आज कल उच्च शिक्षा की फ़ीस बढ़ती ही जा रही है ! अब तो सरकार भी उच्च शिक्षा की फ़ीस को कई गुना बढ़ाने या नियंत्रण विहीन करने पर विचार कर रही है !
जबकि बताया जाता है कि धन के आभाव के कारण भारतीय शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की कमी का आलम यह है कि आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फ़ीसदी शिक्षकों की कमी है ! भारतीय विश्वविद्यालय औसतन हर पांचवें से दसवें वर्ष में अपना पाठ्यक्रम बदलते हैं लेकिन तब भी यह शिक्षा के मूल उद्देश्य छात्रो के सुखी व सुरक्षित जीवन के उद्देश्य को पूरा करने में विफल रहते हैं !
सरकार एक तरफ कई बजट सत्रों में आइआइटी, आइआइएम के अलावा दूसरे शिक्षा संस्थानों की संख्या बढ़ाने का राग अलापती रहती है ! दूसरी ओर योग्य शिक्षकों की नियुक्ति के लिये भर्ती प्रक्रिया, वेतनमान आदि पर धन खर्च करने से परहेज करती है ! जिस रफ्तार से भारत में आर्थिक प्रगति हो रही है, उस अनुपात में शिक्षा के मामले में देश अपेक्षित तरक्की नहीं कर पाया है ! देश में 61 लाख ऐसे बच्चे हैं, जो आज भी शिक्षा से वंचित हैं !
खासतौर पर बालिका शिक्षा की स्थिति चिंताजनक है ! संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था अमरीका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर बतलाई जाती है लेकिन जहाँ तक गुणवत्ता की बात है दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं आता है ! एक सर्वे के मुताबिक उच्च शिक्षा की तस्वीर यह है कि स्कूल की पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से एक ही कॉलेज में पहुँच पाता है ! भारत में उच्च शिक्षा के लियह रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम यानी सिर्फ़ 11 फ़ीसदी है ! इस अनुपात को 15 फ़ीसदी तक ले जाने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये भारत को 2,26,410 करोड़ रुपए का निवेश करना होगा !
नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार मानविकी में 10 में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं ! (पर्सपेक्टिव 2020) भारत के पास दुनिया की सबसे बड़े तकनीकी और वैज्ञानिक मानव शक्ति का ज़ख़ीरा है, इस दावे की यहीं हवा निकल जाती है ! राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद का शोध बताता है कि भारत के 90 फ़ीसदी कॉलेजों और 70 फ़ीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत कमज़ोर है ! आईआईटी मुंबई जैसे शिक्षण संस्थान भी वैश्विक स्तर पर जगह नहीं बना पा रहे हैं !
भारतीय शिक्षण संस्थाओं में योग्य शिक्षकों की कमी का आलम यह है कि देश आज़ादी के पहले 50 सालों में सिर्फ़ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिला ! पिछले लगभग डेढ़ दशक में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गई ! अच्छे शिक्षण संस्थानों की कमी की वजह से अच्छे कॉलेजों में प्रवेश पाने के लियह कट ऑफ़ प्रतिशत असामान्य हद तक बढ़ जाता है ! अध्ययन बताता है कि सेकेंड्री स्कूल में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्रों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ रही है ! भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिये हर साल सात अरब डॉलर यानी करीब 43 हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च करते हैं क्योंकि भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का स्तर घटिया है !
सैम पित्रोदा का कहना है कि आजकल वैश्विक अर्थव्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ़ शिक्षा को ही कहा जा सकता है ! इंफ़ोसिस प्रमुख नारायण मूर्ति कहते हैं कि अपनी शिक्षा प्रणाली की बदौलत ही अमरीका ने सेमी कंडक्टर, सूचना तकनीक और बायोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में इतनी तरक्की की है ! इस सबके पीछे वहाँ के विश्वविद्यालयों में किए गए शोध का बहुत बड़ा हाथ है !
दुनिया भर में विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में हुए शोध में से एक तिहाई अमरीका में होते हैं ! इसके ठीक विपरीत भारत से सिर्फ़ 3 फ़ीसदी शोध पत्र ही प्रकाशित हो पाते हैं ! इस समय भारत की लगभग आधी आबादी 25 साल से कम उम्र की है ! इनमें से 12 करोड़ लोगों की उम्र 18 से 23 साल के बीच की है ! अगर इन्हें ज्ञान और हुनर से लैस कर दिया जाए तो यह अपने बूते पर भारत को एक वैश्विक शक्ति बना सकते हैं ! योजना आयोग के सदस्य और पुणे विश्वविद्यालय के पूर्व उप कुलपति नरेंद्र जाधव इस बात से हैरान हैं कि कई विश्वविद्यालयों में पिछले 30 सालों से पाठ्यक्रमों में कोई बदलाव नहीं किया गया है ! उनका कहना है कि पुराना पाठ्यक्रम और ज़मीनी हकीकतों से दूर शिक्षक उच्च शिक्षा को मारने के लिये काफ़ी हैं ! जाने माने शिक्षाविद प्रोफ़ेसर यशपाल ने कहा था कि शिक्षा में निजीकरण की ज़रूरत तो है लेकिन इस पर भी नियंत्रण रखा जाना चाहिये !
अर्थशास्त्री कौशिक बसु का अभिमत है कि आम धारणा के मुताबिक अगर कोई लाभ कमाना चाहता है तो वो अच्छी शिक्षा कैसे दे सकता है ! यह एक ग़लत तर्क है ! यह तो उसी तरह सोचने की तरह हुआ कि अगर टाटा मोटर्स को लाभ कमाना है तो इसे छोटी कार बनाने में रुचि नहीं रखनी चाहिये ! हालांकि वास्तविकता यह है कि अगर उसे लाभ कमाना है तो उसे छोटी कार ही बनानी चाहिये ! इसी तरह शिक्षा में अगर कोई लाभ कमाने वाली कंपनी विश्वविद्यालय शुरू करना चाहती है तो हमें उसके आड़े नहीं आना चाहिये !
हर साल भारतीय स्कूल से पास होने वाले छात्रों में महज 15 फ़ीसदी छात्र विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाएं, यह सुनिश्चित करने के लिये पूरे भारत में 1500 नए विश्वविद्यालय खोले जाने की ज़रूरत पड़ेगी ! इस सबके लिये धन सिर्फ़ निजी क्षेत्र से ही आ सकता है ! हमें यह स्वीकार करना चाहिये कि किसी भी सरकार, खास कर विकासशील देश की सरकार के लिये यह संभव नहीं है कि वो मौजूदा 300 विश्वविद्यालयों को ही ढंग से चला पाए ! यह तभी संभव है, जब वित्तीय मापदंडों को दरकिनार कर दिया जाए या उच्चतर शिक्षा को घटिया दर्जे का बना दिया जाए ! विशेषज्ञों की राय है कि ‘रन ऑफ़ द मिल’ यानी बने बनाए ढर्रे पर स्नातक पैदा करने की प्रवृत्ति से जितनी जल्दी छुटकारा पाया जाए उतना ही अच्छा है !
फ़ैसला लेने वालों के बीच ‘वोकेशनल’ शिक्षा या व्यावसायिक शिक्षा का वो रुतबा अब नहीं रहा क्योंकि इसके साथ यह बट्टा लगा हुआ है कि यह पढ़ाई में पीछे रहने वालों की ही पसंद है ! अब समय आ गया है कि इस धारणा को बदला जाए कि विश्वविद्यालय शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को भद्र बनाना है ! भारत सरकार ने भी इसे शिक्षा मंत्रालय कहना बंद कर मानव संसाधन मंत्रालय कहना शुरू कर दिया है ! ब्रिटेन में भी अब इसे शिक्षा और कौशल मंत्रालय कहा जाने लगा है ! ऑस्ट्रेलिया में इसे शिक्षा, रोज़गार और कार्यस्थल संबंध मंत्रालय कहा जाता है !
अब उस जाति व्यवस्था से भी छुटकारा पाने की ज़रूरत है जिसने एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था को जन्म दिया है, जहाँ अगर एक इंसान व्यावसायिक शिक्षा लेने के लिये ट्रेन से उतरता है तो उसे बाद में उच्च शिक्षा के डिब्बे में सवार होने की अनुमति नहीं होती ! 21वीं सदी की उच्च शिक्षा को तब तक स्तरीय नहीं बनाया जा सकता जब तक भारत की स्कूली शिक्षा 19वीं सदी में विचरण कर रही हो ! स्कूली शिक्षा की मूलभूत सुविधाओं में पिछले एक दशक में ज़बरदस्त वृद्धि हुई है
लेकिन पब्लिक रिपोर्ट ऑन बेसिक एजुकेशन (प्रोब) के सदस्य एके शिव कुमार कहते हैं कि असली समस्या गुणवत्ता की है ! यह एक कड़वा सच है कि भारत के आधे से अधिक प्राथमिक विद्यालयों में कोई भी शैक्षणिक गतिविधि नहीं होती ! अब समय आ गया है कि चाक और ब्लैक बोर्ड के ज़माने को भुला कर गांवों में भी प्राथमिक शिक्षा के लिये तकनीक का इस्तेमाल किया जाए !