जप या अनुष्ठान करने वाला जब कोई व्यक्ति किसी मारे गये पशु का भोजन करता है ! तो वध के पूर्व जो मृत्यु का भय उस पशु के अन्दर पैदा होता है ! उससे मृत्यु के पूर्व उस पशु के शरीर में दर्जनों तरह के घातक रसायन पैदा होते हैं ! जो तेजी से उसके खून के माध्यम से उसके मांस में मिल जाते हैं ! वही भय के घातक रसायन उसके मांस के साथ भोजन के द्वारा मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं ! जो उस दूषित मांसाहारी भोजन को करने से उस मनुष्य के मन में एक विशेष प्रकार का “रोष” उत्पन्न करते हैं ! जैसे कोई असहज दूषित भोजन मक्खी, मकड़ी आदि गिर जाने के कारण मनुष्य में स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है !
यही “रोष” का भाव व्यक्ति को ऐसा तामसी मांसाहारी भोजन करने से रोकता है ! किन्तु जब व्यक्ति मन की बात नहीं सुनता है और “जिह्वा के स्वाद या सांसारिक आनंद के लिये” निरंतर मांसाहार का भक्षण करता रहता है ! तो उसके द्वारा खाये गये उस असहज दूषित मांसाहारी भोजन को शरीर अस्वीकार करने लगता है ! इस प्रयास में शरीर का पाचन तंत्र उस भोजन को जल्दी से जल्दी शरीर से निकालने के लिये आवश्यकता से अधिक तेजी से जुट जाता है और इस निरंतर प्रतिरोध में शरीर में सैकड़ो तरह के सूक्ष्म टकराव या संघर्ष उत्पन्न होते हैं ! जिससे उस व्यक्ति के मन में सदैव अनावश्यक रूप से स्थाई तनाव बना रहता है !
इस तनाव की स्थिति में मनुष्य का मन किसी भी जप या अनुष्ठान के लिए स्थिर नहीं हो पाता है ! परिणामत: ब्रम्हांड के अंदर उपस्थित ईश्वरीय उर्जा से उसका सीधा संपर्क नहीं जुड़ पाता और उस व्यक्ति को जप या अनुष्ठान का लाभ प्राप्त नहीं होता है !
यही मूल कारण है कि जप या अनुष्ठान करने वाले या करवाने वाले दोनों ही व्यक्तियों को मांसाहारी भोजन का सेवन नहीं करना चाहिए !