यूं तो कुम्भ पर्व शताब्दियों से भारत के चार नगरों में, जो कि चार दिशायों में विभिन्न नदियों के किनारे बसे हैं, धार्मिक स्नान पर्व के रुप में मनाया जा रहा है ! पर इसका ऐतिहासिक और प्रामाणिक दस्तावेज बहुत पुराना उपलब्ध नहीं है !
महंत लालपुरी जी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि कुम्भ मेलों के वर्तमान रुप में विकास के विषय में एक मत यह भी है कि भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग गुप्त साम्राज्य (320-600 ई0) के समय में जैसे पुराणादि साहित्य पुनः सम्पादित होकर वर्तमान रुप में आए उसी तरह पुराण एवं ज्योतिष साहित्य के आधार पर कुम्भ पर्वों के स्थान तथा काल स्थायी रुप से निर्णीत होकर वर्तमान रुप में विकसित हुए !
हरिद्वार के महाकुम्भ मेले की व्यवस्थाओं का पहला उल्लेख हमें मुगलकाल के इतिहास ग्रंथ ‘खुलासातुत्तवारीख‘ जो संभवतः 1695 में लिखा गया, में मिलता है ! तरीखकार इसमें लिखता है कि, हालांकि धर्मग्रन्थों के अनुसार गंगा अपने स्त्रोत से गंगासागर तक सर्वत्र पूजनीय है पर हरिद्वार इसके तट पर बसे सभी नगरों में सर्वप्रमुख है ! हर साल जब सूर्य मेष राशि में प्रवहश करता है यहां बैशाखी का वार्षिक मेला लगता है और इसी के साथ विशेषकर बारह साल बाद जिस साल गुरु कुम्भ राशि में प्रवहश करता है तब यहां दूरदराज से भारी संख्या में लोग एकत्र होते हैं !
वह मानते हैं कि यहां आकर अपने दाढ़ी-मूंछ और बाल मुंडवाना, गंगास्नान करना, दान देना आदि श्रेष्ठ करणीय कार्य हैं ! यही नहीं अपने मृत परिजनों की अस्थियों का प्रवाह गंगा में करना भी मृतकों की मुक्ति का साधन है ! इसी तरह का मिलता जुलता वर्णन 1759 में लिखे गए ‘‘चहर-गुलशन‘‘ नामक इतिहास ग्रंथ में मिलता है ! ग्रंथकार लिखता है, ‘‘हरिद्वार में बैसाखी का मेला बहुत बड़ी तादाद में भरता है जब सूर्य मेष और बृहस्पति कुम्भ राशि में प्रवहश करता है ! तब यह मेला कुम्भ कहलाता है ! तब लाखों सामान्यजन, फकीर और संन्यासी यहां एकत्र होते हैं ! जो बैरागी फकीर आते हैं वह संन्यासीयों के साथ ही जुड़ जाते हैं !
इन आरंभिक वर्णनों के अलावा कोई ऐतिहासिक दस्तावहजी प्रमाण मेरे कुम्भ के विषय में उपलब्ध नहीं होता है ! यूं मेरे इतिहास और परम्पराओं पर अनेक लोगों ने कलम चलाई है पर प्रायः उस सारी सामग्री में मौलिकता और शोध की कमी दिखाई पड़ती है ! समग्रता और पूर्णता का अभाव है ! इस दृष्टि से मुझे अमरीकी शोधकर्ता डा जेम्स जी0 लाख्टफेल्ड का कार्य प्रेरक और प्रभावशाली लगता है, जिन्होंनें 1992 में कोलम्बिया विश्वविद्य़ालय में अपना शोधप्रबंध मुझे यानी ‘हरिद्वार‘ को ही अपना मुख्य विषय बनाते हुए प्रस्तुत किया था ! उनके अनुसार हरिद्वार कुम्भ के 1867 के ही दस्तावेज प्रमाण उपलब्ध हैं, उससे पूर्व के नहीं !
वैसे कुछ लोग इन पर्वों की शुरुआत सम्राट हर्षवर्धन (612-647ईसवी) में मानते हैं ! सातवीं शताब्दी के चीनी यात्री ह्वेनत्सांग ने अपने यात्रा वर्णन में लिखा है कि ‘पांच साल तक संग्रह की हुई अपनी सारी सम्पत्ति को राजा शीलादित्य हर्षवर्धन अपने पूर्वजों की तरह प्रयाग की पुण्यभूमि में सर्वप्रथम भगवान बुद्ध की प्रतिमा के सामने समर्पित करता था तथा फिर उस सम्पत्ति को स्थानीय पण्डों, पुजारियों, फिर बाहर के पण्डों-पुजारियों, फिर प्रमुख विद्वज्जनों, फिर विधर्मियों, को और अंत में विधवाओं, असहायों, भिखारियों, अपंगों, गरीबों और साधुओं को बांट देता था !
इस तरह राजा अपना सारा कोष और भोजन-भण्डार बांटने के बाद अपना कीमती राजमुकुट, जडाउ कण्ठहार और यहां तक कि पहन हुए कपड़े तक दान कर देता था ! अन्त में सब कुछ दे चुकने के बाद राजा प्रसन्नतापूर्वक कहता था कि, ‘मैने अपना सब कुछ ऐसे कोष में दे दिया है जो कभी खाली नहीं होगा ! इस सारे वर्णन में इतनी बात तो पता चलती है कि राजा शीलादित्य हर्षवर्द्धन अपने पूर्वजों की तरह ही पांच साल के बाद हर छठे वर्ष प्रयाग में यह महादान महोत्सव त्रिवहणी के किनारे आयोजित करता था ! पर इससे यह कहीं सिद्ध नहीं होता कि इस आयोजन को कुम्भ कहते थे या कि इसे हर्षवर्द्धन ने आरम्भ किया था !
लगता यह है कि बौद्धकाल में कुम्भपर्व का प्रचलित रुप बदलकर ‘महादान पर्व‘ के रुप में आ गया होगा जिसे बाद में आदिशंकराचार्य के आविर्भाव के बाद संन्यासियों की दशनाम परम्परा के द्वारा पुनः व्यवस्थित किया गया होगा ! आज भी संन्यासियों और अन्य साधु सम्प्रदायों के बीच अपने सम्प्रदायों-संगठनों के चुनावों और अन्य प्रमुख निर्णयों के लिए विभिन्न कुम्भों की प्रतीक्षा की जाती है और जब कुम्भ पर सम्पूर्ण देश का साधु समाज अपने-अपने अखाड़ों और विभिन्न सम्प्रदायों के साथ एक स्थल पर जुड़ता है तो आगे के बारह वर्षों के लिए धर्म, समाज व संस्कृति विषयक निर्णय लिये जाते हैं !
आज भले ही यह परम्परा प्रतीकात्मक अधिक हो गई हो, पर किसी समय में निश्चय ही साधु-संन्यासियों का इस तरह एकत्र होना, देश-विदेश से आए हुए गृहस्थ समाज के साथ मिल बैठना, धर्मशास्त्रों से सम्बद्ध विविध विषयों की समालोचना और दार्शनिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श करना तथा अन्न-धन, दान, यज्ञादि धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न करना सारे समाज के लिए अत्यन्त प्रभावोत्पादक और प्रेरक रहता होगा !
आदिशंकराचार्य ने जिस तरह चार दिशाओं में चार आम्नाय स्थापित करके हिन्दू संन्यासियों को संगठित करते हुए अपने अद्वैत मत के प्रचार के लिए समाज को संगठित किया, लगता है उसी तरह उन्होंने जोगियों के लिए यह अनिवार्य किया कि वह भोगियों से मिलने के लिए तथा उन्हें चिंतन-मनन से दिशा दान देने के लिए बारह बरस में एक बार एक दिशा में अवश्य एकत्रित हों !
उत्तर मे हरिद्वार, पूरब में प्रयाग, पश्चिम में उज्जैन और दक्षिण में नासिक में गंगा, संगम, क्षिप्रा और गोदावरी के तीर पर सारे समाज के एक साथ जुड़ने की इस परम्परा को राष्ट्रकी भावानत्मक एकता की दृष्टि से भी आवश्यक माना गया होगा ! शंकराचार्य ने आसेतु हिमालय यात्राएं करके धार्मिक दृष्टि से विखण्डित और विश्रृंखलित होते जा रहे भारत को भीतर से एकता के धर्मसूत्र में बांधने का जो उपक्रम एक हजार वर्ष पूर्व किया था, लगता है कि कुम्भ पर्व उनके अभियान में सहायक होकर आज के स्वरुप को प्राप्त हुए होंगे ! कुम्भ के साथ साधु-संन्यासियों का इतना नैकट्य तो कम यही सिद्ध करता है !
इतना तो तय है कि कुम्भ पर्वा पर नदी किनारे के चार प्रमुख तीर्थस्थलों में प्रति बारह वह वर्ष विशिष्ट ज्योतिषीय स्थितियों में स्नान-दान की परम्परा भले ही पहले से रही हो पर उसे राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से उपयोग में लाने का महत् कार्य आद्यजगदगुरु श्रीशंकराचार्य के समय से ही हुआ है ! आज भी शंकराचार्य के अनुयायी दशनामी संन्यासियों को ही कुम्भ स्नान का प्रथम अधिकार प्राप्त है ! यह तथ्य भी उपरोक्त बात को पुष्ट करता है !
जिस तरह व्यक्ति ठोकर खाता रास्ता पहचानता और उस पर चलना सीखता है, उसी तरह इन महापर्वों ने समय-समय पर जनता और प्रशासन दोनों को कुछ न कुछ सिखाया ही है ! यही कारण है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जनहितकारी विकास की जो परम्पराएं कुम्भ के माध्यम से आरम्भ हुई, वह आज भी जारी हैं !!