गौतम बुद्ध का धूर्त अवतारीकरण : Yogesh Mishra

बुद्ध का अवतारीकरण धूर्त भारतीय बाबाओं, वक्ताओं और लेखकों का सबसे बड़ा और सबसे प्राचीन षड्यंत्र रहा है ! इस संदर्भ में आधुनिक भारत में ओशो के द्वारा चलायह गयह सबसे बड़े षड्यंत्र को गहराई से देखना समझना भी जरुरी है ! एक सनातनी बुद्धि से संचालित ओशो का पूरा जीवनवृत्त बहुत विरोधाभासों और बहुत अस्पष्टताओं से भरा हुआ गुजरा है ! कोई नहीं कह सकता कि उनकी मूल देशना क्या थी या उनके प्रवचनों में या उनके कर्तृत्व में उनका अपना क्या था !

खुद उन्ही के अनुसार उन्होंने लाखों किताबों का अध्ययन किया था ! फिर भी वह “आंखन देखि” ही कहते थे ! जो लोग थोड़ा पढ़ते लिखते हैं ! वह एकदम पकड़ सकते हैं कि वह न सिर्फ चुटकुले और दृष्टांत ! बल्कि दार्शनिक मान्यतायें और तार्किक वक्तव्य भी सीधे-सीधे दूसरों की किताबों से निकालकर इस्तेमाल करते थे ! लाखों किताबें पढ़ने का इतना फायदा तो उन्हें लेना ही चाहियह ! इसमें किसी को कोई समस्या भी नहीं होनी चाहियह !

सनातनी मायाजाल के महारथी होने के नाते वह अपनी तार्किक, दार्शनिक, आधुनिक या शाश्वत स्थापनाओं के कैसे भी खेल रच लें ! लेकिन तीन जहरीले सिद्धांतों को ओशो ने कभी नहीं नकारा है ! पहला भारत के सनातन ज्ञान की त्रिमूर्ति – ‘आत्मा, परमात्मा और पुनर्जन्म’ को ओशो ने कभी नहीं नकारा है ! इतना ही नहीं उन्होंने जिस भी महापुरुष या ग्रन्थ को उठाया ! उसी में इस जहर का पलीता लगा दिया था ! यहाँ तक कि बुद्ध जैसे वहद-विरोधी, आत्मा परमात्मा विरोधी और पुनर्जन्म विरोधी को भी ओशो ने पुनर्जन्म के पक्ष में खड़ा करके दिखाने का ज्ञानव्यापी षड्यंत्र रचा है !

इस अर्थ में हम अम्बेडकर और ओशो में एक गजब की समानता देखते हैं ! अगर गौर से देखा जायह तो ओशो आधुनिक भारत के अम्बेडकर ही हैं ! जो दूसरी बार बुद्ध का अवतारीकरण कर रहे हैं ! इस बात को गहराई से समझना होगा ताकि भारत में दलितों और बहुजनों के लियह उभर रहे श्रमण बुद्ध को “भगवान का अवतार बुद्ध” न बना लिया जायह ! अभी तक बुद्ध की जितनी व्याख्यायें, विपस्सनायें आचार्यों से या ध्यान योग सिखाने वालों के तरफ से आ रही हैं ! उनका भारत में कोई बाजार नहीं होगा ! वह सब की सब बुद्ध को सनातनी अवतारी रहस्यवाद और बौद्ध अध्यात्म में रखकर समाज को दिखाना इन नयह बौद्ध व्यवसायियों की मजबूरी है !

जबकि हकीकत यह है कि वास्तविक बुद्ध दर्शन इस पूरे खेल से बाहर हैं ! बुद्ध तब हुये थे जब समाज में धर्म ग्रन्थ के रूप में न तो गीता थी और न ही कृष्ण या ज्ञात महाभारत या रामायण ही थी ! ब्राह्मण शब्द उनके समय में भी था लेकिन यह ज्ञात ब्राह्मणवाद के उस समय भी धर्म व्यवसायी था ! इसके होने का पक्का प्रमाण नहीं मिलता है ! अशोक के समय तक श्रमण और ब्राह्मण शब्द समान आदर के साथ प्रयुक्त होते थे !

लेकिन बाद की सदियों में बहुत कुछ बदल गया है ! जिसने वर्णाश्रम जैसी काल्पनिक और अव्यवहारिक व्यवस्था को भारतीय जनमानस में गहरे बैठा दिया और संस्कार, शुचिता, अनुशासन और धार्मिकता सहित नैतिकता की परिभाषा को सनातनी रंग में रंग कर ऐसा कलुषित किया है कि आज तक वह रंग छूट नहीं रहा है ! वह रंग छूटने की संभावना या भय निर्मित होते ही ओशो जैसे धर्म के बाजीगर प्रगट हो जाते हैं और आधुनिकता के देशज या पाश्चात्य संस्करणों में सनातनी जहर का इंजेक्शन लगाकर चले जाते हैं ! जिसे समय समय पर कथावाचक काल्पनिक कथायें सुना कर पुख्ता करते रहते हैं !

कई विद्वानों ने स्थापित किया है कि श्रमणों, नाथों, सिद्धों, लोकायतों आदि की परंपराओं में एक ख़ास तरह की आधुनिकता हमेशा से ज़िंदा रही है ! यही आधुनिकता कबीर जैसे क्रांतिकारियों में परवान चढ़ती रही है और वह निर्गुण की या वर्णाश्रम विरोध की चमक में लिपटी एक ख़ास किस्म की आधुनिकता का बीज बोते रहे हैं ! इसी दौर में गुलाम भारत बहुत तरह के राजनीतिक, सामरिक और दार्शनिक अखाड़ों का केंद्र बनता रहा है और हमारी कारण है कि पिछड़ी जातियों, दलितों, बनिये आदि रहीम, खुसरो आदि मुसलमान दार्शनिकों की तरफ जितना प्रभावित होना चाहिये थी उतना नहीं हुई थी ! फिर उपनिवेशी शासन ने जिस तरह के षड्यंत्रों को रचा है ! उसमे भी भारतीय समाज के क्रमिक विकास की कई कड़ियाँ आज भी लुप्त हैं !

इन लुप्त कड़ियों को खोजने की बहुत कोशिश डॉ अंबेडकर ने भी की है ! लेकिन उनका चश्मा इंग्लैंड का था ! अत: इस अंधियारे काल में इंग्लैंड से आयी “आर्य आक्रमण थ्योरी” और “ब्राह्मणों की नस्लीय श्रेष्ठता” सहित “वर्ण व्यवस्था के नस्लीय सिद्धांत” को उन्होंने एक विश्वसनीय साक्ष्य माना ! जबकि उसे षड्यंत्र बतलाकर रिजेक्ट करना चाहिये था !

डॉ. अंबेडकर जाति और वर्ण के प्रश्न को जिस तरह समझते समझाते हैं ! वह भारत में धार्मिक, दार्शनिक प्रस्तावनाओं के षड्यंत्रों के विश्लेषण से परे है ! यह माना जा सकता है कि जाति के या वर्णों के उद्गम में भौतिक और आर्थिक कारण रहे होंगे ! पर यह भी सच है कि व्यापार, राजनीति और उत्पादन की प्रणालियों ने जातियों की रचना की थी ! इसे अवश्य स्वीकार करना चाहिये !

इस अर्थ में हमें अंबेडकर के धर्म दर्शन से ही नहीं बल्कि ओशो जैसे बौद्ध अवतारवादियों से भी बचना चाहिये ! अंबेडकर की प्रस्तावनाओं में धर्म, दर्शन और कर्मकांड की पोल खोलने पर सबसे ज्यादा जोर और आधार इंग्लैंड के दर्शन का ही रहा है ! उसका एक विशेष करण यह था कि वह मरते वक्त तक अंग्रेजों का अहसान चुकाते रहना चाहते थे और ओशो ने इसी अंग्रेजी दर्शन को अंग्रेज देशों में बेचने के लिये उचित समझा !

शायद इसीलिये दोनों विद्वान होने के बाद भी सनातन जीवन शैली को गहराई से नहीं समझ पाये और सनातन धर्म के मौलिक सिद्धांतों के विपरीत जाकर दोनों ने ही गौतम बुद्ध को अवतार सिद्ध करने के सारे प्रयास किये लेकिन भारत में सनातन धर्म की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इन जैसे लोग अपने कुछ अनुयायियों को तो आंशिक रूप से गौतम बुद्ध अवतार हैं ! यह समझा सकते हैं ! लेकिन जनसामान्य ने इन दोनों के ही दृष्टिकोण को नास्तिकवादी मानते हुये अस्वीकार कर दिया है ! शायद इसीलिये अब इनके अनुयायी कथावाचक भी इस पर अधिक चर्चा नहीं करते हैं !!

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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