता, सार, हृदय, स्पंद इत्यादि नामों से अभिहित किया है ! जब हम कहते हैं कि परमतत्व प्रकाश विमर्शमय है तो उसका अर्थ यह हुआ कि वह चिन्मात्र नहीं है, पराशक्ति भी है !
यह परमतत्व विश्वोत्तीर्ण भी है और विश्वमय भी है ! विश्व शिव की ही शक्ति की अभिव्यक्ति है ! प्रलयावस्था में यह भक्ति शिव में संहृत रहती है, सृष्टि और स्थिति में यह शक्ति विश्वाकार में व्यक्त रहती है ! विश्व परमशिव से अभिन्न है, यह शिव का स्फुरणमात्र है ! परमेश्वर या परमशिव बिना किसी उपादान के, बिना किसी आधार के, अपने स्वातंत्र्य से, अपनी स्वेच्छा से, अपनी ही भित्ति या आधार में विश्व का उन्मोलन करता है ! चित्रकार कोई चित्र किसी आधार पर, तूलिका और रंग की सहायता से बनाता है, किंतु इस जगत् चित्र का चित्रकार, आधार, तूलिका, रंग सब कुछ शिव ही है !
परमेश्वर ही मूलतत्व है ! यह दर्शन “ईश्वराद्वयवाद” इसीलिये कहलाता है कि परमेश्वर के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं ! अज्ञान या माया उससे भिन्न कुछ नहीं है ! यह उसी का स्वेच्छापरिगृहीत रूप है ! वह अपने स्वातंत्र्य से, अपनी इच्छा से अपने को ढक भी लेता है ! और अपनी इच्छा से ही अपने को प्रकट भी करता है !
शांकर वेदांत या ब्रह्मवाद भी अद्वैतवादी है, किंतु ब्रह्मवाद और ईश्वराद्वयवाद में पर्याप्त अंतर है !
ब्रह्मवाद ब्रह्म को निर्गुण, निर्विकार चैतन्य मात्र मानता है ! उसके अनुसार ब्रह्म में कर्तृत्व नहीं है, किंतु ईश्वराद्वयवाद के अनुसार परमशिव में स्वातंत्र्य या कर्तृत्व है, जिसके द्वारा वह सदा सृष्टि, स्थिति, संहार, अनुग्रह और विलय इन पंचकृत्यों को करता रहता है !
इसीलिये ब्रह्मा भी शिव के आधीन हैं !!