भविष्य के विश्व सत्ता की योजना का इतिहास : Yogesh Mishra

विश्व सत्ता के भविष्य की योजना को जानने के लिये विश्व के पिछले 3000 वर्ष का इतिहास जानना अति आवश्यक है ! जिस योजना के तहत विश्व सत्ता कार्य कर रही है उसे वैश्विक प्रणाली का सिद्धान्त कहते हैं ! विश्व इतिहास एवं सामाजिक परिवर्तन को समझने के बाद ही आप इस विश्व सत्ता तंत्र को समझ पायेंगे !

विश्व सत्ता का यह मानना है कि विश्व को नियंत्रित करने के लिये पूरे विश्व को मूल ईकाई माना जाना चाहिये ! न कि देश या राज्य ! उसमें रहने वाले नागरिक मात्र एक विषय हैं न कि मनुष्य ! उन देशों के प्रकृतिक संसाधन ही वहां की मूल्यवान पूंजी है ! जिसे किसी भी कीमत पर हड़पना है ! क्योंकि भविष्य की सबसे बड़ी ताकत प्राकृतिक ऊर्जा श्रोत होंगे अत: इन पर जिसका जितना अधिक नियंत्रण होगा वह ही उतना संपन्न होगा ! यहाँ भावनाओं का कोई स्थान नहीं है ! राष्ट्र ! देश ! धर्म ! राज्य ! सामाजिक सम्बन्ध ! शिक्षा आदि यह सब विश्व सत्ता के योजनाकारों की निगाह में बकवास है !

वैसे तो वर्तमान विश्व राष्ट्र-राज्यों में बँटा हुआ है ! लेकिन उसे एक वैश्विक प्रणाली के रूप में देखने का आग्रह करने वाले विश्व सत्ता के विद्वान इस विभाजन को मात्र एक प्रशासनिक प्रकिया का हिस्सा समझते हैं ! उनकी मान्यता है कि सामाजिक सीमाओं और सामाजिक निर्णय-प्रक्रिया का अध्ययन करने के लिये राष्ट्र-राज्यों को एक इकाई के रूप में ग्रहण करने के बजाय उसे भविष्य के वैश्विक प्रणाली के विश्लेषण का आधार बनाया जाना चाहिये ! इस भविष्य की बौद्धिक परियोजना के आधार पर किये गये सूत्रीकरण को ‘वैश्विक प्रणाली-सिद्धांत’ के रूप में जाना जाता है !

इसका दृष्टिकोण का विकास पचास के दशक में प्रतिपादित निर्भरता-सिद्धांत की रैडिकल प्रस्थापनाओं और इतिहास-लेखन के फ़्रांसीसी अनाल स्कूल से हुआ था ! वर्ल्ड-सिस्टम थियरी के मुख्य जनक इमैनुएल वालर्स्टीन थे ! वालर्स्टीन और वैश्विक प्रणाली के अन्य सिद्धांतकार मानते हैं कि विश्व की टुकड़े-टुकड़े में बंटी हुई पूँजीवादी अर्थव्यवस्था सदैव से चार बुनियादी अंतर्विरोधों से ग्रसित है ! जिनके कारण इसका अंत अवश्वयम्भावी है ! इसलिये इसे वैश्विक स्तर पर एक कर दिया जाना चाहिये ! भले ही इसके लिये लम्बे समय तक पूरे विश्व को शीत-युद्ध ही क्यों न झेलना पड़े !

सोवियत संघ के प्रभाव के कारण फ़िलहाल सारी दुनिया में इसको लागू करने में अवरोध आ रहा है पर यह आज नहीं तो कल पूरे विश्व में लागू होगा ही ! क्योंकि इसमें पूंजीपतियों के लालच से ही इस योजना को शक्ति मिल रही है !

विश्व सत्ता की जरुरत इसलिये पड़ी कि वर्तमान विश्व व्यवस्था में पहला अंतर्विरोध है आपूर्ति और माँग के बीच का लगातार जारी असंतुलन ! यह असंतुलन तब तक जारी रहेगा जब तक कि उत्पादन संबंधी निर्णय किसी देश के स्तर पर लिये जाते रहेंगे ! दूसरा है उपभोग से पैदा हुये अधिशेष मूल्य के एक हिस्से को अपने मुनाफ़े के तौर पर देखने की पूँजीपतियों की प्रवृत्ति ! अधिशेष को और बड़े पैमाने पर पैदा करने के लिये आगे चल कर मौजूदा अधिशेष का पुनर्वितरण करना आवश्यक होगा !

तीसरा अंतर्विरोध राष्ट्र की क्षमताओं से ताल्लुक रखता है कि आख़िर कब तक किसी राष्ट्र की संस्था पूँजीवाद की वैधता कायम रखने के लिये मज़दूरों का समर्थन हासिल करने में कामयाब होती रहेगी ! चौथा अंतर्विरोध भविष्य की विश्व सत्ता और अनगिनत राष्ट्रों के बीच है ! इन दोनों के सह-अस्तित्व से प्रणाली का विस्तार तो हुआ है ! पर साथ ही प्रणालीगत संकटों से निबटने के लिये ज़रूरी बेहतर आपसी सहयोग की सम्भावनाएँ भी कम हुई हैं ! क्योंकि कोई भी राष्ट्र विश्व सत्ता के लिये अपने अस्तित्व और प्रभाव को छोड़ने को तैयार नहीं है !

यही वर्तमान विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के प्रति आलोचनात्मक रवैया रखने वाले विद्वान इस प्रणाली को एक ऐतिहासिक व्यवस्था के तौर पर देखते हैं ! जिसकी संरचनाएँ उसके भीतर मौजूद किसी भी राजनीतिक इकाई के मुकाबले भिन्न स्तर पर काम करती हैं ! जो भविष्य की विश्व सत्ता के लिये अनुपयोगी है !

वालर्स्टीन ने समकालीन वैश्विक प्रणाली का उद्गम 1450 से 1670 के बीच माना है ! इस अवधि को वह इसे ‘दि लोंग सिक्सटींथ सेंचुरी’ की संज्ञा देते हैं ! इससे पहले पश्चिमी योरोप सामंती दौर में था और आर्थिक उत्पादन तकरीबन पूरी तरह खेतिहर पैदावार पर निर्भर था ! वालर्स्टीन के मुताबिक 1300 के बाद एक तरफ़ तो खेतिहर उत्पादन में तेज़ गिरावट हुई और दूसरी ओर योरोपीय जलवायु के कारण किसान आबादी के बीच पहले से कहीं ज़्यादा महामारियाँ फैलने लगीं !

सोलहवीं सदी में ही योरोप पूँजीवादी विश्व-अर्थव्यवस्था की स्थापना की तरफ़ बढ़ा ! सामंतवाद के तहत उत्पादन उत्पादकों के अपने उपभोग के लिये होता था ! पर नयी प्रणाली में उत्पादन का मकसद बाज़ार में विनिमय हो गया ! बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था के कारण उत्पादकों की आमदनी अपने उत्पादन के मूल्य से कम हो गयी और भौतिक वस्तुओं का अनंत संचय ही पूँजीवाद की चालक शक्ति बन गया !

नये युग में आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया बाज़ार के दायरे को भौगोलिक विस्तार की तरफ़ ले गयी ! श्रम पर नियंत्रण के विभिन्न रूप विकसित हुये और योरोप में ताकतवर राज्यों का उदय हुआ ! जो नयी अर्थव्यवस्था बनी वह दो मायनों में पहले से चली आ रही व्यवस्था से भिन्न थी ! वह साम्राज्यों की सीमा से परे जाते हुये एक से अधिक राजनीतिक प्रभुत्व-केंद्रों के साथ बनी रह सकती थी और उसका प्रमुख लक्षण था केंद्र और परिधि के बीच श्रम का एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय विभाजन !

किन्तु वैश्विक प्रणाली के सिद्धांतकार मानते हैं कि इस परिवर्तन से सर्वाधिक फ़ायदा जिन देशों को हुआ ! उन्हीं ने इसके केंद्र की रचना की ! शुरू में उत्तर-पश्चिमी योरोप के फ़्रांस ! इंग्लैण्ड और हालैण्ड जैसे देशों ने यह भूमिका निभायी ! इस क्षेत्र की विशेषता थी मज़बूत केंद्र वाली सरकारें और उनके नियंत्रण में तैनात रहने वाली भाड़े पर काम करने वाली बड़ी-बड़ी फ़ौजें ! केंद्रीय सत्ता से सम्पन्न इन सरकारों की मदद से पूँजीपति वर्ग को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के सूत्र अपने हाथ में लेने का मौका मिला और वह इससे आर्थिक अधिशेष खींचने लगा !

शहरों में होने वाले कारख़ाना आधारित निर्माण में जैसे-जैसे बढ़ोतरी हुई ! वैसे-वैसे बहुत बड़ी संख्या में भूमिहीन किसान शहरों की तरफ़ जाने लगे ! दूसरी तरफ़ कृषि संबंधी प्रौद्योगिकी में हुये विकास के कारण खेती की पैदावार भी बढ़ती गयी ! वैश्विक प्रणाली के केंद्र में जो क्षेत्र था ! उसमें पूँजी का संकेद्रण होता चला गया ! बैंकों ! विभिन्न व्यवसायों ! व्यापार और कारख़ाना आधारित कुशल उत्पादन के विस्तार ने मज़दूरी आधारित श्रम पर आधारित अर्थव्यवस्था के जारी रहने की परिस्थितियाँ पैदा कीं !

दूसरी तरफ़ परिधि के क्षेत्र थे जिनके बारे में वैश्विक प्रणाली के सिद्धांतकारों की मान्यता थी कि उनमें स्थित राज्यों में मज़बूत केंद्र वाली सरकारें नहीं थीं और वह मज़दूरी आधारित श्रम पर निर्भर होने के बजाय बाध्यकारी श्रम के आधार पर अपना उत्पादन संयोजित करते थे ! परिधि में स्थित ये क्षेत्र केंद्र स्थित राज्यों को कच्चा माल सप्लाई करके अपनी अर्थव्यवस्थाएँ चलाते थे !

सोलहवीं सदी में परिधि के मुख्य क्षेत्र लातीनी अमेरिका और पूर्वी योरोप में माने गये ! लातीनी अमेरिका में स्पेनी और पुर्तगीज़ शासन के कारण स्थानीय नेतृत्व नष्ट हो गया था और उनकी जगह कमज़ोर नौकरशाहियाँ योरोपीय नियंत्रण के तहत काम कर रही थीं ! देशी आबादी पूरी तरह ग़ुलामी के बंधन में थी ! अफ़्रीका से ग़ुलामों का आयात करके खेती और ख़नन का काम करवाया जाता था ! स्थानीय कुलीनतंत्र विदेशी मालिकानों के साथ साठ-गाँठ किये हुये था ! योरोपीय ताकतों का मकसद ऐसे माल का उत्पादन करना था जिसका उपभोग उनके गृह-राज्यों में हो सके !

वैश्विक प्रणाली के सिद्धांतकारों ने अर्ध-परिधि के तीसरे क्षेत्र की शिनाख्त भी की जो केंद्र और परिधि के बीच बफ़र की भूमिका निभा रहा था ! अर्ध-परिधि के क्षेत्र केंद्र वाले इलाकों में भी हो सकते थे और उनका ताल्लुक अतीत की समृद्ध अर्थव्यवस्थाओं से भी हो सकता था ! लेकिन सोलहवीं सदी के दौरान वह अपेक्षाकृत गिरावट के दौर से गुज़र रहे थे ! केंद्रस्थ राज्य उनका शोषण करते थे और उनके द्वारा बदले में परिधि वाले क्षेत्रों का दोहन किया जा रहा था !

वालर्स्टीन और उनके अनुयायी सोहलवीं से इक्कीसवीं सदी तक वैश्विक प्रणाली के विकास को दो चरणों में व्याख्यायित करते हैं : पहला चरण अट्ठारहवीं सदी तक चला ! इस दौरान युरोपियन राज्य और ताकतवर हुये ! एशिया और अमेरिका से हुये व्यापार के कारण मज़दूरी पर काम करने वाले श्रमिकों की कीमत पर अमीर और प्रभावशाली व्यापारियों का एक छोटा सा हिस्सा मालामाल हो गया ! राजशाहियों की ताकत बढ़ी और सर्वसत्तावादी राज्य ने अपना झंडा गाड़ दिया ! अल्पसंख्यकों के निष्कासन ! ख़ासकर यहूदियों को जलावतन कर दिये जाने के बाद योरोप की आबादी समरूपीकरण की तरफ़ बढ़ी !

दूसरे चरण के तहत अट्ठारहवीं सदी में उद्योगीकरण ने खेतिहर उत्पादन की जगह लेनी शुरू की ! योरोपीय राज्य नये-नये बाज़ारों की खोज में लग गये ! अगले दो सौ साल तक आधुनिक विश्व-प्रणाली में एशिया और अफ़्रीका जैसे नये-नये क्षेत्रों को शामिल करने की प्रक्रिया जारी रही ! परिणाम स्वरूप आर्थिक अधिशेष बढ़ता गया ! बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में इस वैश्विक प्रणाली का चरित्र वास्तव में भूमण्डलीय बना !

लेकिन यह सब अब बीते समय की बात है ! विश्व के भविष्य को खुशहाल बनाने के लिये विश्व सत्ता के योजनाकार मानते हैं कि सर्वप्रथम विश्व की आबादी प्राकृतिक संसाधनों के अनुरूप होनी चाहिये ! अत: इस पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधन को मात्र 50 करोड़ व्यक्ति ही उपभोग कर सकते हैं ! इसलिये इससे अधिक आबादी को विश्व से विदा करना होगा और इससे विश्व के समस्त प्राकृतिक संसाधन और ऊर्जा के स्रोत विश्व सत्ता के आधीन होने चाहिये ! जिससे सभी राष्ट्रों में इसका समान उपयोग हो सके ! इस पर किसी एक देश का विशेषाधिकार नहीं होना चाहिये ! तभी भविष्य की विश्व जनता सुरक्षित, संपन्न और खुशहाल हो सकेगी ! और अब विश्व सत्ता इसी दिशा में कार्य कर रहा है !!

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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