वेद वह ग्रंथ है जिसमें समाज के हर छोटे-बड़े वर्ग और जीवनशैली के व्यक्तियों के लिये विस्तृत निर्देश हैं ! सामाजिक नियमों के द्वारा व्यक्ति का आर्थिक स्तर कैसे विकसित किया जाये ! इसके भी निर्देश हमारे वेदों में ऋचाओं के रूप में दिये गये हैं !
यदि हम वेदों के अनुसार आज भी समाज को आर्थिक रूप से चलाना चाहते हैं ! तो आज भी समाज में कोई भी व्यक्ति बेरोजगार नहीं होगा ! व्यक्ति के आर्थिक विकास के लिये वेदों में सैकड़ों निर्देश दिये गये हैं ! जिनमें से कुछ का वर्णन मैं यहां कर रहा हूं !
ज्ञान-विज्ञान से समृद्धि आती है ! परंतु यदि वह समृद्धि सुखदायक न हो तो व्यर्थ है ! इसलिये वेदों का स्पष्ट निर्देश है कि ज्ञान-विज्ञान और कौशल के विकास से हम समृद्धि तो प्राप्त करें ! परंतु उसे केवल अपने भोग के लिये प्रयोग न करें ! उसका उपयोग अपने सामाजिक दायित्वों को पूरा करने में करें !
वह यह भी बताते हैं कि यदि हम अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वहन नहीं करते हैं ! तो समाज में न केवल अनाचार और हिंसा फैलती है, बल्कि उसके कारण हमारा जीवन भी अशांत हो जाता है ! ऋग्वेद के दसवें अध्याय का 1155वाँ सूक्त इस बारे में निम्न निर्देश देता है !
स्वार्थ और दान न देने की वृत्ति को सदैव के लिये त्याग दो ! कंजूस और स्वार्थी जनों को समाज में दरिद्रता से उत्पन्न गिरावट, कष्ट, दुर्दशा दिखाई नहीं देते ! परंतु समाज के एक अंग की दुर्दशा और भुखमरी आक्रोश बन कर महामारी का रूप धारण कर के पूरे समाज को नष्ट करने की शक्ति बन जाती है और पूरे समाज को ले डूबती है ! ऋ 10-155-1
अदानशीलता समाज में प्रतिभा विद्वत्ता की भ्रूणहत्या करने वाली सिद्ध होती है ! तेजस्वी धर्मानुसार अन्न और धन की व्यवस्था करने वाले राजा, परमेश्वर इस दान विरोधिनी संवेदना विहीन वृत्ति का कठोरता से नाश करें ! ऋ 10-155-2
ऐसे स्वार्थी प्रजाजन इस संसार रूपी समुद्र में बिना किसी लक्ष्य के जल पर बहते काठ जैसे हैं ! उस तत्व का सदुपयोग करके समाज के संकट को दूर करो ! ऋ10-155-3
समाज में अभावग्रस्त, दरिद्रता की आपदा से निपटने के लिये समस्त देवताओं द्वारा गौ को वापस ला कर, यज्ञाग्नि के द्वारा भिन्न भिन्न स्थानों पर स्थापित किया गया ! गोपालन से प्राप्त पौष्टिकता और जैविक अन्न से प्राप्त समृद्धि को कौन पराभूत कर सकता है ! ऋ 10-155-5
पूंजीवादी समाज में केवल अमीरी और अभद्र अमीर जीवन शैली के प्रदर्शन को ही आदर्श माना जाता है ! भारतीय परम्परा में अपने स्वामी को एक कर्मचारी, भृत्य, सेवक अपने और अपने परिवार के दैनिक जीवन में दु:ख, सुख, प्रगति के लिये एक अभिभावक के रूप में देखता है !
वेदों के इन निर्देशों का यदि देश का व्यवसायी वर्ग पालन करेगा ! तो निश्चित है कि उनका विकास तो होगा ही साथ ही समाज भी समृद्ध, सुखी और प्रगतिशीलता भी आयेगी !!