“दान” करने से “पाप” नष्ट नहीं होता है ! Yogesh Mishra

“दान” विशुद्ध “धर्म” का विषय है ! इसका “पाप” के नष्ट होने से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है अर्थात “समाज को व्यवस्थित तरीके से चलाने के लिए जिन्हें नियमों को समाज में धारण कर लिया वही धर्म है” और उन “सनातन सामाजिक नियमों” के समूह में एक नियम यह भी है कि “यदि आप ने अपने पुरुषार्थ, समझ या देव सहयोग से आपने निर्वाह से अधिक धन कमा लिया है तो उसे उन व्यक्तियों को दान कर दीजिए ! जिन्हें उसकी वास्तव में आवश्यकता है अर्थात जो अभावग्रस्त हैं !”

इसी नियम को समाज को समझाने के लिए हमारे “सनातन ऋषि-मुनियों” ने लोगों को यह बतलाया कि व्यक्ति से प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप से कहीं न कहीं सामाजिक नियमों का पालन करने के दौरान “पाप” हो ही जाता है और “यदि अपने निर्वाह से अधिक धन आपके पास है तो अतिरिक्त धन को आप किसी जरूरतमंद व्यक्ति को दान कर दे दें ! जिससे “अनावश्यक धन संग्रह” के कारण होने वाला “कष्ट रूपी पाप” कट (समाप्त हो) जायेगा !

इसी सिद्धांत की गलत व्याख्या करके आज के “व्यवसायिक धर्माचार्यों” ने अपनी “निजी तिजोरियों” को भरना शुरू कर दिया और समाज को गुमराह करते हुये बतलाया कि आप धन को किसी भी माध्यम से अर्थात पाप या पुण्य द्वारा कमाते हैं, अगर उसका एक अंश धर्म के नाम पर इन्हीं “तथाकथित धर्माचार्यों” को दान कर देते हैं तो आपके पाप कट जाते हैं !

लेकिन “आध्यात्मिक ग्रंथों और सनातन ज्योतिष ग्रंथों” में एकदम स्पष्ट रूप से व्याख्या की गई है कि “हर मनुष्य के ऊपर कंधे पर ईश्वर ने दो अलग-अलग कर्मफल संग्रह की थैलियां लटका रखी हैं ! एक थैली में व्यक्ति जो पाप करता है वह इकट्ठा होता है और दूसरी थैली में व्यक्ति जो पुण्य करता है वह इकट्ठा होता है और मृत्यु के समय जब जीवात्मा इस पृथ्वी को छोड़कर जाती है ! तब प्रकृति इन्हीं दोनों पाप-पुण्य के संग्रहित संस्कारों की थैलीयों को देखती है !

“यदि जिनके पास पाप ज्यादा होता है तो उन व्यक्तियों की जीवात्माओं को प्रशिक्षित करने के लिए “कष्टकारी स्थानों पर कष्टकारी परिस्थितियों में पुनः जन्म लेने के लिए भेजती हैं और जिन व्यक्तियों की जीवात्माओं की थैली में पुण्य अधिक होता है उन्हें और अधिक आत्म उत्थान करने के लिये सुख-सुविधा संपन्न स्थानों पर पुनर्जन्म लेने के लिए भेजती हैं !” यही पुनर्जन्म में सुख और दुख का मूल्य सिद्धांत है !

जिसकी गणना ज्योतिष के सिद्धांतों से भी की जा सकती है ! लेकिन इसका तात्पर्य कहीं भी यह नहीं कि व्यक्ति अपने जीवन में पाप के माध्यम से बहुत सारा धन कमाये और उसका कुछ अंश दान कर दे तो उसके सारे पाप धुल जाते हैं ! “दान कोई डिटर्जेंट साबुन नहीं है, जिससे व्यक्ति के जीवन की पाप रूपी गंदगी धोयी जा सकती हो !”

अतः एकदम स्पष्ट रूप से यह जान लीजिए कि जो व्यक्ति जितना पाप करता है उसे भविष्य में उतना ही उन पापों का दंड भोगना पड़ता है और जो व्यक्ति जितना पुण्य करता है या दान करता है उसे भविष्य में उन्हीं पुण्य और दान के कर्मों के अनुसार सुख की प्राप्ति होती है ! अर्थात व्यक्ति को स्व अर्जित पाप और पुण्य दोनों के ही परिणाम अलग-अलग काल में अलग-अलग भोगने पड़ते हैं कहीं भी “पुण्य से पाप को धोने की” व्यवस्था नहीं है !

लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि व्यक्ति को दान नहीं करना चाहिए ! “दान करने से व्यक्ति के अंदर “त्याग करने की प्रवृति” पैदा होती है और त्याग की प्रवृति के द्वारा ही व्यक्ति संग्रह की प्रवृत्ति छोड़ कर ईश्वरी ऊर्जाओं के संपर्क में आता है ! उससे उस व्यक्ति की “जीवात्मा” को आनंद मिलता है ! जिससे उसका उत्थान होता है ! इसी निरंतर उत्थान की पराकाष्ठा पर व्यक्ति सर्वस्व बंधनों से मुक्त हो जाता है और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ! अतः त्याग की प्रवृत्ति को बल देने के लिए व्यक्ति को निरंतर दान देते रहना चाहिए न कि अपने पापों को धोने के लिए !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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