यह भारतीयों का दुर्भाग्य रहा है कि भारत के प्राकृतिक रूप से संसाधन संपन्न होने के बाद भी भारतीय लोग स्व प्रेरणा से अपने को कभी संपन्न नहीं बना चाहे हैं !
कुछ दूरदर्शी राजाओं के शासनकाल को यदि छोड़ दिया जाये तो भारत सदियों से विज्ञान विरोधी और संपन्नता विरोधी रहा है ! इसीलिए भारत में गरीब, निर्बल, असहाय, दरिद्र, व्यक्तियों को धार्मिक होने के नाम पर बड़े सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है !
जिसका राजनीतिक लाभ उठाने के लिए अपनी युवा अवस्था में देश विदेश घूमने वाले राजनीतिज्ञ भी अपने को चाय बेचने वाला घोषित करके भारत की सत्ता पर अवसर पाते ही काबिज हो गये हैं !
पर भारतीय जनमानस में इस तरह से दरिद्रता को महत्व देने की प्रवृत्ति विकसित कैसे हुई ! आज हम इसी विषय पर विचार करेंगे !
उसका मुख्य कारण वैष्णव विचारधारा है !
सदियों से वैष्णव आक्रांताओं ने अपने लाभ के लिये भारतीय समाज को दो हिस्सों में बांट कर रखा है ! एक शासक वर्ग जो अति संपन्न था और दूसरा सामाजिक वर्ग जो अति दरिद्र था !
शासक वर्ग को संपन्न होने की शिक्षा अलग पद्धति से दी जाती थी ! जिसमें उन्हें यह प्रशिक्षित किया जाता था कि आप ऊपर से उदार, कृपालु, सहयोगी, और रक्षक देखिये, पर अंदर से सदैव अपने हित का ध्यान रखिये अन्यथा आप अपने साम्राज्य की रक्षा और उसका विस्तार नहीं कर पाएंगे !
और दूसरा वर्ग जन सामान्य, जिसे सदैव यह प्रशिक्षण दिया गया है कि आपका सुख या दुख आपके पुरुषार्थ का विषय नहीं है, बल्कि यह ईश्वर की कृपा का विषय है ! आज आप जो दुख भोग रहे हैं, वह आपके पूर्व कर्मों का परिणाम है ! इसलिए इन दुखों के लिए किसी अन्य को जिम्मेदार मत ठहरायीये ! भगवान और अपने राजा के प्रति संपूर्ण समर्पित रहिए क्योंकि इस संसार में राजा ही भगवान का प्रतिनिधि है !
इस विचारधारा और दर्शन ने भारतीय जनमानस को अकर्मण्य और पुरुषार्थ विहीन बना दिया ! जो उस समय के वैष्णव शासकों के हित में था !
वैष्णव शासक अपनी संपन्नता के लिए युद्ध, हत्या, अपहरण, छल, आदि को धर्म के नाम पर सही ठहरा कर खुलेआम उसका प्रयोग किया करते थे और दूसरी ओर आम नागरिकों के लिए ईश्वर की व्यवस्था के नाम से डरा कर अनुशासित करने के लिये कर्म के सिद्धान्त बतलाया करते थे ! स्वर्ग और नर्क का भय दिखलाते थे ! जिससे समाज का आम आदमी अपनी योग्यता के आधार पर उनकी प्रतिस्पर्धा में न आ जाये !
इसीलिए आम नागरिकों को कृषि काल के अलावा तीज त्यौहार आदि के नाम पर व्यस्त बनाए रखने के लिये धर्म और मंदिरों का सहारा लिया गया ! आम आदमी को स्वरोजगार के नाम पर ग्रामीण स्तर पर छोटे-मोटे व्यवसायिक कार्यों का प्रशिक्षण दिलवाया करते थे ! जिससे वह उसी में उलझे रह कर अपना जीवन निर्वाह करते रहे !
जबकि इसके विपरीत वैष्णव शासक स्वयं नाच-गाना, संगीत, सुरा-सुंदरी आदि के भोग विलास पूर्ण भोगों में लगे रहा करते थे और किन शासकों के भोग विलास की पूर्ति के लिए नागरिकों पर तरह-तरह के कर लगाये जाते थे !
जो व्यक्ति राजा को कर नहीं देता था ! उसे राजा के सैनिक दंडित किया करते थे और उस दंड का विरोध करने वाले उस व्यक्ति को राजद्रोह के अपराध में सार्वजनिक मृत्युदंड दे दिया जाता था ! जिससे समाज का दूसरा व्यक्ति इस तरह के विरोध का दुसाहस न कर सके !
धीरे धीरे यही भाग्य और भगवान की विचारधारा और अवधारणा समाज में स्थाई रूप से विकसित हो गयी और उसी का परिणाम है कि आज तक हम पुरुषार्थ करने को ईश्वर विरोधी कार्य मानकर धर्म के अव्यवहारिक भय के साये में जी रहे हैं !
इस तरह सदियों से ईश्वर हमें जिस अवस्था में जीवित बनाए रखे, वैसा ही जीने के लिए हमें मानसिक रूप से तैयार कर दिया गया है !
लेकिन यदि आप संपन्न होना चाहते हैं तो अपने इस माइंड सेट को बदलिये ! इसके लिए सनातन ज्ञान पीठ के संस्थापक श्री योगेश कुमार मिश्र एक विशेष सत्र आरंभ कर रहे हैं ! जिसमें समाज का कोई भी व्यक्ति संवाद हेतु जुड़ सकता है !