हमारे देश में, चुनावी घोषणापत्रों को सचमुच कोई नहीं पढ़ता है ! घोषणापत्र मतदाताओं को बमुश्किल ही प्रभावित कर पाते हैं या राजनीतिक दलों के लिए वोट जुटा पाते हैं ! इसके बजाय यह कहना उचित होगा कि यह एक राजनैतिक बौद्धिक या वैचारिक कसरत से अधिक कुछ नहीं है !
आदर्श स्थिति में तो चुनावी घोषणापत्र राजनीतिक प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिये ! जो जमीनी स्तर पर लोकतंत्र का परचम बुलंद करता हो लेकिन आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में इसकी शायद ही कोई भूमिका रही हो !
भारत जैसे आधुनिक दौर के लोकतंत्र में चुनावी घोषणापत्र कई मकसद हल कर सकते हैं ! यह अनिश्चय की स्थिति वाले मतदाताओं को किसी पार्टी के सत्ता में आने पर उसके कार्यकाल की झलक दिखाने का जरिया हो सकते हैं ! यह वैचारिक और क्षेत्रीय विविधताओं वाले समूहों के लिए पार्टी का समावेशी एजेंडा हो सकता हैं ! कुछ राजनीतिक मौकापरस्ती से प्रेरित हो सकते हैं ! जबकि कुछ उच्च नैतिक आदर्शों से प्रेरित हो सकते हैं ! भारत में फैलते शहरी दायरे के साथ बढ़ते मध्य वर्ग को आकर्षित करने में चुनावी घोषणापत्र की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है !
चुनौती सिर्फ तब है, जब चुनावी वायदे पूरे न किए जायें और राजनैतिक दलों का झूठ सामने आ जाये ! इसकी मूल वजह घोषणापत्रों की प्रकृति में ही निहित है ! ब्रिटेन के “हाउस ऑफ लार्ड” के जाने-माने विद्वान सदस्य “लार्ड डेनिंग” ने कहा था कि “किसी राजनीतिक पार्टी का चुनावी घोषणापत्र कोई ईश्वरीय वाणी नहीं है, न ही कोई हस्ताक्षरित बांड ! जिसका राजनैतिक दल पालन करने के लिये बाध्य हैं !” ऐसी ही बात पूर्व में भारत के एक मुख्य न्यायाधीपति ने भी कही थी, ‘चुनावी घोषणापत्र कागज का एक टुकड़ा भर बनकर रह गए हैं’ और राजनीतिक दलों को इसके लिए उत्तरदायी बनाया जाना चाहिए !
समय के साथ राजनीतिक दल घोषणापत्र के वायदों को पूरा नहीं करने के लिए अजीबोगरीब बहाने बनाने लगे हैं ! जैसे क्या करें पार्टी का बहुमत नहीं है, राजसभा में हमारे सदस्य कम हैं, पार्टी सदस्यों में एक राय नहीं है, आदि आदि ! साल 2004 में कई दलों ने महिला आरक्षण विधेयक का वायदा किया था, फिर 2009 और फिर 2014 में यही वायदा दोहराया गया, लेकिन इसके बावजूद भी अभी हाल तक चार प्रमुख राजनीतिक दलों की अध्यक्ष महिलाएं थीं, सत्ता और विपक्ष में रहते हुए भी कोई उल्लेखनीय कदम नहीं उठाए गये !
राजनैतिक वायदों को पूरा न करने को भारत की न्याय पालिका भी “छल” का अपराध नहीं मानती है ! एडवोकेट मिथिलेश कुमार पांडेय द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई जनहित याचिका से यह बात साफ हो गई कि अदालत का काम पूरा न किए गए वायदे को पूरा कराना नहीं है ! खंडपीठ ने इस याचिका को ‘अयोग्य’ पाते हुए खारिज कर दिया !
दूसरी तरफ 2014 के आम चुनाव के लिये चुनाव आयोग द्वारा तैयार आदर्श आचार संहिता के दिशा-निर्देशों में राजनीतिक दलों द्वारा अपने घोषणापत्रों में ऐसे वायदे करने से मना किया गया था, जो मतदाताओं पर अवांछित असर डालते हों ! लेकिन राजनैतिक दलों के विरुद्ध कार्यवाही की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी और न ही इसके लिये कोई कानून आज तक बनाया गया है !
हालांकि कार्मिक, जन शिकायत, कानून और न्याय पर संसद की स्थायी समिति ने सिफारिश की थी कि आदर्श आचार संहिता को संशोधित कर कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाया जाए और इसे जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 का हिस्सा बनाया जाये ! ऐसे उपायों से चुनाव आयोग की शक्तियां बढ़ेंगी और राजनीतिक दलों में चुनावी घोषणापत्र में खोखले वादे न करने का डर पैदा होगा ! इससे राजनेताओं को वायदे पूरे नहीं करने पर जनता तो गद्दी से उतार ही सकती है, पर इसके साथ ही जुर्माने का भी प्रावधान होना चाहिए !
कठोर कानूनी उत्तरदायित्व से हमारी राजनीतिक व्यवस्था में वायदे करके भूल जाने की आदत में सुधार होगा और जिम्मेदारी का एहसास भी पैदा होगा !
हमें दो स्तरों पर काम करना होगा ! एक कानून बनाना होगा, जिससे चुनावी घोषणा से जुड़े वायदों को पूरा करना कानूनन बाध्यकारी होगा और दूसरा एक सिविल निगरानी व्यवस्था करनी होगी, जो राजनीतिक दलों के वायदे करने और फिर उन्हें पूरा न करने पर निगरानी रखेगी ! जिससे वादों का राजनैतिक दलों से पालन करवाया जा सके ! ऐसे कानून के तहत किसी संस्था या व्यवस्था को (जिसमें चुनाव आयोग ही उचित है)
उसको यह जिम्मेदारी दी जा सकती है कि वह सरकार के कार्यकाल के अंतिम वर्ष में चुनावी घोषणापत्र में किये वायदों को पूरा किये जाने की समीक्षा कर अपना फैसला दे ! इसके साथ चुनाव से पहले ही गठबंधन के साझीदारों के बीच एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय होना चाहिये जिससे गठबंधन की सरकार में राजनेताओं को चुनावी घोषणापत्र से बच निकलने का रास्ता आसान न रहे !