हमारे देश के सांसदों की माली हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज दोनों सदनों के सांसदों की घोषित संपत्ति दस हजार करोड़ रुपये (एक खरब) से अधिक है ! चुनाव आयोग के अनुसार, वर्तमान लोकसभा के पांच सौ तैंतालीस में से तीन सौ पचास सांसद करोड़पति हैं और अठारह अरबपति ! यहां हम सांसदों की घोषित संपत्ति की बात कर रहे हैं जबकि आरोप तो यह भी लगता है कि अधिकतर सांसदों के पास घोषित से अधिक अघोषित संपत्ति है !
सांसदों के वैभव के इस आंकड़े के साथ देश की दो तिहाई से ज्यादा आबादी का सच बताना भी जरूरी है ! भारत सरकार द्वारा गठित एक आयोग के अनुसार, देश की अठहत्तर प्रतिशत आबादी की आमदनी बीस रुपए प्रतिदिन से भी कम है ! जब ज्यादातर कानून निर्माता धनशालीहों और जनता वंचित, तब जनहित में कानून बनाने की कल्पना करना ही व्यर्थ है !
अब राजनीति सेवा नहीं, पैसा कमाने और प्रभाव बढ़ाने का जरिया बन गई है ! एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के शोध अध्ययन निरंतर इसका खुलासा करते हैं ! 2004 से अब तक संसद और विधानसभा के चुनावों में खड़े हुए प्रत्याशियों की घोषित औसत संपत्ति 1.37 करोड़ रुपए आंकी गई है ! चुनावों में जीतने वाले उम्मीदवारों की औसत संपत्ति तो और भी अधिक (3.83 करोड़ रुपए) है ! चुनाव जीतने वाले, आपराधिक आरोपों से घिरे उम्मीदवार ज्यादा संपन्न हैं ! ऐसे सांसदों और विधायकों की औसत संपत्ति 4.30 करोड़ रुपए है ! ए.डी.आर. की रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान लोकसभा के 162 ( 30%) सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं जबकि पांच साल पहले यह संख्या 24% थी !
चुनावों में दागियों के जीतने की संभावना भी ज्यादा होती है ! तथ्य गवाह है कि जिन प्रतिनिधियों के खिलाफ मामले दर्ज हैं, उनका विजय प्रतिशत चौहत्तर रहा है ! शायद इसीलिए ऐसे लोगों को टिकट देने से राजनीतिक दल भी रूचि दिखाते हैं ! इसका अर्थ यह हुआ कि संसद या विधानसभा में प्रवेश के लिए पैसे के साथ-साथ बाहुबल भी जरूरी है ! धनबल और बाहुबल के भरोसे चुनाव जीतने वाले अधिकतर जनप्रतिनिधियों की संपत्ति में इजाफे की रफ्तार आसमान छूने लगती है !
राजनीति आज कमाई का सबसे अच्छा जरिया बन गई है ! चुनाव लड़ने वाले नेताओं की संपत्ति में पांच वर्ष में औसत 300 प्रतिशत वृद्धि बड़े-बड़े उद्योगपतियों को चौंकाती है ! कुछ मामलों में तो संपत्ति में वृद्धि की दर एक हजार प्रतिशत से ज्यादा देखी गई है ! इसीलिए अब समृद्ध व्यापारी और उद्योगपति भी संसद में प्रवेश पाने के लिए हाथ-पैर मारते हैं !
चुनावों को काले धन के कुचक्र से बाहर निकालने के लिए चुनिंदा राजनीतिक दल, न्यायविद, शिक्षाविद और सिविल सोसायटी के सदस्य वर्षों से प्रयासरत हैं, लेकिन सरकार के कान पर अब तक जूं नहीं रेंगी है ! कुछ बड़े दल और प्रभावशाली नेता इस सुझाव का प्रबल विरोध भी करते हैं ! जहां एक चौथाई आबादी कंगाली की रेखा से नीचे हो वहां करोड़ों रुपए खर्च कर चुनाव लड़ना संपन्न तबके का शगल ही समझा जाएगा !
आज आम आदमी वोट तो दे सकता है, चुनाव में खड़े होने या जीतने का सपना नहीं देख सकता ! चुनाव लड़ने के लिए जितना पैसा चाहिये उतना उसकी सात पुश्तें भी नहीं कमा सकतीं ! लोकतंत्र को धनतंत्र से मुक्त कराने के लिए दुनिया के इकहत्तर देशों में सरकारी पैसे से प्रचार-खर्च (स्टेट फंडिंग) की व्यवस्था लागू है !
मौजूदा भारतीय चुनाव प्रणाली छेदों से भरी पड़ी है ! इसे समझने के लिए एक उदाहरण काफी है ! माना जाये कि देश में अस्सी करोड़ मतदाता हैं और आम चुनाव में साठ प्रतिशत वोट पड़े तो इसका अर्थ यह हुआ कि केवल अड़तालीस करोड़ लोगों ने मतदान में भाग लिया ! मौजूदा स्थिति में पैंतीस फीसद वोट पाने वाला दल या गठबंधन सरकार बनाने में कामयाब हो जाता है !
यानी लगभग सत्रह करोड़ मत पाने वाले दल को देश पर पांच साल हुकूमत करने का हक मिल जाता है ! एक सौ पच्चीस करोड़ की आबादी वाले देश में महज सत्रह करोड़ लोगों के समर्थन से बहुमत की सरकार बनाई जा सकती है ! यह मजाक नहीं तो और क्या है? इसी कमजोरी को भांप कर कुछ जागरूक लोग हर पार्टी को प्राप्त वोट-प्रतिशत के आधार पर संसद और विधानसभाओं में सीट देने की मांग उठा रहे हैं !
एक सुझाव यह भी है कि चुनाव जीतने की खातिर किसी भी प्रत्याशी के लिए कम से कम इक्यावन फीसद वोट पाने की शर्त लागू कर दी जाये ! फिलहाल कई उम्मीदवार महज बीस-पच्चीस प्रतिशत वोट अर्जित कर संसद और विधानसभा में पहुंच जाते हैं ! अच्छे सुझाव तो और भी हैं, लेकिन इन सब पर अमल के लिए राजनीतिक दलों की आम सहमति जरूरी है ! फिलहाल राष्ट्र हित में आम सहमति के आसार नजर नहीं आते हैं ! राजनीतिक दल जन-दबाव के आगे ही झुकते हैं ! दबाव बनाने की प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिये ! इसे राष्ट्र हित में ज्यादा समय तक टाला नहीं जा सकता है !