कहने को तो अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के सखा अर्थात मित्र थे ! पर इसके अलावा अर्जुन कृष्ण के बुआ कुन्ती के लड़के अर्थात कृष्ण के बुएरे भाई भी थे !
इसके साथ ही अर्जुन जब अपनी ममेरी बहन सुभद्रा को भगा कर ले गये और कृष्ण ने बहन सुभद्रा के विवाह को बलराम जी की इच्छा के विरुद्ध पारिवारिक मान्यता दे दी तो कृष्ण अर्जुन के जीजा भी बन गये थे !
कृष्ण और अर्जुन के मध्य संरक्षक, गुरु, सलाहकार, मार्गदर्शक, आचार्य, योजनाकार, नीतिकार, सारथी आदि के न जाने कितने सम्बन्ध थे !
लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि इतने सघन संबंधों के जाल के बाद भी कभी भी कृष्ण ने अर्जुन को अपने विचारों के दबाव में, अर्जुन के स्व प्रेरणा से उनके निर्णय लेने के अधिकार को अपने नियंत्रण में नहीं लिया ! वह सदैव उनको स्वस्थ और व्यावहारिक सलाह देते थे और इसके साथ ही सदैव उन्हें अंतिम निर्णय लेने की स्वतंत्रता भी प्रदान करते थे !
इसका सबसे बड़ा प्रमाण श्रीमद भगवत गीता में मिलता है ! जब अर्जुन विषाद में आकर युद्ध को त्यागने का निर्णय लेते हैं ! तब भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को व्यवहारिक धर्म. विवेक पूर्ण ज्ञान और आत्म कल्याण के मार्ग बतलाते हैं !
अर्जुन उनके ज्ञान पर बार-बार संदेश से भर जाते हैं ! तब मजबूर होकर भगवान श्री कृष्ण को अपना विराट रूप अर्जुन को दिखलाना पड़ता है ! तब अर्जुन को यह पता चलता है कि वह जिसे सामान्य पुरुष समझ रहे हैं, वह उससे बहुत अलग विराट पुरुष हैं !
अंततः अर्जुन भगवान श्री कृष्ण के विराट रूप को देखकर भयभीत हो जाते हैं और उनके हर आदेश का पालन करने को तैयार हो जाते हैं ! किंतु यहाँ भगवान श्री कृष्ण की महानता है कि इसके बाद भी अंतिम निर्णय लेने का अधिकार भगवान श्री कृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 18 के 63वें श्लोक में अर्जुन को ही प्रदान करते हैं ! जो निम्न प्रकार है :-
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।18.63।।
अर्थात यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान की पूर्णतया पर भली भाँति विचार कर फिर जैसे चाहता है वैसे ही कर ৷৷18.63॥
अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी व्यक्ति आपका कितना भी खास, कितना भी व्यवहारी या कितना भी विशेष रिश्तेदार हो सदैव उसे सही सलाह देनी चाहिए, लेकिन अंतिम निर्णय लेने की स्वतंत्रता का अधिकार प्रकृति उस व्यक्ति को सदैव दिया है ! इस स्व चिंतन से निर्णय लेने के अधिकार पर भगवान का भी अधिकार नहीं है !
इसलिए प्रकृति की मर्यादाओं का पालन करते हुए ! व्यक्ति को सदैव दूसरों को परामर्श देना चाहिए ! मदद करनी चाहिए लेकिन किसी भी विषय में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार उसका अपना स्वयं का अधिकार है ! उसको इस अधिकार पर कभी भी अतिक्रमण नहीं करना चाहिये क्योंकि यह ईश्वर द्वारा प्रदत्त ईश्वरीय अधिकार है !!